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योजनाओं की सफलता का मंत्र

जागरण मेहमान कोना
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योजनाओं के प्रति जनचेतना पैदा करने के मामले में सरकार की नीतियों की खामी रेखांकित कर रहे हैं एनके सिंह


क्यों असफल हो रही हैं ग्रामीणों को रोजगार, स्वास्थ्य या शिक्षा संबंधी मनरेगा, एनआरएचएम या सर्वशिक्षा अभियान जैसी योजनाएं। अगर हम 1965 के भयंकर खाद्य संकट से उबरकर आज 251 मिलियन टन अनाज उपजाकर खाद्यान्न निर्यात करने की स्थिति में आ गए हैं तब क्यों नहीं खत्म कर सकते इन कार्यक्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचार? किसी प्रजातंत्र में सामूहिक चेतना विभिन्न स्वरूप में विकसित होती है। अगर अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ इस चेतना के नेतृत्वकर्ता बन सकते हैं तब स्वयं भारत सरकार क्यों नहीं इन योजनाओं के प्रति जनचेतना को इतनी प्रबल बना सकती कि कोई भी सरकारी मशीनरी सही डिलीवरी करने को मजबूर हो? दरअसल दोष सरकार की सोच व समझ का है जो मीडिया का सही इस्तेमाल अपने अभिजात्यवर्गीय सोच की वजह से नहीं कर पा रही है। विविधतापूर्ण भारतीय लोकतंत्र में जहां एक तरफ राष्ट्रीय चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका है वहीं क्षेत्रीय चैनलों की उपादेयता को नकारना प्रजातंत्र को कमजोर करने के समान है। एक उदाहरण लें। पेट्रोल की कीमत अगर दो रुपये बढ़ती है तब समूचे देश में हाहाकार मच जाता है, विपक्ष आगबबूला हो जाता है और भारतीय राष्ट्रीय मीडिया हांफ-हांफ कर 123 करोड़ जनता के साथ हो रही ज्यादती को दिन भर दिखाता है। सरकार को कई बार झुकना पड़ता है, लेकिन ठीक दूसरी तरफ पिछले पांच वर्षो में डाई-अमोनियम फॉस्फेट यानी डीएपी खाद की कीमत आधिकारिक रूप से तीन गुना बढ़ जाती है, लेकिन एक पत्ता भी नहीं खड़कता। बिहार सहित उत्तर भारत के तमाम राज्यों में पिछले दो सालों से रासायनिक खाद की भयंकर किल्लत हो रही है, लेकिन शायद ही किसी राष्ट्रीय मीडिया की नजर में यह बात आई हो।


दरअसल दोष राष्ट्रीय मीडिया का नहीं है। कुल 123 करोड़ जनता के लिए किसी भी राष्ट्रीय मीडिया का 24 घंटे में इन खबरों को समेटना संभव नहीं है। राष्ट्रीय खबरों की अपनी ही संख्या इतनी बड़ी होती है जिनमें कई बार क्षेत्रीय, लेकिन बेहद जरूरी मुद्दे राष्ट्रीय मीडिया की नजर से ओझल होते रहते हैं। किसी भी राष्ट्रीय चैनल के लिए अपने रिपोर्टिग नेटवर्क को 600 से ऊपर के जिलों में या हजारों तहसीलों तक अपने समाचार नेटवर्क को ले जाना संभव नहीं है। इसके अलावा सबसे बड़ी दिक्कत है टीआरपी का शहरी क्षेत्रों में ही केंद्रित होना। जहां देश के सात बड़े शहरों के लिए 3500 टैम मीटर्स हैं वहीं संपूर्ण भारत के लिए मात्र 6000 टैम मीटर्स लगे हैं। भारत का 65 प्रतिशत किसान जो ग्रामीण भारत में रहता है, वहां टैम मीटर इसलिए नहीं लगाए जाते हैं, क्योंकि उनकी क्रय-शक्ति उतनी नहीं है कि विज्ञापनदाता उन्हें लुभा सकें। सूचना मंत्रालय की नीति के अनुसार वही चैनल विज्ञापन पाने का हकदार होता है जिसकी टीआरपी राष्ट्रीय स्तर पर 0.02 प्रतिशत हो। नतीजा यह होता है कि बीमारू राज्यों में क्षेत्रीय चैनल जिनकी व्युअरशिप काफी अधिक है, इस वर्ग से बाहर हो जाते हैं। परिणामस्वरूप व्यापक पैमाने पर अशिक्षा, अभाव व गरीबी-जनित अज्ञानता राज्य सरकार की मशीनरी को यह मौका देती है कि मानव विकास के मद में आए केंद्रीय धन को अपनी जेब में रख ले। उत्तर प्रदेश में एनआरएचएम में 8800 करोड़ में से 5000 करोड़ का घपला और करीब आधा दर्जन हत्याएं बहुत कुछ बयां करती हैं।


किसी भी समुन्नत प्रजातंत्र में सरकार के कार्यो व नीतियों के प्रति जनता को शिक्षित करने में मीडिया की एक अहम भूमिका होती है इसलिए अगर मनरेगा या एनआरएचएम सरीखे कार्यक्रमों को देश के किसी बड़े अंग्रेजी अखबार के माध्यम से जनता के बीच ले जाने का प्रयास किया जाए तब वह निरर्थक होगा। लगभग यही स्थिति है मनोरंजन चैनलों और न्यूज चैनलों के बीच में। यह सही है कि मनोरंजन चैनलों की व्युअरशिप न्यूज चैनल की तुलना में कई गुना ज्यादा है, लेकिन जिस मन:स्थिति में मनोरंजन चैनल देखा जाता है या जिस आयुवर्ग के लोगों में ऐसे चैनल ज्यादा लोकप्रिय हैं उनमें अगर कोई सरकार मनरेगा या सर्वशिक्षा अभियान के बारे में जनता को शिक्षित करना चाहती है तब वह बेमानी होगा।


विडंबना यह है कि भारत सरकार अपने जनोपयोगी कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार के लिए अपने बजट का 70 प्रतिशत हिस्सा मनोरंजन चैनलों पर खर्च करती है। विज्ञापन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में यह बार-बार कहा गया है कि मीडियम का चुनाव टारगेट व्युअरशिप को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, लेकिन भारत सरकार शायद अब तक इस मूल सिद्धांत से परिचित नहीं रही है। भारत सरकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए विज्ञापन के रूप में 300 करोड़ रुपए खर्च करती है, लेकिन उसको खर्च करने की प्रक्रिया पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा है। खबरिया चैनल और खास करके क्षेत्रीय चैनल जो संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम हो सकते थे, सरकार लगातार उन्हें नजरअंदाज करती रही। उसको यह भी अहसास नहीं हो पाया कि देश में दोषपूर्ण टैम मीटर पर आधारित विज्ञापन नीति पूरे उद्देश्य को खारिज कर देगी। 1965 में जब भारत खाद्य के भयंकर संकट से जूझ रहा था उस समय हरित क्रांति का बिगुल बजाने में भारतीय अखबारों व रेडियो की बड़ी भूमिका रही। यह अखबारों और रेडियो की ही ताकत थी कि उसने किसानों में उत्साह पैदा किया कि 1966 में मैक्सिको से आए 1800 टन बेहतरीन किस्म के बीज का आयात किया गया। वर्तमान में जनता व सरकार के बीच में बढ़ते अविश्वास का एक मुख्य कारण है सरकार का न्यूज मीडिया विरोधी शाश्वत-भाव। उसके बाद की सरकारों ने मीडिया को लगातार शत्रु भाव से देखना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि सरकार की अच्छी से अच्छी योजनाएं भी जनता की सामूहिक चेतना को उन योजनाओं के प्रति सुग्राज नहीं बना पाईं।


लेखक एनके सिंह न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन के सचिव हैं


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