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सेवा का एक अनवरत सफर

जागरण मेहमान कोना
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सेवा एक संस्था नहीं, आंदोलन का नाम है जो असहाय और निचले तबके की स्त्रियों को उनके गुणों के हिसाब से पैरों पर खड़ा करने के काम में वर्षो से लगी हुई है। यह ट्रेड यूनियन के महत्व को समझाने में विश्व में सबसे बड़ी संस्था है। इसकी अपनी पत्रिका भी है, जिसका नाम आकाशगंगा है। इस पत्रिका से अब तक पांच लाख से भी अधिक लोग जुड़ चुके हैं। पच्चीस लाख की संख्या तक पहुंचने में सेवा को चालीस वर्ष लगे हैं जो उसकी यात्रा की सफलता को बताती है। चालीस वर्ष की यात्रा कोई आसान काम नहीं, क्योंकि इस तरह की सेवा यात्रा तभी संभव है जबकि इसके लिए लक्ष्य पर केंद्रित आंख हो और प्रयास भी ईमानदार हो। इस बारे में मुझे जाने-माने समाजसेवी हरिवल्लभ पारिख की याद आ रही है। मैं उनके आश्रम में रहने के दौरान सोचा करती थी कि एक दिन देश इन्हें भी गांधी और विनोबा की तरह सम्मानित करेगा। उन्होंने वर्ष 1947 में रंगपुर कवांट गुजरात में आदिवासियों के लिए एक आश्रम बनाया था और समूचे देश को लोक अदालत का नया विचार दिया, किंतु उनकी प्रतिष्ठा राजनीति में दिलचस्पी न लेने की अपनी कमजोरी के कारण ऊंचाइयों पर नहीं पहंुच सकी। मैंने एनजीओ की तमाम सतत यात्राएं देखी हैं।


बड़ोदरा में डॉ. जीएम ओझा की पर्यावरण सुरक्षा के लिए उनकी चिंता देखी हैं। उन्होंने इसके लिए संस्था इंटरनेशनल सोसाइटीज ऑफ नेचुरेलिस्ट इन्सोना की स्थापना की, जो 1975 में उनकी मृत्यु तक प्रगति करती रही। अगर बड़ोदरा की हेरिटेज ट्रस्ट की ही बात करें जिसे आर्किटेक्ट कर्ण ग्रोवर और उनके साथियों ने वर्ष 1985 में यानी राजीव गांधी के इंटेक इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर की स्थापना की स्थापना से एक वर्ष पूर्व की थी। यह ट्रस्ट प्रगति करता गया और कर्ण ग्रोवर ने विश्व में पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित व सर्वश्रेष्ठ इमारतें बनाने का पुरस्कार प्राप्त किया। पद्मविभूषण, मैग्सेसे पुरस्कार, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी व अनेकों पुरस्कार से सम्मानित इला भट्ट की यात्रा भी सतत जारी है। अस्सी दशक पूरे करने के बावजूद उनकी सतत सक्रियता उन्हें गांधीजी से बहुत नजदीक से जोड़ती है। सेवा की सदस्य अनुसुइया साराभाई ने 1920 में सोचा भी नहीं था कि वह भारत की जो प्रथम टेक्सटाइल मिलों के मजदूरों का यूनियन संगठित कर रहीं हैं उसकी छत्रछाया में उनका महिला प्रभाग इतना विस्तृत हो जाएगा कि वह ऐसी स्ति्रयों की यूनियन सेवा यानी सेल्फ एम्प्लॉयड वीमेंस एसोसिएशन बन जाएगा जिसका कि विश्व में दूसरी मिसाल मिलना इक्कीसवीं सदी में भी मुश्किल है।


पंप रिपेयर करने वाली गाड़ी खींचती महिलाएं, मजदूर स्त्रियों, मेसन का काम करने वाली स्त्रियां, अचार-पापड़ बनाने वाली, फेरी लगाकर कुछ बेचने वाली, फेरी लगाकर केरोसिन बेचने वाली कचरा बीनने वाली, नाश्ता व टिफिन सप्लाई करने वाली, पान-सुपारी बेचने वाली, लुहारिन-बड़ी बनाने वाली, फोटोग्राफर व जिरॉक्स करने वाली, बिजली के उपकरण ठीक करने वाली, जंगल में गोंद इकट्ठा करने वाली कुम्हारिन जैसी तमाम तरह की स्ति्रयों को संगठित किया गया जो आज संगठित होकर काम कर रही हैं और देश के लिए महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। वैसे यह क्या कम हैरत की बात है कि भारत की प्रथम टेक्सटाइल मजदूरों की यूनियन की नींव एक महिला ने रखी और वह भी गांधीजी की विचारधारा के अनुरूप जिसमें अन्य सेवाओं के साथ सहकारी क्रेडिट सेवा भी आरंभ की गई। वर्ष 1954 में इसका महिला प्रभाग खोला गया। इस महिला प्रभाग की प्रमुझ इला भट्ट ने वर्ष 1970 में एक सर्वेक्षण किया तो पता लगा सिलाई करने वाली महिलाओं को व्यापारी शोषित कर रहे हैं। इस बारे में इला भट्ट बताती हैं कि मैंने देखा कि जो स्त्रियां कपड़ा बाजार में हाथगाड़ी में कपड़ा इधर से उधर पहुंचाती हैं उनके पास रहने तक के लिए घर नहीं हैं। मैंने इनसे गोदाम की सीढि़यों पर बैठकर लंबी बातचीत कि और स्थानीय अखबार में एक लेख प्रकाशित करवाया जिससे तहलका मच गया। इला बेन का लेख इतना प्रभावशाली था कि व्यापारी वर्ग में तहलका मच गया और उन्होंने भी अपनी समस्याएं बतार्ई।


अहमदाबाद में वह ऐतिहासिक दिन आया जब शहर के एक बाग में इन स्ति्रयों की व व्यापारियों की मीटिंग रखी गई और उन अनपढ़ स्ति्रयों ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि वे अपनी अलग यूनियन चाहती हैं। इसके बाद ही वर्ष 1971 में इला बेन के नेतृत्व में सेवा संगठन की स्थापना की गई। जब भी कोई नई विचारधारा सामने आती है तो व्यवस्था उसे स्वीकार नहीं करती। सेवा के सामने भी यह समस्या आई। सबसे पहले सरकार ने इसे रजिस्टर्ड करने से मना कर दिया, क्योंकि मजदूरों की यूनियन तो इसलिए थी कि उनके फैक्टरी मालिक थे। हम लोग उन्हें समझाते रहे कि ट्रेड यूनियन के लिए जरूरी नहीं हैं कि कोई मालिक हो। आपसी सहयोग व लाभ के लिए भी ट्रेड यूनियन बनाई जा सकती है। इस तरह तमाम परेशानियों के बाद वर्ष 1972 में इसका रजिस्ट्रेशन हुआ। वर्ष 1981 में आरक्षण के विरोध में कुछ सवर्णो ने निचली जाति के लोगों को खूब पीटा जिसकी सेवा की सदस्यों ने जमकर विरोध किया। टेक्सटाइल यूनियन ने सेवा को निष्कासित कर दिया। इस बारे में इला का कहना है कि यह निष्कासन जैसे हमारे लिए वरदान बन गया। सेवा तीन चीजों का संगम बन गई-मजदूर आंदोलन, सहकारिता आंदोलन व नारी आंदोलन। इन चालीस वर्षो में सेवा ने सरकार, नेताओं व इनके लिए नीति बनाने वालों के सामने इसकी भूमिका स्पष्ट की है। इसकी कड़ी मेहनत व सामूहिक अर्थोपार्जन के बारे में बताया।


सेवा के निर्देशन में इन्होंने अपने ही क्षेत्र की को-ऑपरेटिव बनाकर विकास के रास्ते प्रशस्त किए। एक स्त्री को यूनियन के साथ-साथ को-ऑपरेटिव की सदस्यता लेनी होती है। इससे इन्हें रोजगार आर्थिक सहायता, स्वास्थ्य, बच्चों की देखभाल मकान बनाने और इंश्योरेंस आदि में मदद मिलती है। आज ऐसे 105 को-ऑपरेटिव फेडरेशन हैं। एक राष्ट्रीयकृत बैंक की सहायता से सेवा ने अपनी सहकारी बैंक खोलकर महिलाओं को सुदृढ़ आर्थिक आधार दिया है। सेवा के अहमदाबाद में छह ऑफिस हैं और यह चौदह जिलों में काम कर रही है। अन्य प्रदेशों के नौ जिलों में भी यह काम कर रही है। यह संस्था स्थानीय कामगार महिलाओं की स्किल के अनुसार कराती है। लखनऊ सेवा में चिकन की कुशल कारीगर महिलाओं को संगठित किया गया है। महिलाएं अपने संगठन में झूमकर, गाकर, नाचकर जश्न मनाती हैं। असम, मेघालय व भूटान की स्त्रियां इसलिए खुश रहा करती थीं कि उनका प्रदेश उपजाऊ है, लेकिन बाजार से वह कैसे मुनाफा कमाएं इसका ज्ञान उन्हें सेवा ने ही दिया। यहां पर सेवा की सहायता से फूड प्रोसेसिंग सेंटर, टेक्सटाइल, रेडीमेड गारमेंट, सोलर लालटेन, ग्रीन हाउसेज, वर्मी कम्पोस्ट आदि के केंद्र खोले गए हैं। उजड़े हुए कश्मीर में जहां लोग अपना गांव छोड़कर चले गए हैं, वहां भी सेवा ने महिलाओं को रोजी कमाना सिखाया है। इसकी शाखाएं देश ही नहीं विदेशों में भी कार्यरत हैं। ऐसी ही एक महिला आमिदा जान भूटान में हल्दी, आंवला व अदरक की पैदावार करती हैं।


लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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