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दोराहे पर अफगानिस्तान युद्ध

जागरण मेहमान कोना
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Harsh pantराजनीतिक और आर्थिक दबावों के बीच बराक ओबामा प्रशासन ने दस साल पुराने अफगानिस्तान युद्ध को समाप्त करने के लिए इस वर्ष गंभीर प्रयास शुरू किए हैं, लेकिन तालिबान प्रतिनिधियों के साथ कुछ दौर की बातचीत के बावजूद अब तक कुछ उत्साहजनक सामने नहीं आ सका है। इसके विपरीत जमीनी हकीकत यह है कि स्थितियां और अधिक बिगड़ी हैं। फिर भी शांति वार्ता के विचार पर लोगों का ध्यान गया है और अमेरिकी विशेषज्ञ तथा थिंक टैंक के सदस्य यह आकलन करने में लगे हैं कि इसका प्रबंध किस तरह किया जाए? नवीनतम योगदान वाशिंगटन के रैंड कारपोरेशन का है। उसका कहना है कि सफलता मिलने में इसलिए अड़चन है, क्योंकि कई पक्षों के हित आपस में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं। उदाहरण के लिए हर किसी की आकांक्षा यह है कि पश्चिमी सशस्त्र सेनाएं अफगानिस्तान से वापस हो जाएं। पश्चिमी देशों के लोगों में यह चाहत कुछ ज्यादा ही है। सभी अफगान चाहते हैं कि विदेशी शक्तियां हमारे अंदरूनी मामलों में दखल देना बंद करें। सभी विदेशी सरकारें यह आश्वासन चाहती हैं कि अफगानिस्तान की भूमि का इस्तेमाल उनके खिलाफ नहीं किया जाएगा। इसी तरह अमेरिकी और तालिबान चाहते हैं कि विदेशी बल जितनी जल्दी संभव हो, अफगानिस्तान से लौट जाएं, लेकिन अधिकांश अन्य भागीदार जिसमें काबुल सरकार भी शामिल है, को इतनी जल्दी नहीं है।


रक्षा विभाग में अफगानिस्तान के मामले देखने वाले और बुश के कार्यकाल में सीआइए में अपनी सेवाएं देने वाले जेम्स शिन लिखते हैं कि इतनी विसंगितयों के बावजूद बातचीत की प्रक्रिया शुरू हुई है। बाधाएं इतनी अधिक हैं कि इस प्रक्रिया को पूरी होने में वर्षो लग सकते हैं। रैंड कारपोरेशन के लिए इस रिपोर्ट को तैयार करने में जेम्स शिन का साथ दिया है जेम्स डोबिंस ने, जिन्होंने अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार की स्थापना के लिए किए गए बान समझौते को संपन्न कराने में अमेरिकी वार्ताकार की भूमिका निभाई थी। रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले वर्ष शिन और डोबिंस ने अफगान युद्ध में शामिल सभी पक्षों से बातचीत की, जिनमें तालिबान भी शामिल हैं। रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि युद्ध में शामिल अमेरिका काबुल सरकार, तालिबान और पाकिस्तान, भारत, ईरान तथा रूस जैसे पड़ोसी देशों समेत सभी पक्षों के बीच मध्यस्थ की भूमिका नहीं निभा सकता।


चूंकि वाशिंगटन मध्यस्थ की भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं है इसलिए उचित यह होगा कि वह बातचीत के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किसी व्यक्तित्व की नियुक्ति की दिशा में प्रयास करे जो न केवल निष्पक्ष हो, बल्कि जिसके पास एक बहुपक्षीय बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त जानकारी, संपर्क तथा कूटनीतिक कौशल हो। बातचीत जर्मनी अथवा तुर्की में हो सकती है। इसके अतिरिक्त जेनेवा अथवा दोहा जैसे तटस्थ स्थानों का भी प्रस्ताव है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका को अफगानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का गढ़ बनने से रोकने के अपने राष्ट्रीय उद्देश्य पर निगाह रखनी चाहिए। यद्यपि अमेरिका की गहरी रुचि भविष्य के अफगानिस्तान समाज पर है और वह महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के प्रति संवेदनशील है, लेकिन उसे अपने व्यापक उद्देश्यों पर कहीं अधिक नजदीक से ध्यान देने की आवश्यकता है। साफ है कि अमेरिका को अफगानिस्तान की सरकार में तालिबान की उपस्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अमेरिका के इस उद्देश्य को पूरा करने में अन्य मुद्दे किस तरह असर डालते हैं, इसको ध्यान में रखते हुए अमेरिकी वार्ताकारों को अफगानिस्तान के सामाजिक और संवैधानिक मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी नीति-नियंताओं को दो भविष्य के लिए तैयार रहना चाहिए-वार्ता की सफलता या विफलता। दोनों ही स्थितियों में यह बुनियादी उद्देश्य पूरा होना चाहिए कि अल कायदा की वापसी न होने पाए। अगर बातचीत असफल होती है तो इसका अर्थ है कि अमेरिकी सेनाओं का कुछ हिस्सा 2014 तक अफगानिस्तान में ही होगा, जो अमेरिकी सेनाओं की वापसी के संदर्भ में ओबामा द्वारा निर्धारित समयसीमा है।


एक ओर अफगानिस्ता में बातचीत को गति मिल रही है तो दूसरी ओर जमीनी पर सैन्य सच्चाई एक हद तक तालिबान के पक्ष में मुड़ रही है। ओबामा प्रशासन पिछले कुछ महीने में हासिल की गई बढ़त को धीरे-धीरे गंवा रहा है। छह अगस्त को चिनूक हेलीकाप्टर को तालिबान आतंकियों द्वारा मार गिराने की घटना इसका प्रमाण है, जिसमें 22 नैवी सील समेत 30 अमेरिकी सैनिक मारे गए। 22 जून 2011 को ओबामा ने घोषणा की थी कि सितंबर 2012 तक 33000 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से लौट आएंगे। इनमें से पांच हजार की वापसी जुलाई 2011 में होनी थी और पांच हजार अन्य की इस वर्ष के अंत तक। 6 जून 2011 को अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या 90000 थी, जबकि यदि अन्य अंतरराष्ट्रीय सैन्य बलों को इसमें जोड़ दिया जाए तो संख्या एक लाख 32 हजार हो जाती है। ओबामा की इस घोषणा के बाद से ही पूरे अफगानिस्तान में कई बड़े आतंकी हमले हुए जिससे अफरातफरी बढ़ी है।


वस्तुस्थिति यह है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी रणनीति एक दशक की असफलता की कहानी है। अमेरिका ने लादेन और अल कायदा के अन्य नेताओं के मारे जाने को अपनी बड़ी रणनीतिक कामयाबी के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन सच्चाई यह है कि अफ-पाक में अमेरिका लगातार असफल हो रहा है। ओबामा अनेक घरेलू संकट से घिरे हुए हैं और अब उनकी चिंता अपने पुनर्निर्वाचन को लेकर बढ़ती जा रही है। आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है और तथ्य यह है कि अफगानिस्तान में उनकी बहुत कम रुचि बची है।


लेखक हर्ष वी. पंत लंदन के किंग्स कालेज में प्राध्यापक हैं



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