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धूल दब गई है और कुछ हद तक शांति कायम हो गई है। दिल्ली को फतह कर अन्ना हजारे अपने गांव लौट गए हैं। अगले तूफान से पहले उन्हें अपनी बढ़त को और मजबूत करना चाहिए। वह अपने सहयोगियों के साथ मंथन कर रहे हैं ताकि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक परिणामोन्मुख, दीर्घकालीन एजेंडे को आगे बढ़ा सकें। इस बीच, मैं टीम अन्ना को भ्रष्टाचार के कुछ प्राथमिक घटकों से अवगत कराना चाहता हूं। यह देखना अहम है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कौन से कदम कारगर साबित हो सकते हैं और कौन से नहीं। यह एक तरह से भ्रष्टाचार से लड़ने की नियमावली है। मजबूत लोकपाल अच्छा विचार है, किंतु यह प्रभावी होना चाहिए। लोकपाल तभी सफल हो सकता है जब यह कुछ चुनिंदा मामलों को ही हाथ में ले। इसे अपना ध्यान बड़ी मछलियों पर केंद्रित करना चाहिए और छोटी मछलियां लोकायुक्त, सतर्कता आयुक्त और अन्य एजेंसियों के जिम्मे छोड़ देनी चाहिए।
लोकपाल के पास सरकार की अनुमति के बगैर मामले को हाथ में लेने का अधिकार होना चाहिए और इसका निर्णय बाध्यकारी होना चाहिए। मुख्य सतर्कता आयुक्त की विफलता के कारणों को दूर करके इसमें सुधार किया जा सकता है। मुख्य सतर्कता आयुक्त लोकपाल के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, किंतु वह इसके अधीन नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार, सीबीआइ भी लोकपाल के प्रति जवाबदेह होते हुए इसके अधीन नहीं होनी चाहिए। ये तीनों-लोकपाल, मुख्य सतर्कता आयुक्त और सीबीआइ स्वायत्त इकाई होनी चाहिए। हालांकि, सीबीआइ के मामले में, ‘एकल निर्देश’, जिसके तहत वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ मामला चलाने के लिए सरकार की पूर्वानुमति जरूरी होती है, के प्रावधान को खत्म नहीं करना चाहिए। जैसाकि सुप्रीम कोर्ट ने सुझाया था कि इससे निर्णय लेने की शक्ति खत्म हो जाती है। लोकपाल की नियुक्ति के संबंध में काफी कुछ भाग्य पर निर्भर करता है। टीएन शेषन के मोर्चा संभालने तक चुनाव आयोग एक सामान्य संस्थान ही था। इसके बाद एक और लाजवाब मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह आए। हाल ही में कर्नाटक के लोकायुक्त ने राज्य के मुख्यमंत्री को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। जब लोकपाल के चुनाव का समय आएगा तो इसकी सक्षमता, सख्ती, इच्छाशक्ति और साहस बहुत कुछ ‘भाग्य’ पर निर्भर करेगा।
लोकपाल को दवा की जरूरत है। बीमारी के लंबे समय बाद ही इस पर ध्यान गया है। इलाज से बेहतर रोकथाम है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हमें शासन के अपने संस्थानों-प्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका और चुनाव प्रणाली में सुधार की शुरुआत कर देनी चाहिए। चूंकि भारतीयों का रोजाना नौकरशाही से साबका पड़ता है, इसलिए यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। अगर निर्णय लेने में पारदर्शिता, ईमानदारी हो और देरी करने वाले अधिकारियों को दंडित किया जाए तो भ्रष्टाचार पर काफी अंकुश लग सकता है, किंतु ये प्रशासनिक सुधार तब तक कारगर नहीं होंगे जब तक कि नौकरशाही में पदोन्नति की प्रक्रिया में बदलाव न लाया जाए। वर्तमान व्यवस्था में वरिष्ठता को आधार बनाया जाता है। जो अधिकारी जितने समय से नौकरी कर रहा है उसे उतनी ही अधिक पदोन्नति मिलती है। इसमें बेहतर प्रदर्शन पर प्रोत्साहन और खराब काम पर दंडित करने की व्यवस्था होनी चाहिए। आकलन करने की वर्तमान व्यवस्था अप्रभावी है। भारत में ऐसे अधिकारी गिने-चुने हैं जिन्हें बहुत अच्छा या लाजवाब बताया जा सके। हांगकांग की एक स्वतंत्र फर्म ने 13 देशों की नौकरशाही में भारत को सबसे निचले दर्जे पर रखा है।
भ्रष्टाचार दो प्रकार का होता है-उत्पीड़क और कपटपूर्ण। कपटपूर्ण भ्रष्टाचार में राष्ट्रीय संपत्ति को चुराने के लिए घूस लेने और देने वालों की मिलीभगत होती है, जैसाकि 2जी घोटाले में हुआ। इसमें दोनों पक्षों को दंडित किया जाना चाहिए। उत्पीड़क भ्रष्टाचार में कोई अधिकारी किसी नागरिक को उसका अधिकार जैसे जन्म प्रमाणपत्र या राशनकार्ड देने की एवज में घूस वसूलता है। यहां घूस देने वाला उत्पीड़न का शिकार है और उसे शिकायत करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। जनलोकपाल मसौदे में भ्रष्टाचार के शिकार लोगों की सुरक्षा की वकालत की गई है। झूठी शिकायतों के मामले में सरकारी बिल बेहतर है, जिसमें ऐसा करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है।
उत्पीड़क भ्रष्टाचार को रोकने में इंटरनेट हमारा बड़ा मददगार साबित हुआ है। इसकी वजह से पारदर्शिता बढ़ी है। रेलवे टिकट बुकिंग और कुछ राज्यों में भूमि का रिकॉर्ड नेट पर डालने से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। जन्म और मृत्यु प्रमाणपत्र, राशन कार्ड, पेंशन भुगतान, ड्राइविंग लाइसेंस रिन्यूवल आदि में ई-गवर्नेस अपनाने से भ्रष्टाचार में कमी आई है। प्रत्येक सरकारी विभाग के लिए यह अनिवार्य हो जाना चाहिए कि वह तमाम नियम, प्रक्रियाएं और फॉर्म आदि इंटरनेट पर जारी करे। सरकारी कार्यालयों में अभी तक सिटीजन चार्टर विफल रहा है, लेकिन अन्ना के आंदोलन के बाद दिल्ली समेत पांच राज्यों ने इसे लागू करने का फैसला लिया है।
हर कोई जानता है कि भूमि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत है। भूउपयोग में परिवर्तन, नगरपालिका की अनुमति, कंपलीशन सर्टिफिकेट, रजिस्ट्री, नक्शा पास कराने और अन्य दर्जनों अनुमति देने में भारी घूसखोरी होती है। राष्ट्रीय संसाधनों, जैसे खनन, तेल व गैस, टेलीकॉम स्पेक्ट्रम आदि में तो भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच जाता है, क्योंकि अधिकांश औद्योगिक और बड़ी भवन निर्माण परियोजनाओं में पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति ली जाती है, इसलिए अब यह मंत्रालय ही लाइसेंस राज में तब्दील हो गया है। जब से इंदिरा गांधी ने कॉरपोरेट चंदे पर रोक लगाई है तब से चुनाव पूरी तरह काले धन पर ही लड़े और जीते जाते हैं।
चुनाव सुधार को भी वरीयता दी जानी चाहिए। राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करने और अपराधियों को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने के उपायों पर विचार होना चाहिए। न्यायिक और पुलिस सुधार नाजुक विषय हैं। पुलिस विभाग को सरकार के बंधनों से मुक्त करके स्वायत्तता दी जानी चाहिए। न्यायपालिका को भी न्यायिक आयोग के अधीन लाया जाना चाहिए। अंत में, सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि सरकार को छोटा बनाए रखें। समझदार सरकारें उद्योग, एयरलाइंस और होटल नहीं चलातीं। हम 1991 में देख चुके हैं कि कम से कम नियंत्रण और लाइसेंस का मतलब है कम भ्रष्टाचार। सुधार ही भ्रष्टाचार की सही दवा है।
लेखक गुरचरण दास प्रख्यात स्तंभकार हैं
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