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अंतरराष्ट्रीय सड़क संघ जिनेवा की ओर से प्रकाशित विश्व सड़क सांख्यिकी रिपोर्ट के मुताबिक सड़क दुर्घटनाओं की संख्या के लिहाज से अमेरिका पहले नंबर पर है, जापान दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर है। दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या के मामले में भारत पहले नंबर पर है। रिपोर्ट के मुताबिक 2008 में भारत में सड़क दुर्घटनाओं में सर्वाधिक 1,19,860 मौतें हुईं। इसके बाद क्रमश: चीन 73,484 और अमेरिका 37,261 का स्थान है। सड़क दुर्घटनाओं का सबसे त्रासद पहलू यह है कि इसमें सबसे ज्यादा युवाओं की मौत होती है। कुल 26 लाख युवाओं में से अकेले चौदह फीसदी यानी तकरीबन साढ़े तीन लाख सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। भारत में सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं महानगरों में होती हैं और इनमें पहला स्थान देश की राजधानी दिल्ली का है। राज्यों में पहले नंबर पर आंध्र प्रदेश, दूसरे और तीसरे स्थान पर क्रमश: महाराष्ट्र और तमिलनाडु हैं। उत्तर प्रदेश का नंबर इसके बाद आता है।
सड़क हादसों में सबसे ज्यादा पैदल चलने वाले, साइकिल और दुपहिया सवार मारे जाते हैं। निम्न और मध्यम वर्ग ही सड़क हादसों का शिकार अधिक होता है, क्योंकि यही वर्ग पैदल व दुपहिया वाहनों पर चलता है। यदि सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या का वर्गीकरण किया जाए तो उसमें अमीर लोगों की संख्या कम है। इसका कारण है कि यह वर्ग न तो सड़क पर पैदल चलता है और न ही दुपहिया वाहनों का प्रयोग करता है। दूसरे सड़क सुरक्षा के जितने भी नियम बनाए जाते हैं वे कार चालकों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं न कि दुपहिया वाहनों के। देश में 95 फीसदी सड़क हादसों के पीछे मुख्य कारण यातायात के नियमों का उल्लंघन है। इनमें यातायात के बढ़ते दबाव, खराब सड़कें, वाहनों की देखभाल में लापरवाही, ढीले यातायात नियम और शराब पीकर गाड़ी चलाना प्रमुख है।
योजना आयोग ने सड़क दुर्घटनाओं की सामाजिक लागत 55 हजार करोड़ रुपये आंकी थी जो 1999-2000 में देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग तीन फीसदी थी। देश में जहां एक ओर वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर सड़क कानून लचीला है। सड़क दुर्घटनाओं के ऊंचे आंकड़ों के बावजूद हमारे यहां दोषसिद्धि की दर दस फीसदी से भी कम है। इसके अतिरिक्त मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत नशे की स्थिति में ड्राइविंग की सजा बहुत कम है। दोष सिद्ध होने पर मात्र छह महीने की कैद अथवा दो हजार रुपये के जुर्माना का प्रावधान है। नियमों के सख्ती से पालन न होने के चलते ड्राइविंग लाइसेंस आसानी से बन जाते हैं। फिर लाइसेंस जारी करने में योग्यता की पूरी जांच भी नहीं की जाती। सड़क इंजीनियरिंग तथा यातायात प्रबंधन में रिसर्च की भी कमी है। इस प्रकार वर्तमान कानून यातायात के नियमों का उल्लंघन रोकने तथा दोषी ड्राइविंग पर प्रतिबंध लगाने के लिए अपर्याप्त हैं।
सड़क दुर्घटनाओं को कम करने के लिए समय-समय पर अनेक सुझाव दिए जाते रहे हैं जैसे ड्राइविंग लाइसेंस रद करना, जुर्माने की राशि में वृद्धि, नशे की स्थिति में कठोर सजा, ड्राइविंग लाइसेंस सिस्टम मजबूत बनाना आदि, लेकिन दुर्भाग्यवश ये उपाय अब तक लागू नहीं किए जा सके हैं। लोगों में कानून और कठोर दंड के भय न रहने का ही परिणाम है कि सड़क दुर्घटनाएं चार फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही हैं। सबसे बिडंबनापूर्ण बात यह है कि दुर्घटना के शिकार लोगों को मुआवजा देने में सरकार जितनी तत्परता दिखाती है उसका सौंवा हिस्सा भी यातायात को सुरक्षित बनाने पर नहीं देती। सड़क हादसों की ऑडिटिंग, उपयुक्त जांच और देश के हालात के मुताबिक अनुसंधान कर सड़क इंजीनियरिंग को सुधारा जाना और नियमों को सख्ती से लागू किया जाना अभी दूर की कौड़ी बना हुआ है। यह ठीक है कि उदारीकरण के बाद वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इसे दुर्घटनाओं के बढ़ने का कारण नहीं माना जा सकता। यदि ऐसा होता तो विकसित देशों में सड़क दुर्घटनाओं के कारण होने वाली मौतों की संख्या में कमी न आती।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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