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अक्षम साबित होती सरकार

जागरण मेहमान कोना
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आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी संप्रग सरकार घुटने के बल आ गई है। वह चाहे स्विस बैंकों में जमा काले धन का मसला हो या बढ़ती महंगाई का सिलसिला, सरकार का अस्तित्व बोध खतरे में पड़ गया है। पर्दादारी के बावजूद उसकी अक्षमता सतह पर उमड़ने-घुमड़ने लगी है। अभी तक विपक्षी दल ही उसकी अक्षमता पर निशाना साध रहे थे, पर अब औद्योगिक समूहों के कर्ताधर्ताओं द्वारा भी सरकार की क्षमता पर शक किया जाने लगा है। देश की तीसरी सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेमजी द्वारा सरकार की निर्णय क्षमता पर सवाल उठाया जाना सरकार की ढहती साख और कम होते इकबाल की ओर ही संकेत करता है। अजीम प्रेम जी ने कहा है कि मैं समझता हूं कि सरकार का नेतृत्व कर रहे लोगों में निर्णय लेने की क्षमता की कमी सबसे बड़ी समस्या है और तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो आर्थिक विकास की रफ्तार प्रभावित हो सकती है।


अजीम प्रेमजी कोई पहले उद्योगपति नहीं हैं, जिन्होंने सरकार की कार्यप्रणाली और निर्णय क्षमता पर चिंता जाहिर की है। चंद रोज पहले ही केशव महिंद्रा और दीपक पारिख समेत कई उद्योगपतियों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर घोटालों के मद्देनजर सरकार की छवि का शीराजा बिखरने पर चिंता जताई है। निस्संदेह उद्योगपतियों का इशारा सरकार की लचर आर्थिक नीति, निर्णय लेने में अक्षमता, मंत्रियों की आपसी कलहबाजी और भ्रष्ट शासन तंत्र की ओर है। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार इस चिंता और आरोप से सहमत नहीं है। प्रधानमंत्री जो खुद अर्थशास्त्री हैं, उनका विश्वास अपनी टीम के अर्थज्ञानियों पर बना हुआ है। उनका मानना है कि उनकी टीम आर्थिक मसलों पर बेहतर निर्णय लेने में सक्षम है। अगर यह सच है तो फिर क्या वजह है कि अर्थशास्ति्रयों के झुंड के बावजूद महंगाई बढ़ती जा रही है? रिजर्व बैंक के लाख जतन के बावजूद महंगाई की डोर पकड़ से बाहर है। वह 13 बार ब्याज दरें बढ़ा चुका है। मुसीबत तो बैंकों से ऋण ले रखे उन लोगों की बढ़ी है, जो पहले से ही महंगाई से त्रस्त हैं। अब उनके लिए ऋण का भुगतान एक चुनौती बन गया है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अपने अर्थविज्ञानियों की मूढ़ता पर पश्चाताप के बजाए गर्व है। सवाल सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलता और सार्थक निर्णय लेने की अक्षमता तक सीमित नहीं है।


विदेशों में जमा काला धन, आतंकवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद और भ्रष्टाचार के मसले पर भी सरकार कुछ इसी तरह की अक्षमता प्रदर्शित कर रही है। काले धन के मुद्दे पर तो सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले प्रणब मुखर्जी तो संधि का रोना रो रहे हैं। क्या सरकार के पास इतना भी जीवट नहीं है कि वह अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों की तरह स्विस बैंकों में अकूत दौलत जमा करने वाले अपने देश के नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों के नामों का खुलासा करें और उनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करते हुए उनकी काली कमाई जब्त करे? इसी तरह भारत पिछले दो दशक से आतंकी हमले से लहूलुहान है। इन हमलों में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं, लेकिन आतंकी हमलों की रोकथाम के लिए सरकार के पास कोई दीर्घकालीन रणनीति नहीं है। बस पाकिस्तान के माथे आतंकी हमले का ठीकरा फोड़ अपनी नाकामी पर मिट्टी डाल रही है। सच तो यह है कि आतंकियों से कड़ाई से निपटना अब सरकार के बस की बात रह ही नहीं गई है।


अफजल गुरु जैसे देशद्रोही के प्रति सरकार की उदार नीति यह बताने के लिए काफी है कि आतंकवाद को लेकर सरकार में कितनी संजीदगी बची है। सरकार की रहबरी करने वाले भी कम नहीं हैं। वे यह कहते सुने जाते हैं कि आतंकी हमलों को सौ फीसदी रोका नहीं जा सकता। सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस तरह की बयानबाजी से सरकार और उसके रणनीतिकार क्या संदेश देना चाहते हैं? क्यों न इसे सरकार की अक्षमता मानी जाए? लेकिन सरकार के मुखिया अपनी नाकामी पर ही आत्ममुग्ध हैं। आत्ममुग्ध्ता का ही नतीजा रहा कि सरकार के मंत्री और पदाधिकारी देश को दोनों हाथों से लूटते रहे और मुखिया अपनी आंख बंद किए रहे। आज भ्रष्टाचार के आरोप में कई मंत्री जेल में हैं। फिर भी सरकार ईमानदारी का ढोल पीट रही है। सरकार के मंत्रियों के बीच आपसी सिर फुटौव्वल और एक-दूसरे के खिलाफ गहरी साजिश उभरकर सामने आ गई है। फिर भी सरकार यह कह रही है कि वह सामूहिक निर्णय लेने में सक्षम है तो फिर इस देश का भगवान ही मालिक है।


लेखक अरविंद कुमार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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