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कब सुध लेंगे बिगड़ते पर्यावरण की

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh Parimalपर्यावरण दिवस यानी भाषणों, संकल्पों, आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और शपथ का भी दिवस। अब हम पढ़ेंगे कि पर्यावरण लगातार प्रदूषित हो रहा है। हमें इसके लिए कृतसंकल्प होकर इस दिशा में ठोस काम करना होगा। अगर पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो हम भी ठीक नहीं रहेंगे। ये सारे संकल्प कई समारोहों में होंगे। आप ध्यान से देखिएगा, समारोह के बाद चाय-नाश्ते की प्लेटें इधर-उधर बिखरी होंगी। सारी अव्यवस्थाएं एक ओर और संकल्प एक ओर। हम मना लेंगे पर्यावरण दिवस। इसके बाद कहीं कोई जुम्बिश नहीं। पर्यावरण को बचाने, उसकी रक्षा करने आदि सभी बातें हवा में विलीन हो गई। पूरे विश्व को बिगड़ते पर्यावरण की चिंता है, लेकिन इसके लिए कहीं कुछ हो रहा है तो वह काफी कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एशिया में बढ़ रहा प्रदूषण प्रतिवर्ष 5 लाख 37 हजार लोगों की अकाल मौत का कारण बनता है। केवल प्रदूषण से ही इतनी मौतें, इसके बाद भी इसे बचाने में हमारी कोई भूमिका नहीं, आश्चर्य है! वैज्ञानिकों के अनुसार अगर दुनिया की कुल आबादी का तीन प्रतिशत भी ग्लोबल वार्मिग रोकने के लिए इस्तेमाल होता है तो वर्ष 2030 तक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है। लेकिन यह संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि स्थिति लगातार हाथ से निकलती जा रही है। शुद्ध हवा अब सपनों की बात शुद्ध गुणवत्ता वाली हवा के बारे में कहा जाता है कि इस तरह की हवा अब केवल सपनों की बात रह गई है, क्योंकि वायु प्रदूषण के कारण हमारे देश में 40 करोड़ लोग दमे या सांस की तकलीफ से पीडि़त हैं। विश्व बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक ने वर्ष 2000 और 2003 के बीच एशिया के 20 बड़े शहरों का सर्वेक्षण कराया। उस समय मुंबई, कोलकाता और चेन्नई सहित दस मेगा शहरों में औसत से अधिक वायु प्रदूषण पाया गया।


विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रति क्यूबिक मीटर 50 माइक्रोग्राम से कम प्रदूषण को मान्यता दी है, लेकिन केवल दिल्ली में ही यह मात्रा 340 से 800 माइक्रोग्राम पाई गई है। तकनीकी भाषा में इसे सस्पेंडेड पार्टीक्यूलेट्स प्रति क्यूबिक मीटर कहा जाता है। इसका आशय यही हुआ कि वायु प्रदूषण केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि अन्य बड़े शहरों में तेजी से फैल रहा है। इसके भयावह परिणाम सामने आ रहे हैं। मुंबई, कोलकाता और पुणे में कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के बाद सस्पेंडेड पार्टीक्यूलेट्स देखने को मिले। वायु प्रदूषण का मुख्य कारण सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन हैं। 2003 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 6 करोड़ 60 लाख निजी वाहन थे। वर्ष 2004 में इसमें 70 लाख नए वाहनों का समावेश हो गया। हर महीने भारत के शहर में 300 से 500 नए वाहन शामिल होते हैं। बढ़ते वाहनों से बढ़ते वायु प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए पेट्रोल के बजाय सीएनजी (कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस) के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया, ताकि वायु प्रदूषण में कमी आए। लोग ऐसा मानते हैं कि सीएनजी के प्रयोग से वायु प्रदूषण शून्य हो जाएगा, लेकिन यह गलत सिद्ध हो रहा है। अब यह साबित हो गया है कि पेट्रोल और डीजल के मुकाबले सीएनजी अधिक प्रदूषण फैला रही है।


सीएनजी अपनी ज्वलनशीलता के कारण अपेक्षाकृत अधिक नाइट्रोजन ऑक्साइड छोड़ रही है। इससे हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। नई दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के विशेषज्ञों के अनुसार पिछले पांच वर्षो में आंखों में जलन, दम या सांस लेने में तकलीफ, असह्य सिरदर्द, दिल की बीमारियां, ब्रोंकाइटिस यानी सांस नली में सूजन, फेफड़े की बीमारी और कैंसर के मामलों में काफी वृद्धि हुई है। इन सब तकलीफों के लिए वायु प्रदूषण ही जिम्मेदार है। कैसे बढ़ता है वायु प्रदूषण आखिर वायु प्रदूषण बढ़ता कैसे है? यह जानने के लिए अपने आसपास ही नजर दौड़ाएं तो कारण सामने ही दिख जाएगा। सड़क पर वाहनों का धुआं, सड़क किनारे लगे खाद्य पदार्थो के ठेले, लघु उद्योगों और कारखानों की चिमनियों से लगातार निकलते काले धुएं को तो सभी ने देखा होगा, इसके अलावा चौंकाने वाली बात तो यह है कि पुलिस के वाहन, सरकारी एम्बेसडर कारें आदि भी वायु प्रदूषण फैलाने में सहायक हैं। शायद ही पुलिस के किसी वाहन की कभी पीयूसी जांच होती होगी। ये वाहन कानून के साथ चलकर वायु प्रदूषण बढ़ाने में सहायक हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण से होने वाले रोगों के इलाज में भारतीय हर साल 4550 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। एक तरफ वायु प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ कटते जंगलों के कारण स्थिति और गंभीर होती जा रही है। अब एक छोटी-सी बात की ओर ध्यान दें। इस दिशा में अब तक बहुत कम लोगों का ध्यान गया है। जिनके पास कार है, वे अपने वाहन में लगे केटेलिक कन्वर्टर या स्मोक एरेस्टर की खूबी से अनजान होते हैं। वायु प्रदूषण को घटाने में ये यंत्र अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब वाहनों के एक्जास्ट पाइप से जहरीला धुआं निकलता है, तब यह केटेलिक कन्वर्टर उसके जहरीलेपन को कम करता है। इसी तरह वायु प्रदूषण को कम करने के लिए बसों और ट्रकों में स्मोक एरेस्टर लगा होता है, लेकिन इन दोनों साधनों की नियमित साफ-सफाई नहीं होती। शायद ही कोई इस ओर ध्यान देकर नियमित साफ-सफाई करवाता होगा।


दरअसल, हमारे देश में 75 से 80 प्रतिशत ड्राइवर अशिक्षित हैं। उन्हें केटेलिक कन्वर्टर और स्मोक एरेस्टर के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती। सीएनजी भी कम खतरनाक नहीं सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अनुसार 2001 में जब वाहनों में सीएनजी का इस्तेमाल शुरू किया गया, तब कॉर्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और अन्य दूसरे जहरीले रसायनों के फैलाव में कमी देखी गई थी, लेकिन इसके कुछ महीनों बाद ही वायु प्रदूषण में काफी इजाफा देखा गया। इसकी वजह वही थी कि सीएनजी से चलने वाले वाहनों का रख-रखाव सही नहीं हो पाया। उन वाहनों की नियमित सर्विसिंग नहीं हो पाई और प्रदूषण बढ़ता गया। अब शहरों में दिन में सीएनजी से चलने वाले वाहनों से होने वाला फायदा रात में डीजल से चलने वाले भारी ट्रकों से धुल जाता है। वायु प्रदूषण फैलने का यह भी एक कारण है। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड का कहना है कि वायु प्रदूषण रूपी इस दैत्य को यदि समय रहते काबू में नहीं लाया गया तो अगले दशक में प्रदूषण से होने वाले रोगों की संख्या में भारी वृद्धि होगी। इन जानकारियों के बीच एक खबर थोड़ी-सी राहत पहुंचाती है। अभी पिछले माह ही वाशिंगटन में एक नई शुरुआत हुई। हुआ यह कि वहां वाहनों की अधिकता के कारण सड़कों को जितना चौड़ा किया जा सकता था, वह किया गया। वाहनों की भीड़ को कम करने के लिए जितने भी प्रयास होने थे, वह सब भी किए गए। फिर भी सड़कों से वाहनों को कम नहीं किया जा सका। तब सरकार ने कम्यूट ट्रीप रिडक्शन प्रोग्राम शुरू किया। इस प्रोग्राम के अमलीकरण पर सरकार सख्त थी। फिर भी पहले ही दिन इसे काफी प्रतिसाद मिला। यह जानकर आश्चर्य होगा कि पहले दिन ही लोगों ने वाशिंगटन में अपनी गाड़ी गैराज में छोड़ दी और बसों से कार्यालय जाना शुरू किया। इस तरह पहले ही दिन सड़कों से 22 हजार गाडि़यां कम हो गई। अब तो वहां के लोग वायु प्रदूषण के प्रति इतने सचेत हैं कि नेता, वरिष्ठ नागरिक और बड़ी-बड़ी कंपनियों के अधिकारी भी बस में सफर कर रहे हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को प्रोत्साहन देने के लिए लोग ऐसा भी कर सकते हैं। क्या हम सब अपने पर्यावरण को बचाने के लिए इस तरह का कोई छोटा-सा काम नहीं कर सकते?


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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