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असंक्रामक रोगों से पिछले साल भारत में कितने लोग काल-कवलित हुए, यह प्रश्न अब बेहद विचारणीय हो उठा है। इसकी वजह हैं, ऐसी बीमारियां जिन्हें जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां भी कहा जाता है, वे अब केवल विकसित देशों में नहीं रहीं, बल्कि अब तेजी से निम्न एवं कम आय वाले देशों में फैलती जा रही हैं। इस माह के अंतिम सप्ताह में संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में आयोजित होने वाली उच्चस्तरीय बैठक में दरअसल यही मसला केंद्र में रहने वाला है। इसमें असंक्रामक रोगों के संकट से निपटने के लिए ठोस उपायों का ऐलान होना है। इसके लिए लक्ष्य यह रखा गया है कि असंक्रामक रोगों से होने वाली मृत्यु दर को प्रतिवर्ष दो फीसदी कम किया जाए ताकि आने वाले दस सालों में लगभग तीन करोड़ 60 लाख लोगों को असमय मौत के मुंह में समाने से बचाया जा सकेगा। विश्व भर के नेताओं की इस बैठक के पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से 193 देशों के अध्ययन पर केंद्रित एक अहम रिपोर्ट ने दुनिया में चुपचाप फैल रहे असंक्रामक रोगों के संकट को भी उजागर किया है। रिपोर्ट बताती है कि अपने देश के अंदर ही नहीं समूची दुनिया के पैमाने पर भी असंक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या अधिक है। वर्ष 2008 में इसके चलते दुनिया में तीन करोड 60 लाख लोग मरे थे। एक अनुमान के हिसाब से इनमें से 90 लाख लोग साठ साल की उम्र के पहले ही गुजर गए जिसका 90 फीसदी हिस्सा निम्न एवं मध्यम आय के देशों में रही।
उच्च आय वाले देशों की तुलना में निम्न आय वाले देशों में असंक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या तीन गुना ज्यादा है। अगर हम अपने देश की ही बात करें तो कोई अलग तस्वीर नहीं दिखती है। यहां 2008 में लगभग 52 लाख लोग दिल का दौरा, मधुमेह,कैंसर अथवा हृदयसंबंधी बीमारियों से मरे। यह आंकड़ा भारत में होने वाली कुल मौतों का 53 फीसदी है। अगर हम विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट को देखें तो भारत में 24 फीसदी मौतें हृदयसंबंधी बीमारियों, छह फीसदी मौतें कैंसर के कारण, 11 फीसदी मौतें श्वाससंबंधी बीमारियों, दो फीसदी मौतें मधुमेह और अन्य असंक्रामक रोगों से 10 फीसदी मौतें होती हैं। ताजा अध्ययन पर यदि बारीकी से निगाह डालें तो अधिक चिंताजनक तस्वीर दिखती है। इसका ताल्लुक भारत की आबादी के पाचन संबंधी रोगों में संभावित खतरों से है। उदाहरण के लिए 33 फीसदी लोग उच्च रक्तचाप, 10 फीसदी लोग उच्च ग्लूकोज, 11 फीसदी ज्यादावजन वाले और 27 फीसदी लोग अत्यधिक कोलेस्ट्रॉल से पीडि़त हैं। 14 फीसदी लोग धूम्रपान करते हैं तो अन्य 14 फीसदी किसी भी किस्म का व्यायाम नहीं करते हैं।
असंक्रामक रोगों के बढ़ते प्रकोप को एक छोटे से उदाहरण से भी समझा जा सकता है। कनाडा के मैकमास्टर विश्वविद्यालय में मेडिसिन के प्रोफेसर सलीम यूसुफ के नेतृत्व में हुए अध्ययन के तहत 17 देशों के धूम्रपान न करने वाले 17 हजार पुरुषों और 46 हजार महिलाओं की जांच की गई इसमें दक्षिण एशियाई और खासतौर पर हिंदुस्तानियों के फेफड़ों की क्षमता सबसे खराब पाई गई। दो दशक पहले कार्यक्षमता का यह अंतर महज 10 फीसदी था इसका अर्थ यही है कि प्रदूषण के चलते यहां के लोगों के फेफड़े लगातार खराब हो रहे हैं। इस संदर्भ में विचार करने की बात यह है कि इन बीमारियों को नियंत्रित करने की दिशा में कारगर कदम उठा पाना क्या विश्व भर के नेताओं के लिए आसान होगा जबकि पहले ही यह स्पष्ट है कि भोजन, अल्कोहल और टोबैको उद्योगों से जुड़े सशक्त दबाव समूहों के चलते जीवनशैली आधारित इन बीमारियों के रोकथाम में पहले ही बाधाएं खड़ी कर दी गई हैं। विकसित देश कैंसर, हृदय संबंधी बीमारियों, मधुमेह और फेफड़ों से जुड़ी इन बीमारियों पर रोकथाम के लिए इस वजह से भी तत्पर हैं, क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी तमाम मामलों में राज्य की ही जिम्मेदारी होने के नाते उन्हें तमाम मरीजों के स्वास्थ्य के बिलों का भुगतान करना पड़ता है। नागरिकों के उत्पादक कार्यक्षमता पर भी ये बीमारियां गहराई से असर डालती हैं। खराब आहार के चलते बढ़ता मोटापा एवं निष्कि्रय जीवन शैली तथा उसके साथ अल्कोहल एवं धूम्रपान के प्रयोग अब किसी एक देश तक सीमित नहीं रहे हैं।
ब्रिटेन जैसे देशों ने जहां धूम्रपान पर पाबंदी, सिगरेट एवं अल्कोहल पर अत्यधिक टैक्स, बच्चों पर केंद्रित विज्ञापनों में जंक फूड पर अंकुश आदि कदमों के जरिये इस दिशा में थोड़ी बहुत पहल की है। हालांकि, अधिकतर विकासशील देशों को इन मुद्दों को अभी संबोधित करना है और इन देशों में भोजन एवं टोबैको कंपनियां मार्केटिंग एवं उत्पादन की जिन रणनीतियों का इस्तेमाल करती हैं वह यूरोप या उत्तरी अमेरिका के देशों में कहीं भी स्वीकार्य नहीं है। दरअसल, इन बीमारियों का दायरा इतना विस्तृत एवं विनाशक होता जा रहा है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को विशेष हस्तक्षेप के जरिए इस उच्च स्तरीय बैठक का आयोजन करवाना पड़ा। इसके पहले इस तरह की उच्च स्तरीय बैठक वर्ष 2001 में एड्स पर केंद्रित रखी गई थी। प्रस्तुत सम्मेलन में जिस घोषणापत्र पर दस्तखत होंगे और जो जारी होगा, उसे तय करने के लिए महीनों चर्चाएं चली हैं।
विशेषज्ञों को लगता है कि प्रस्तुत मसौदे में जहां समस्या की गंभीरता का चित्रण होगा, वहीं तमाम देशों की सरकारों को इस दिशा में कार्रवाई करने का आह्वान भी। मगर लक्ष्य निर्धारित नहीं किए गए हैं। इसकी वजह यही बताई जा रही है कि भोजन, शीतल पेय या अल्कोहल बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव काम कर रहा है। यह अकारण नहीं कि इस सम्मेलन के पहले दुनिया भर के 140 गैर सरकारी संगठनों एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए कार्यरत समूहों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के नाम एक खुला खत लिखा है जिसे लांसेट नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। खुले पत्र में लिखा गया है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को चाहिए कि असंक्रामक रोगों में बढ़ोतरी के लिए उसे फूड एवं बेवरेज इंडस्ट्रीज को जिम्मेदार ठहराना चाहिए जिनके उत्पादों एवं मार्केटिंग रणनीतियों से इन बीमारियों में तेजी आई है। इसके चलते 360 लाख लोग हर साल मर रहे हैं। ऐसे कॉरपोरेशन जो अल्कोहल, शीतल पेय, उच्च चर्बी, नमक एवं चीनी वाले पदार्थ एवं टोबैको आदि के उत्पाद बनाते हैं, उन पर अंकुश लगाए बिना इन रोगों में किस तरह कमी लाई जा सकती है। जारी किए गए बयान में इन उद्योगों का सार्वजनिक नीति पर प्रभाव और रोगों के निवारण की कोशिशों में इनके द्वारा संभावित दखलंदाजी की तरफ भी इशारा किया गया है। इस बारे में लिखा गया है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर केंद्रित क्षेत्र में स्पष्ट विवाद की संभावना दिखती है। देखना यह है कि यह सम्मेलन इन उद्योगों पर अंकुश रखने की दिशा में कुछ कदमों की घोषणा करेगा या महज शब्दाडंबर के प्रयोग और चमक-दमक भरी रस्मअदायगी मात्र से खत्म हो जाएगा। अब समय आ गया है जबकि गंभीरता से इस पर विचार हो।
लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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