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दुख की अनुभूति

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreपिछले दिनों मैंने पहली बार जंगल देखा। सघन जंगल। चिकलदरा वर्धा से कुछ दूरी पर स्थित लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है। यहां बाघों का अभयारण्य है। दिन भर चिकलदरा और बाघ अभयारण्य में हम घूमते रहे। उम्मीद थी कि एकाध बाघ तो दिख ही जाएगा, लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। पूरी भी कैसे होती जब सरकारी गाइड गाड़ी में हमारे साथ चल रहा हो। वह पांच साल से इस अभयारण्य में गाइड के बतौर काम करता है। उसने बड़ी बेबाकी से बताया कि इन पांच सालों में उसने एक भी बाघ नहीं देखा था, लेकिन हमें यह देखकर अचरज हुआ कि दूसरे जानवर भी नदारद थे। खैर, यह नुकसान उस उपलब्धि के सामने कुछ भी नहीं था जो वन-वन घूमते हुए मेरे हाथ लगी। इस उपलब्धि के लिए मैं जीवन भर उन मित्रों का कृतज्ञ रहूंगा जिन्होंने घूमने के लिए चिकलदरा जाने की सलाह दी। जब हम घने जंगल में विचर रहे थे मुझे बेतहाशा राम, सीता और लक्ष्मण की याद आ रही थी। राम को 14 वर्ष के लिए वनवास की सजा मिली थी। ये वर्ष उन्होंने कैसे बिताए होंगे समझना मुश्किल है।


जंगल में चलने के लिए कोई रास्ता नहीं होता। परस्पर सटे या चिपके हुए हुए पेड़ों, डालियों और पत्तों की सघनता के बीच अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। पैरों के नीचे की खुरदरी जमीन। किधर से भी कोई जानवर छलांग मारकर आ सकता है। खाने-पीने का कुछ भी निश्चय नहीं। फलों का ही सहारा। फल भी क्या, हर जगह पीने के लिए नदी या प्राकृतिक तालाब मिल जाते होंगे। यह भी पता नहीं कब और कहां मिले। बेशक राम ने कुछ या काफी समय पर्णकुटी या झोपड़ी में बिताए होंगे पर जंगल में उन तीनों को पैदल तो काफी चलना पड़ा होगा। मेरा साथी और मैं एक सुरक्षित गाड़ी में पक्की सड़क पर चिकलदरा के जंगल में आगे बढ़ते जा रहे थे और मेरा मन रुआंसा हो रहा था। बार-बार मुझे राम, सीता और लक्ष्मण की याद आ रही थी। कितनी कठिनाइयों के बीच उन्होंने 14 साल बिताए होंगे। जो जंगल हमारे लिए रोमांस की चीज था वह उनके लिए एक कष्टपूर्ण भूलभुलैया रहा होगा। दो राजकुमार और एक राजकुमारी। हम सुरक्षित थे। हमारे पास खाना था। पानी की बोतलें थीं। जानवरों का कोई डर न था। संकट पड़ने पर मोबाइल फोन थे जिनसे वन अधिकारियों को सूचित किया जा सकता था।


राम-सीता-लक्ष्मण के पास क्या था? सिर्फ तीर-धनुष, एक-दूसरे का साथ और आत्मबल! अगर मुझमें थोड़ी और भावुकता होती तो मेरी आंखों से झर-झर आंसू बह निकलते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि राम वास्तव में हुए थे या नहीं या वह युगों से चली आ रही एक कथा के पात्र मात्र हैं। इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने जहां समय बिताया, वह कोई छोटा-मोटा जंगल था या विस्तृत और घना वन। एक व्यक्तित्व के रूप में वह हमारे जन्म से ही हमारे साथ हैं। जैसे कृष्ण और राधा, जैसे शिव व पार्वती और जैसे सुदामा। अगर यह सब कहानी है तब भी ये पात्र हमें प्रभावित करते हैं, क्योंकि वे हमारी स्मृति में बसे हुए हैं। वैसे ही जैसे रंगभूमि का सूरदास, गोदान का होरी और कामायनी के मनु, श्रद्धा और इड़ा, झूठा सच की तारा और चित्रलेखा की चित्रलेखा। ये सब हमारी सामाजिक धरोहर हैं और निरंतर हमारी स्मृति में जीवित हैं और हमारे साथ चलते रहते हैं। इनके बिना हमारा जीवन कितना दरिद्र होता, लेकिन इसके माध्यम से मैं जिस बात की ओर इशारा करना चाहता हूं वह कुछ और है।


राम कथा बचपन से ही पढ़ता रहा हूं रामलीलाएं भी देखी हैं पर वे कल्पनाएं पहले कभी नहीं जगीं जिन्होंने पहली बार वन क्षेत्र में घूमते हुए मुझे घेर लिया। अंग्रेजी में कहावत है देखने से ही यकीन होता है। जब तक मैंने खुद जंगल नहीं देखा था मुझे अहसास नहीं हुआ था कि राम उनकी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण ने चौदह साल किन कठिन परिस्थितियों में बिताए होंगे। मुझ पर यह विपदा पड़ी होती तो मैं तो महीने भर में ही टें बोल जाता। यानी दूसरे का दुख हमें तब तक प्रभावित नहीं कर पाता या हम उसकी कल्पना तक नहीं कर पाते और जब तक हम उस दुख को प्रत्यक्ष न देख लें। जाना हुआ दुख किसी काम का नहीं। देखा हुआ दुख ही वास्तविक है। देखा हुआ दुख ही हमें बदलता है और हमें भी वास्तविक बनाता है।


कल्पना कीजिए, अगर राजकुमार सिद्धार्थ ने बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु अपनी आंखों से न देखी होती तो क्या वह गौतम बुद्ध बन पाते। यह अहसास होते ही मेरी समझ में आ गया कि जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौटे और भारत में काम करने का फैसला किया तब उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें यह सलाह क्यों दी थी कि काम शुरू करने के पहले तुम्हें साल भर तक पूरे देश की यात्रा करनी चाहिए और भारत को अपनी आंखों से देखना चाहिए। यह सलाह मान कर गांधी जी साल भर तक देश के विभिन्न इलाकों में घूमते रहे। तब जाकर उन्हें अनुभव हुआ कि भारत क्या है और उसकी विशेषताएं तथा समस्याएं क्या हैं? इन अनुभवों ने ही गांधीजी को वह अंतदर्ृष्टि दी जिससे वह भारत का नेतृत्व कर सके। इसके विपरीत नेहरू को भारत के यथार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं था। वह भारत को किताबों से ही जानते थे। इसलिए न वह भारत की विशेषताओं को समझ पाए न उसकी समस्याओं को। उनके योजनाकारों की बनाई हुई योजनाएं किताबों और आंकड़ों पर आधारित थीं। इसका जो नतीजा निकला वह आज हमारे सामने है।


इस आलेख के लेखक राजकिशोर हैं


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