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महंगे पेट्रोल का राज

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 1.80 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की। 28 जून 2010 को पेट्रोल की कीमतों के नियंत्रणमुक्त होने के बाद यह 10वीं बढ़ोतरी है। भाजपा जहां इसे आधी रात का कत्ल बता रही है, वहीं सरकार की सहयोगी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने समर्थन वापसी की धमकी दे डाली है। महंगे पेट्रोल के कड़वे सच का विश्लेषण किया जाए तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आते हैं। सच्चाई यह है कि पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी का मूल कारण करों का भारी बोझ है। केंद्र सरकार कस्टम ड्यूटी के रूप में 2.5 फीसदी, एडिशनल कस्टम ड्यूटी दो रुपये प्रति लीटर, काउंटरवेलिंग ड्यूटी 6.5 रुपये प्रति लीटर, स्पेशल एडिशनल ड्यूटी 6 रुपये प्रति लीटर, सेनवेट 6.35 रुपये प्रति लीटर, एडिशनल एक्साइज ड्यूटी 2 रुपये प्रति लीटर और स्पेशल एडिशनल एक्साइज ड्यूटी के मद में 6 रुपये प्रति लीटर कर वसूलती है। राज्य सरकारें वैट के मद में कर लेती हैं। दिल्ली में पेट्रोल पर 20 फीसदी वैट है। हरियाणा में यह 20.5 फीसदी, छत्तीसगढ़ और चंडीगढ़ में 22 फीसदी, पंजाब में 27.5 फीसदी, मध्य प्रदेश में 28.75 फीसदी और राजस्थान में 28 फीसदी है। इसके अलावा राज्य सरकारें एक रुपया प्रति लीटर सेस भी लेती हैं। फिर पेट्रोल पर वसूले गए कर का एक-तिहाई राज्यों को सौंप दिया जाता है। देखा जाए तो एक साल में पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स के रूप में केंद्र को 96,000 करोड़ रुपये मिलते हैं और राज्यों को 84,000 करोड़। लेकिन करों का एक-तिहाई हिस्सा राज्यों को सौंपने के बाद केंद्र के पास 64,000 करोड़ रुपये ही बचते हैं।


दिल्ली की कीमतों को आधार बनाएं तो सरकारी कंपनियों को एक लीटर पेट्रोल 23 रुपये के आसपास पड़ता है। शेष 45 रुपये से ज्यादा की राशि वे जनता से कर के रूप में वसूल करती हैं। यही कारण है कि भारत में पेट्रोल पड़ोसी देशों की तुलना में इतना महंगा है। इस समय पाकिस्तान में पेट्रोल 41.81 रुपये, श्रीलंका में 50.30 रुपये और बांग्लादेश में 44.80 रुपये प्रति लीटर है। यहां तक कि भारत से पेट्रोल आयात करने वाले नेपाल में पेट्रोल 63.24 रुपये प्रति लीटर बिक रहा है। लेकिन हमारे यहां डिकंट्रोल के नाम पर कंपनियों को पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने की खुली छूट दे दी गई है। इसीलिए वे कभी कच्चे तेल की ऊंची कीमत तो कभी रुपये में गिरावट से होने वाले नुकसान को आधार बनाकर कीमतों में बढ़ोतरी करती रहती हैं। लेकिन ये कंपनियां कभी यह नहीं बतातीं कि भारत चालू दर पर कच्चा तेल न खरीद कर पहले ही अनुबंध के जरिए कीमतें तय करके अपनी तेल आपूर्ति सुनिश्चित करता है। ऐसे में रुपये की तात्कालिक कमजोरी को कहां तक उपयुक्त ठहराया जा सकता है। भले ही तेल कंपनियां घाटे का रोना रोती हों लेकिन सच्चाई यह है कि इनकी बैलेंसशीट घाटा नहीं मुनाफा दिखा रही हैं। उदाहरण के लिए 2006-07 से 2009-10 के बीच चार वषरें की अवधि में तीन पेट्रोलियम कंपनियों (इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन) का सम्मिलित लाभ 36,653 करोड़ रुपये था। फिर सार्वजनिक क्षेत्र का उद्देश्य सामाजिक लाभ है न कि मुनाफा कमाना।


सरकार का तर्क है कि देश की पेट्रोलियम पदाथरें की वार्षिक जरूरत 10.6 करोड़ टन है जिसमें घरेलू उत्पादन 3.4 करोड़ टन ही है। सरकार दूसरा तर्क देती है कि 2010-11 में कच्चे तेल की औसत कीमत 85 डॉलर प्रति बैरल रहने से जहां तेल कंपनियों को 78,190 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा, वहीं इस समय कच्चे तेल की औसत कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल होने से अंडररिकवरी बढ़कर 1,32,000 करोड़ हो गई है। लेकिन यदि लागत और तेल कंपनियों के मुनाफे को शामिल करते हुए लागत जोड़ सिद्धांत को अपनाया जाए तो वर्तमान दर से काफी कम मूल्य निर्धारण संभव है। फिर भारत हर साल 3.4 करोड़ टन कच्चे तेल का उत्पादन करता है जिसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित करना जरूरी नहीं है। साथ ही भारत बड़ी मात्रा में कच्चे तेल को परिष्कृत करके पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात भी करता है जो उद्योग को अच्छा-खासा मुनाफा देता है। ऐसे में लाभ को छोड़ दिया जाए तो पेट्रोल की कीमतें 20 से 26 रुपये के बीच हो सकती हैं।


लेखक रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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