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सेना में महिलाओं से भेदभाव क्यों

जागरण मेहमान कोना
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Anjaliसुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निर्देश दिया है कि सेना उन 11 महिला अधिकारियों को तत्काल बहाल करे, जिन्हें 14 साल पूरा होने पर वीआरएस यानी अनिवार्य सेवा मुक्ति दे दी गई थी। उल्लेखनीय है कि इसके पहले हाईकोर्ट ने महिला अधिकारियों की सेवा बहाल करने तथा उन्हें स्थायी कमीशन देने का निर्देश दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि समान रैंक की समर्थ महिलाओं को पुरुषों के बराबर स्थायी कमीशन का हकदार न माना जाए। यह कोई खैरात नहीं, बल्कि महिला अधिकारियों द्वारा मांगे गए संवैधानिक अधिकारों को लागू करना है। इस निर्देश को सेना ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। सेना महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के खिलाफ है, लेकिन महिलाएं सेना में पुरुषों की तरह स्थायी कमीशन की मांग कर रही हैं और इसके लिए लंबे समय से कानूनी जंग चल रही है।


महिलाओं ने कहा कि यह उनके साथ एक तरह का भेदभाव है। उन्हें भी पुरुषों के बराबर समान अवधि में काम करने का अवसर दिया जाना चाहिए जबकि उन्हें एक निश्चित समय के बाद कुछ ही वर्षो में अनिवार्य रूप से रिटायर कर दिया जाता है। इसका एक दुष्प्रभाव यह है कि कम वर्षो की नौकरी के कारण महिलाओं को पदोन्नति भी नहीं मिलती है तथा उनके काम का अधिकार मारा जाता है। दरअसल, भारतीय थल सेना में भर्ती के दो विकल्प हैं- स्थायी कमीशन और शार्ट सर्विस कमीशन। जहां पुरुषों के लिए दोनों विकल्प खुले होते हैं, वहीं महिलाओं के लिए सिर्फ शार्ट सर्विस कमीशन का विकल्प होता है। स्थायी कमीशन वाले रिटायरमेंट की उम्र तक सेवा में रह सकते हैं, जबकि शार्ट सर्विस कमीशन के तहत सिर्फ 10 साल के लिए भर्ती किया जाता है। पुरुषों को इस 10 साल की नौकरी के बाद स्थायी कमीशन का विकल्प दिया जाता है और जिन्हें स्थायी कमीशन नहीं मिलता, उन्हें चार वर्ष और नौकरी में बने रहने का अवसर दिया जाता है।


महिला अधिकारी अभी तक चली आ रही प्रणाली के अंतर्गत कुल 14 वर्ष से अधिक सेवा में नहीं रह सकतीं। इस कारण महिलाओं को पेंशन तथा अन्य वित्तीय लाभों से वंचित कर दिया जाता था और साथ ही वे सेवानिवृत्ति से पहले अधिक से अधिक लेफ्टिनेंट कर्नल की रैंक तक ही पहुंच पाती थीं। मालूम हो कि सेना में 1992 से महिलाओं को विभिन्न क्षेत्रों में भर्ती के दरवाजे खोले गए थे। इसके पहले 1943 में डॉक्टर के पद पर भर्ती के लिए उनके लिए दरवाजे खोले गए थे और 1927 में नर्सिग के पदों के लिए महिलाओं की पहली नियुक्ति हुई थी। ताजा फैसला 1992 के बाद की सभी नियुक्तियों पर लागू होगा। अभी भी सेना में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अनुपात बराबर होने में काफी दूरी है। सेना में मेडिकल तथा नर्सिग में महिलाओं की सिर्फ 11 फीसदी प्रतिनिधित्व है तो वायुसेना में 7.30 फीसदी तथा नौसेना में 3.45 फीसदी है। कानूनी बराबरी के साथ अन्य प्रयास भी सरकार तथा सेना को करने होंगे ताकि महिलाओं की संख्या अधिक हो सके और वह पुरुषों के साथ बराबरी पर आ सकें। यह इस वजह से भी जरूरी है कि हम अक्सर ऐसे उदाहरणों से रूबरू होते हैं जहां दिखता है कि सेना के सभी क्षेत्रों में संख्याबल के हिसाब से ही नहीं, बल्कि एक वातावरण के तौर पर घोर पुरुषवादी मानसिकता तथा वर्चस्व मौजूद है जो काम करने वाली महिलाओं के लिए असहज स्थिति पैदा कर देती है।


विगत कुछ सालों में सेना के विभिन्न अंगों में कार्यरत महिला अधिकारियों द्वारा अपने सहकर्मियों या वरिष्ठों के खिलाफ यौन प्रताड़ना की शिकायतें भी दर्ज की गई हैं। इनमें से कई मामलों में सेना को उत्पीड़क अधिकारियों को दंडित भी करना पड़ा है। सेना के अंदर जेंडर समानता कायम करना चाहे वह नियमों के पैमाने पर हो या वातावरण के स्तर पर हो आज बहुत आवश्यक है। इसके लिए कुछ बातों पर अमल आवश्यक है, क्योंकि ऐसा कोई भी तार्किक वैज्ञानिक कारण साबित नहीं किया जा सका है, जिसके चलते इस भेदभाव को जायज ठहराया जा सके। जो अवरोध या बाधा आती भी है, वह सामाजिक और पारिवारिक स्तर की होती है, जिनका सामना करना होगा या समाधान ढूंढ़ना होगा। आज के समय में जबकि रोजगार के हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने तथा हर स्तर के भेदभाव को समाप्त करने की बात को कम से कम नीतिगत स्तर पर स्वीकार किया जा रहा है तो सेना महिलाओं के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ रही है और उनके साथ होने वाले भेदभाव को वैध ठहराने की कवायद में जुटी है। यह तय माना जाना चाहिए कि जब तक रोजगार के क्षेत्र में हर स्तर पर स्त्री पुरुष के बीच की असमानता को समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं हो सकता है। सिर्फ सशक्तिकरण के लिए जागरूकता अभियान चला कर या लोगों को समझा-बुझाकर अपील करने से सफलता नहीं मिलेगी कि वे महिलाओं के साथ भेदभाव न करें। भौतिक परिस्थितियां बदलेंगी तभी लोगों की मानसिकता भी बदलेगी और तभी महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा तथा उत्पीड़न का खात्मा हो सकेगा।


सेना के अंदर का पुरुषवादी वातावरण भी समाप्त किया जाना चाहिए तथा इसके लिए जरूरी है कि वहां महिला कर्मियों की संख्या बढ़ाई जाए। इन सब मसलों पर रक्षा मंत्रालय नीतिगत फैसला ले और आवश्यकतानुसार नए कानून बनाकर स्थिति को बदलने का जिम्मा उठाए। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सरकार को यह सारी बातें पता नहीं हैं या समझ नहीं आती हैं, बल्कि उसका सरोकार ही ऐसा नहीं है कि चीजें स्थायी रूप से दुरुस्त हों। सेना की महिलाओं ने इतनी लंबी कानूनी जंग लड़कर व्यवस्था को आईना दिखाने का प्रयास किया है। अगर हम स्त्री-पुरुष समानता के प्रिज्म से देखें तो ऐसे सुधारों को अंजाम देने के लिए सेना सबसे अग्रणी इकाई हो सकती है, जहां लगातार पुरुषवादी भाषा बोली जाती है। दुश्मन को ललकारने के लिए, खुद को शक्तिशाली तथा सक्षम बताने के लिए ऐसा मर्दवादी आक्रामक माहौल गढ़ा जाता है। यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री भी कभी-कभी दुश्मन मुल्क को ललकारते हुए यह कहने में संकोच नहीं करते कि हमने भी चूडि़यां नहीं पहन रखी हैं। इस मानसिकता में बदलाव जरूरी है।


लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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