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इस वर्ष तीन महिलाओं को शांति का नोबल पुरस्कार मिलने का व्यापक स्तर पर स्वागत होना चाहिए। यह अवसर है इस सोच को रेखांकित करने का कि शांति आंदोलन में महिलाएं बहुत बड़ी ताकत बन सकती हैं। शांति आंदोलन व महिला आंदोलनों में एक दूसरे के नजदीक आना बहुत जरूरी है। यह कई बार देखा गया है कि विशेष परिस्थितियों में तो विश्व में शांति आंदोलन जोर पकड़ता है पर उसके बाद उसकी निरंतरता नहीं रह पाती। उदाहरण के लिए वियतनाम व इराक युद्ध के दौरान विश्व स्तर पर शांति आंदोलनों में बड़ा उभार आया पर कुछ ही समय बाद आंदोलन की यह ऊर्जा लुप्त होने लगी। शांति आंदोलन की निरंतरता बनी रहे, इसके लिए शांति आंदोलन को अन्य आंदोलनों के नजदीक आना होगा और इनमें महिला आंदोलन के साथ नजदीकी संबंध बहुत मूल्यवान हो सकता है। स्वाभाविक तौर पर महिलाओं की शांति स्थापना में अधिक रुझान होती है। इसके अतिरिक्तएक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि युद्ध और हिंसा जब समाज में जोर पकड़ते हैं तब महिलाओं की परेशानियां विशेष तौर पर बहुत बढ़ जाती हैं। इस कारण महिलाओं के अपने कष्ट व उन पर होने वाले अत्याचारों को कम करने में भी शांति आंदोलनों से मदद मिल सकती है। इस आधार पर इन दोनों का नजदीक आना जरूरी है।
महिलाओं पर यौन अत्याचार सबसे बड़े पैमाने पर युद्ध और आंतरिक कलह के दौरान ही होते हैं। बांग्लादेश की स्वाधीनता लड़ाई के समय प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक लगभग 2 लाख से 4 लाख तक महिलाओं से पाकिस्तानी सेना व उनके सहयोगियों द्वारा बलात्कार किया गया। लगभग 25 हजार महिलाओं को इस कारण गर्भ ठहर गया व बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं यौन रोगों से पीडि़त हुई। बहुत सी महिलाएं बाद में अपने समाज में स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकीं व उनमें से अनेक ने आत्महत्या तक की। आतंक फैलाने के लिए बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का यह एक ऐतिहासिक उदाहरण है। किंतु युद्ध के समय बलात्कार का एक दूसरा रूप भी देखा गया है-जीत का जश्न मनाने के लिए बलात्कार। 1937-38 में जापान के सैनिकों ने चीन के नानकिंग नगर पर कब्जा कर लिया। उन्हें आतंक फैलाने की तो तब कोई जरूरत नहीं थी पर जीत का जश्न मनाने के लिए उन्होंने बलात्कार और यौन अपराधें का अंतहीन सिलसिला आरंभ किया। इस एक ही शहर में जापानी आधिपत्य के एक माह के भीतर 20 हजार बलात्कार होने के आरोप की पुष्टि एक जांच ट्रिब्यूनल ने की है। उनमें से अनेक महिलाओं से पहले मुफ्त मजदूरी करवाई गई, फिर बर्बर व्यवहार किया गया और अंत में इनमें से कुछ की विकृत ढंग से हत्या भी की गई। द्वितीय विश्व युद्ध में आतंक फैलाने के लिए और जीत का जश्न मनाने के लिए दोनों तरह के बलात्कार के असंख्य उदाहरण हैं। दोनों ओर की सेनाओं ने यह जुल्म किया पर सबसे अधिक जर्मनी व जापान की सेनाओं ने किया।
वियतनाम के युद्ध में अमेरिकी सैनिकों के लिए व्यभिचार के बहुत बड़े अड्डे खोले गए पर यह उनके लिए पर्याप्त नहीं हुआ और उन्होंने बहुत बडे़ पैमाने पर और बर्बर तरीके से यौन अपराध किए। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अधिकांश युद्धों में कम या अधिक हद तक महिलाओं पर यौन अत्याचार हुए हैं। हाल ही में युद्ध के रूप में कुछ ऐसे बदलाव आए हैं, जिससे महिलाओं के पीडि़त होने की आशंका पहले से अधिक बढ़ गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार युद्ध में सैनिकों की अपेक्षा जनसाधरण के अधिक संख्या में मरने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है। अब तो स्थिति यह है कि युद्ध में होने वाली 90 प्रतिशत तक मौतें आम नागरिकों की होती हैं। युद्ध के इस बदलते रूप में महिलाओं के उत्पीड़न की आशंका कहीं ज्यादा हो गई है। विश्व में शरणार्थियों की कुल संख्या में 80 प्रतिशत महिलाएं व बच्चे थे। इसलिए निश्चय ही शांति आंदोलन और महिला आंदोलन में सहयोग व परस्पर मेल की संभावनाएं सदैव रही हैं, जो आज निरंतर बढ़ रही हैं। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका सूसन ब्राउनमिलर ने लिखा है कि वियतनाम युद्ध के दौरान जब संयुक्त राज्य अमेरिका में शांति आंदोलन जोर पकड़ रहा था तो इस आंदोलन में शामिल होने के लिए कुछ नारीवादी संगठनों को भी कहा गया। इसके उत्तर में सूसन ब्राउनमिलर ने शांति आंदोलन के प्रतिनिधियों को कहा कि यदि यह आंदोलन वियतनाम में युद्ध द्वारा फैलाए जा रहे महिला अत्याचारों को एक प्रमुख मुद्दा बनाने को तैयार है तो वह इस आंदोलन में अपनी सीमित शक्ति लगाने को तैयार हैं। किंतु शांति आंदोलन द्वारा इस मुद्दे को उस समय पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया और इस तरह आपसी सहयोग की यह बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी। इस तरह के अलगाव से दोनों तरह के प्रयास कमजोर होते हैं तथा दूसरी ओर परस्पर सहयोग से उन दोनों की शक्ति बढ़ती है।
सामाजिक बिखराव, परिवार की टूटन और अपराधों को रोकने के प्रयास भी इन समस्याओं के बढ़ने के साथ एक अभियान या आंदोलन का रूप कई देशों में ले रहे हैं। इस अभियान की भी शांति आंदोलन से सामंजस्य करने और सहयोग करने की बहुत संभावनाएं हैं। युद्ध अपने आप में सामाजिक बिखराव का एक बहुत बड़ा कारण है। युद्ध ऐसी परिस्थितियां पैदा करता है जिससे कितने ही परिवारों को अलग होना पड़ता है। युद्ध व आंतरिक कलह के कारण जब भी किसी देश का बंटवारा हुआ चाहे वह जर्मनी हो, यूगोस्लाविया या भारत तो इस कारण लाखों परिवार भी टूट गए। सामान्य परिस्थितियों में भी सेना के सदस्यों को प्राय: परिवार से काफी समय के लिए दूर रहना पड़ता है। विशेषकर जिन देशों की सेनाओं ने दमनकारी व जुल्म की कार्यवाहियों में अधिक हिस्सा लिया है, उनके सदस्यों के घरेलू जीवन में भी हिंसक प्रवृत्तियां या अन्य विकृतियां आने की आशंका रहती है।
टाइम पत्रिका में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका में पत्नी के प्रति हिंसा की जो दर अन्य परिवारों में है, उससे दुगुनी दर अमेरिकी सैनिको के परिवारों में है। युद्ध आंतरिक कलह व दंगो से जो अराजकता फैलती है उसमें अपराधी तत्वों को आगे आने और नेतृत्व की भूमिका संभालने का मौका मिलता है, जैसा कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा के फैलाव के समय बार-बार देखा गया है। यदि हम इस मनोविज्ञान को समझने का प्रयास करें तो पाते हैं कि युद्ध के समय जिन हिंसक प्रवृत्तियों को उकसाया जाता है, वे बाद में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों को बढ़ाने का कार्य कर सकती हैं। यह संबंध एकतरफा भी नहीं है। जिस समाज में अपराध बढ़ते हैं, महिलाओं पर आधिपत्य और उन पर होने वाले अपराध में वृद्धि होती है। ऐसे में ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां बढ़ती जाती हैं, जिनसे युद्ध के अनुकूल परिस्थितियों को हवा मिलती है। इन कारणों से सामाजिक बिखराव को रोकने के अभियान व विश्व शांति आंदोलन में आपसी सहयोग लाजमी है और ये दोनों एक-दूसरे को सहायता कर सकते हैं।
लेखक भारत डोगरा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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