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कुछ दिनों पहले मैं आवासीय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए अपने ब्लॉक ऑफिस गया था। आवेदन देने के बाद बताया गया कि इसमें कम से कम 15-20 दिन लगेंगे उसके बाद आइए। मैं सोच में पड़ गया क्योंकि दो दिन बाद ही दिल्ली के लिए मेरी ट्रेन थी। थोड़ी देर बाद एक सज्जन मिल गए और मेरी समस्या सुनने के बाद कुटिल मुस्कान के साथ बोले प्रमाण पत्र तो एक दिन में बन जाएगा लेकिन सिर्फ आवेदन देने से नहीं होता उसके साथ कुछ नत्थी भी करना होता है। मैं समझ गया। उनके दिशा-निर्देश में कार्य किया और समय पर दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ ली। वास्तव में यह कहानी हर उस आम-खास की है जिसका पाला सरकारी दफ्तरों से पड़ता है। लेकिन ऐसी बातें कई सवाल पैदा करती हैं। क्या स्वतंत्रता प्राप्ति एवं गणतंत्र स्थापना के इतने सालों बाद भी हम एक सुदृढ़ व्यवस्था कायम करने में नाकाम रहे हैं? वे कौन से कारण हैं जो डॉ. कलाम के 2020 तक विकसित भारत के सपने में बाधक हैं? निस्संदेह विविधतापूर्ण इस देश में इन समस्याओं के भी विविध कारण हैं परंतु वर्तमान परिदृश्य में सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही है। आजादी के बाद भ्रष्टाचार-उन्मूलन के लिए कई कानून बने। लेकिन साथ-साथ भ्रष्टाचार का ग्राफ भी बदलता चला गया। जब उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के बड़े मामले उजागर होने लगे तो जनता एकजुट हो गई जिसने बड़े आंदोलनों का रूप ले लिया।
1974 का जेपी आंदोलन इस दृष्टि से स्मरणीय है। 1989 में वीपी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोला। राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहने के बावजूद क्या ये भ्रष्टाचार मिटाने में सफल रहे? स्पष्टत: नहीं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की अगली कड़ी में अन्ना हजारे का आंदोलन महत्वपूर्ण और कई दृष्टिकोण से ऐतिहासिक है। अन्ना ने सिर्फ आंदोलन ही नहीं, बल्कि जनलोकपाल को प्रस्तावित कर आंदोलन के आगे की कार्रवाई करने के लिए भी सरकारी तंत्र को बाध्य किया है। लेकिन एक कानून तो क्या ऐसे दो-चार कानून बनाकर भी हम भ्रष्टाचार मुक्त देश नहीं बन सकते। भ्रष्टाचार की जड़ कहीं और है और इसका खात्मा भी वहीं संभव है। यदि ईमानदारी से कहें तो हमारा सामाजिक चरित्र भ्रष्टाचार में लिप्त है। हमें ध्यान रखना होगा कि सिर्फ रिश्वत लेना-देना, अथवा प्रशासकों नेताओं के घपले घोटाले ही भ्रष्टाचार नही है। बल्कि इसका व्यापक अर्थ भ्रष्ट-आचरण से है। प्रत्येक अमानवीय, अनैतिक, असामाजिक कार्य भ्रष्टाचार है। और प्रत्येक भ्रष्टाचार एक-दूसरे का सहायक है। क्या कानून बनाकर हम इन्हें खत्म कर सकते हैं? भ्रष्टाचार के खिलाफ 121 करोड़ की जनसंख्या में एक अन्ना ही क्यों आगे आते हैं? क्या वे युग पुरुष हैं? नहीं वे एक सामान्य भारतीय हैं। वे खुद भी ऐसा ही कहते हैं। लेकिन उनमें आत्मविश्वास है, नैतिकता है, आदर्श है एवं न्यूनतम आवश्यकताएं हैं।
जे.पी., महात्मा गांधी मदर टैरेसा, मार्टिन लूथर किंग आदि में भी ऐसे ही आधारभूत नैतिक एवं चारित्रिक गुण थे जिसने उन्हें जनकल्याण के लिए प्रेरित किया। क्या इन गुणों का विकास स्वयं में नहीं होना चाहिए? क्या देश एवं समाज अन्याय एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के दशकों तक पुन: गांधी, जेपी या अन्ना का इंतजार करता रहेगा? व्यक्तिगत चरित्र ही सामाजिक एवं राष्ट्रीय चरित्र का जनक है। अत: व्यक्तिगत चरित्र निर्माण आवश्यक है। वस्तुत: बच्चों के चारित्रिक विकास के लिए हमें चरणबद्ध तरीके से ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे कि विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्र के लिए ईमानदार लोग उपलब्ध हो सकें। नैतिक शिक्षा को स्कूल, कॉलेजों के पाठ्यक्रम में अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किए जाने की आवश्यकता है। ऐतिहासिक आंदोलन के लिए अन्ना हजारे सामान्य जन के साथ ही भ्रष्टाचारियों की तरफ से भी धन्यवाद के पात्र हैं। न चाहते हुए भी अधिकतर लोग भ्रष्ट हैं। लेकिन अंतत: हमें महान अन्ना न सही एक साधारण अन्ना बनने का प्रयास तो करना ही चाहिए।
भानु कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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