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लोकतंत्र में संसदीय व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जरूरी है कि संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले। लेकिन मौजूदा लोकसभा में संसद का अभी तक का कामकाज देखें तो वह किसी भी लिहाज से संतोषजनक नहीं रहा है। संसद का ज्यादातर समय सत्ता पक्ष और विपक्ष के भारी हंगामे और राजनीतिक गतिरोध की भेंट चढ़ जाता है। जाहिर है, यह न सिर्फ संसद के बेशकीमती समय का नुकसान है, बल्कि लोगों की गाढ़ी कमाई के पैसे की भी बर्बादी है। चालू लोकसभा के मौजूदा शीतकालीन सत्र तक के नौ सत्रों की कार्यवाही को देखने से साफ नजर आता है कि गतिरोध के चलते संसद पर्याप्त काम नहीं कर पा रही है। यह बेहद चिंता की बात है। शीतकालीन सत्र का एक हफ्ते से ज्यादा समय बीत गया, लेकिन सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने का नाम नहीं ले रही है। जैसे ही सदन की कार्यवाही शुरू होती है, विपक्ष हंगामा और नारेबाजी शुरू कर देता है और फिर सदन की कार्यवाही स्थगित हो जाती है।
शीतकालीन सत्र के अभी तक के कार्यकाल की अगर विवेचना करें तो इसका सारा समय हंगामा और शोरगुल की भेंट चढ़ गया है। किसी भी पार्टी की दिलचस्पी इस बात में नहीं कि संसद सुचारू रूप से चले। शीतकालीन सत्र हंगामेदार होगा, इसके आसार शुरू से ही थे। सत्र शुरू होने से पहले ही विपक्ष ने सरकार को महंगाई और भ्रष्टाचार समेत कई मुद्दों पर घेरने की तैयारी कर दी थी। यहां तक कि भाजपा की अगुआई वाले राजग और वाम पार्टियों के बीच गृहमंत्री पी. चिदंबरम के बहिष्कार और महंगाई व काले धन के मुद्दे पर एक-दूसरे के कार्य स्थगन प्रस्ताव के नोटिसों के समर्थन को लेकर समझौता भी हो गया था। लेकिन फिर भी सरकार बेफिक्र रही। रही सही कसर उसके मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में 51 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत देने के फैसले ने पूरी कर दी। विपक्ष को यह मुद्दा ऐसे हाथ लगा कि उसके साथ सत्ता पक्ष से जुड़ी तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक भी साथ आ गई। आलम यह है कि संप्रग सरकार में शामिल ये दोनों पार्टियां इस मुद्दे पर अब सरकार के खिलाफ हैं। विपक्ष की मांग है कि सरकार जब तक इस बारे में अपना फैसला वापस नहीं ले लेती, वह संसद नहीं चलने देगा। या फिर खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ के मुद्दे पर विपक्ष का कार्यस्थगन प्रस्ताव स्वीकार कर सरकार इस पर चर्चा कराए। हालांकि इस मसले पर सरकार के रुख में नरमी आई है, लेकिन विपक्ष इस बात की गारंटी देने को तैयार नहीं है कि संसद को सुचारू रूप से चलने दिया जाएगा।
गौरतलब है कि बीते मानसून सत्र में भी लोकपाल विधेयक समेत तमाम मुद्दों पर विपक्ष के हंगामे के चलते संसद का कामकाज ठप रहा था और सरकार के कई जरूरी विधायी कामकाज नहीं हो पाए थे। उससे पहले पिछले साल भी शीतकालीन सत्र और बजट सत्र के दौरान 2जी घोटाले की जेपीसी जांच कराने की विपक्ष की मांग और हंगामे के चलते संसद में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हो सका था। पूरे सत्रों के दौरान सत्ता पक्ष व विपक्ष आपस में ही उलझे रहे। और सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित होती रही। जाहिर है, सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित होने और हंगामे के बीच क्या काम हुए होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है। यहां तक कि प्रश्नकाल जो संसदीय कार्यवाही का महत्वपूर्ण हिस्सा है, उसमें भी बार-बार व्यवधान पैदा किया जाता है, जबकि प्रश्नकाल सांसदों के लिए एक ऐसा प्रावधान है, जिसमें वे व्यक्तिगत रूप से लोक महत्व के मामलों पर सरकार के मंत्रियों से जानकारी लेते हैं और जनता की समस्याओं को सरकार के ध्यान में लाते हैं। कुल मिलाकर जो संसद सारे देश में जीवंत और सार्थक चर्चा के लिए जानी जाती थी। वहां अब संसदीय कामकाज को ठप करने की घटनाएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। हंगामे, बहिर्गमन और स्थगन के चलते संसद के सत्रों का ज्यादातर वक्त बर्बाद हो जाता है।
खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों के लिए रास्ता खोलना देश हित में है या नहीं? यह व्यापक चर्चा का विषय है। इस पर सदन में चर्चा होनी चाहिए, लेकिन चर्चा की बजाय हंगामा करना और संसद से बहिर्गमन किसी भी लिहाज से ठीक नहीं। संसद को सुचारू रूप से चलाने का दायित्व बेशक सरकार का है, लेकिन विरोध करने वाली पार्टियां यह बात न भूलें कि वे भी संसदीय मर्यादा से बंधी हुई हैं। संसद को सही तरह से चलाने की उनकी भी उतनी ही जिम्मेदारी है, जितनी सरकार की। यदि संसद नहीं चल पा रही है तो हमारे माननीय सांसद क्यों अपने वेतन-भत्ते ले रहे हैं? देश में स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना के लिए अब वक्त आ गया है कि सांसदों की भी जबावदेही तय की जाए।
इस आलेख के लेखक जाहिद खान हैं
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