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ममता से मोहभंग के मायने

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh Parimalअब तक कांग्रेस का लगातार साथ देने वाली ममता बनर्जी इन दिनों कांग्रेस से नाराज चल रही हैं। वजह साफ है, ममता बनर्जी ने यह समझ लिया है कि पश्चिम बंगाल में अब कांग्रेस के सहयोग के बिना भी वे सरकार अच्छी तरह से चला सकती हैं। इसलिए उन्होंने कई बार केंद्र सरकार को सांसत में डाला है। फिर चाहे पेट्रोल की मूल्य वद्धि का मामला हो या फिर एफडीआई का मुद्दा। हर बार ममता ने सरकार को अपनी मर्जी से चलाने की कोशिश की। आखिर इसका भी अंत तो होना ही था। अब दोनों के स्वभाव में तल्खी आ गई है। दोनों ही यानी ममता और कांग्रेस सोच रहे हैं कि तआरुफ रोग बन जाए तो उसको भूलना अच्छा, तआल्लुक बोझ बन जाए तो उसको छोड़ना अच्छा। इसलिए दोनों ने परस्पर हमले करने शुरू कर दिए हैं। कांग्रेस ने भी अपनी चाल चलते हुए 19 सांसदों वाली ममता की पार्टी को छोड़कर 22 सांसदों वाली मुलायम की पार्टी से नाता जोड़ने का मन बनाया है। सपा भी इसी ताक में है, लेकिन इस पर पार्टी के अखिलेश यादव का कहना है कि इस मसले पर चुनाव के बाद ही चर्चा की जाएगी।


कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस के बीच कटुता लगातार बढ़ रही है। ममता बनर्जी भी समय-समय पर अपने तेवर दिखाती रही हैं। इस तरह से वे अपने होने का दिखावा करती रहीं हैं। इससे सरकार को कई बार भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। कई बार तो ममता के ही कारण सरकार की काफी छिछालेदर भी हुई है। आखिर ऐसा कब तक चलता। यही वजह है कि पार्टी के भीतर तृणमूल कांग्रेस के बिना संप्रग गठबंधन को चलाने के लिए विकल्पों पर मंथन शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद 22 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी को कांग्रेस तृणमूल की जगह संभावित साथी के तौर पर देख रही है। कांग्रेस के कुछ रणनीतिकारों ने सलाह दी है कि तृणमूल को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद कांग्रेस-सपा गठबंधन तैयार कर वामपंथी दलों के साथ पुराने रिश्ते में जान फूंक कर 2014 के लोकसभा चुनाव में जाना बेहतर विकल्प होगा। कांग्रेस-तृणमूल के बीच का ताजा विवाद कोलकाता में इंदिरा भवन का नाम बदलने को लेकर है। मुख्यमंत्री बांग्ला के विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम के नाम पर इस भवन को अकादमी के रूप में विकसित करना चाहती हैं। उनके इस फैसले के खिलाफ प्रदेश कांग्रेस सड़क पर उतर आई।


दोनों दलों के बीच बढ़ती इस दूरी को कांग्रेस भले ही ऊपरी तौर पर खारिज कर रही है, लेकिन भीतर ही भीतर उसने भी ममता बनर्जी से नाता तोड़ लेने का मन बना लिया है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। संभावना यही है कि जब तक अंतिम दौर का मतदान पूरा नहीं होगा, तब तक न तो पेट्रोल के दामों में किसी प्रकार की बढ़ोतरी होगी और न ही कांग्रेस ममता का साथ छोडे़गी। लेकिन विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस ममता को छोड़ मुलायम का दामन थाम सकती है। मुलायम सिंह पिछले सात सालों से कांग्रेस को बाहर से समर्थन दे रहे हैं, लेकिन अभी तक उन्हें केंद्र सरकार में शामिल होने का मौका नहीं मिला है। यदि परिस्थितियां बदलीं तो सपा का केंद्र में शामिल होने का सपना भी पूरा हो सकता है। कोलकाता में इंदिरा भवन का नाम नजरुल के नाम पर करने के ममता के बयान से कांग्रेस कार्यकर्ताओं के विरोध का जवाब ममता ने भी तल्ख तेवरों के साथ दिया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के लोग सीपीएम के साथ मिलकर उनके खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। ममता ने यह भी कहा कि लोकपाल विधेयक पर कांग्रेस के साथ कोई डील नहीं होगी। वैसे, ममता पर शुरू से ही गठबंधन धर्म नहीं निभाने के आरोप लगते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को दगा देने वालों को भी ममता ने अपनी सरकार और पार्टी में बढि़या हैसियत दी है।


मालदा के कांग्रेस अध्यक्ष एस. मित्रा आजकल ममता की कैबिनेट में महिला-बाल विकास मंत्री हैं तो चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़ टीएमसी में शामिल होने वाले श्यामपदा मुखर्जी पर भी ममता मेहरबान हैं और उन्हें भी कैबिनेट में जगह दी गई है। अब त्रिपुरा और गोवा में भी ममता अपने प्रत्याशी उतारने की बात कहकर कांग्रेस की आंखों की किरकिरी बन गई हैं। इसलिए एक लंबे समय तक साथ-साथ चलने वालों के राजनीतिक रास्ते अलग-अलग हो जाएं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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