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भ्रष्टाचार के खिलाफ अधूरी जंग

जागरण मेहमान कोना
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Vijay Aggrawalभारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले तथाकथित जन आंदोलन का पूर्वाद्ध खत्म हो गया है और उत्तरा‌र्द्ध शुरू होने को है। उत्तरा‌र्द्ध के नायक भी वही हैं, जो पूर्वाद्ध के थे, यानी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव। फिलहाल इस मुद्दे को लेकर कुछ प्रश्न जनता के मन में कुलबुला रहे हैं। इनके उत्तर उन्हें मिलने ही चाहिए, ताकि वे निद्र्वद्व होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ इस जंग में भाग ले सकें। अन्ना हजारे स्वयं में एक विश्वसनीय व्यक्तित्व एवं अत्यंत सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनके पास आंदोलनों का लंबा अनुभव है। लोग यह जानना चाहते हैं कि कैसे एक अनुभवी आंदोलनकारी नायक ने भ्रष्टाचार जैसे गहरे, गंभीर एवं राष्ट्रव्यापी जहर का इलाज मात्र लोकपाल के सपेरे के पास देख लिया। यदि आज जनलोकपाल बिल को ज्यों का त्यों पारित कर दिया जाए, तो भी क्या भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या उनके और उनके सलाहकारों के पास सत्ता के मूल चरित्र का यह व्यावहारिक ज्ञान नहीं था कि सत्ता चाहे किसी की भी क्यों न हो, यहां तक कि उनकी भी जो आंदोलनरत हैं, उसका मूल उद्देश्य स्वयं के अस्तित्व को बचाए और बनाए रखना होता है, न कि किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए खुद की बलि चढ़ा देना।


योगगुरु और पहले से ही राजनीति में आने को आतुर आयुर्वेद उद्योगपति बाबा रामदेव को लगा कि यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन के घोड़े पर सवार होकर अपनी राजनीतिक यात्रा का बिगुल बजाने का सही समय है। वह इसमें काफी कुछ सफल भी हुए। वह और भी सफल होते, यदि उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह के उस सिद्धांत को अपनाया होता कि न तो अन्याय के आगे झुको, न भागो और न ही दुराग्रह दिखाओ। यदि सत्य के प्रति सचमुच में आग्रह है, तो डटे रहो। उनके डटे न रहने के कारण उफनते हुए दूध के कड़ाहे में नीबू के रस की बूंदें पड़ीं और सब-कुछ छितरा गया।


मैं हाल ही में कनाड़ा और अमेरिका की तीन महीने की यात्रा से लौटा हूं। मैं जहां भी गया, जिनसे भी मिला, हरेक ने मुझसे भारत की रग-रग में बसे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा। अब उनकी चिंता न तो भारत-पाकिस्तान संबंध हैं, न सांप्रदायिकता है और न ही जीडीपी है। उनकी मूल चिंता भ्रष्टाचार है। मुझे इसका कारण यह लगा कि वे सब अपने देश के लिए कुछ करना चाहते हैं-डोनेशन के रूप में, निवेश के रूप में और यहां तक कि हमेशा-हमेशा के लिए अपने देश वापस लौटकर भी। लेकिन भ्रष्टाचार के तांडव को देखकर उनकी हिम्मत टूट जाती है। ऐसी स्थिति में रामदेव बाबा द्वारा शुरू किया आंदोलन उन्हें एक उम्मीद की किरण की तरह दिखाई दे रहा था, जिसके इतनी जल्दी खत्म होने पर वे बुझ से गए। अन्ना हजारे के आंदोलन ने उनमें फिर उम्मीद जगाई है।


बहुत बुरा दौर होने के बावजूद यह बहुत महत्वपूर्ण दौर भी है। भारत भ्रष्टाचार पर गंभीर मंथन करके इस समस्या का स्थायी समाधान निकाल सकता है। वस्तुत: भ्रष्टाचार केवल राजनीतिक या प्रशासनिक मुद्दा नहीं है। जब तक हम इसे राजनीतिक और प्रशासनिक समस्या से ऊपर उठकर सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और यहां तक कि वैधानिक समस्या से जोड़कर नहीं देखेंगे, तब तक इसका स्थायी समाधान निकाल पाना संभव नहीं होगा। इसलिए बहुत जरूरी है कि हमारे देश में जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व कर रहा हो, उसके पास व्यापक दृष्टि और दूरदर्शिता हो। शायद इसीलिए प्लेटो ने ‘दार्शनिक राजा’ की बात कही थी। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों में व्यावहारिकता, दृष्टि और दूरदर्शिता का नितांत अभाव था।


यह बात बहुत मायने रखती है कि अत्यधिक आर्थिक असमानता वाले देश में भ्रष्टाचार की उपस्थिति कितनी स्वाभाविक है, कितनी कृत्रिम। जब मैं आर्थिक असमानता की बात कर रहा हूं, तो उसमें ‘खा-खाकर मरने वालों से लेकर बिना खाए ही मर जाने वालों’ तक की रेंज शामिल है। किसी भी समाज में पूर्ण आर्थिक समानता संभव नहीं है। लेकिन क्या कोई भी सभ्य समाज और विशेषकर लोकतांत्रिक देश स्वयं को इस दायित्व से मुक्त कर सकता है कि उसके किसी भी नागरिक की मौत सिर्फ इसलिए हो जाए, क्योंकि उसके पास पेट में डालने के लिए रोटी के दो कौर नहीं थे?


सामंती व्यवस्था को समाप्त करके लोकतांत्रिक व्यवस्था को लागू किए हुए 64 साल पूरे हो गए हैं। इस तथ्य का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि क्या एक प्रणाली को समाप्त कर देने से उसके मूलभूत तत्व भी समाप्त हो गए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सामंती व्यवस्था के वे सारे तत्व, जो मूलत: शोषण, श्रम की अवहेलना, विलासिता तथा सामाजिक गठबंधन पर आधारित होते हैं, अपना चोला बदलकर हमारी चेतना में अभी भी मौजूद हैं। इसका मूल्यांकन राजनीति, नौकरशाही और आर्थिक शक्ति से संपन्न वर्ग के संदर्भ में विशेष रूप से किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी सामंती व्यवस्था निहायत ही निजी हितों और निजी नियमों पर आधारित होती है और जहां भी ऐसा होगा, वहां सार्वजनिक हित और सार्वजनिक विधि-विधान तिरस्कृत हो जाते हैं।


कहीं ऐसा तो नहीं कि हम एक ऐसे समाज की रचना में जुटे हुए हैं जहां साधनों की पवित्रता खत्म हो रही है और साध्य ही सब कुछ हो गया है। और यह साध्य है मात्र धन इकट्ठा करना। यदि वास्तव में किसी भी समाज में अर्थ-शक्ति सर्वोत्तम उपलब्धि और सर्वोत्तम योग्यता का मापदंड बन जाती है, तो फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए गए मजबूत से मजबूत और धारदार हथियार भी कुछ समय बाद भोथरे पड़ते नजर आने लगते हैं।


लेखक डॉ. विजय अग्रवाल पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं


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