- 1877 Posts
- 341 Comments
बीते बरसों की तरह इस बार भी दुनियाभर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले भारतीयवंशी प्रवासी सम्मेलन से नदारद ही रहे। अब यह साफ है कि इनकी इस सालाना सरकारी आयोजन में कोई दिलचस्पी नहीं है। त्रिनिदाद व टोबेगो की प्रधानमंत्री कमला प्रसाद को छोड़कर किसी भी नामचीन प्रवासी भारतीय ने सम्मेलन में आने का वक्त नहीं निकाला। चाहे सिटी बैंक प्रमुख विक्रम पंडित हों या पेप्सी समूह की प्रमुख इंदिरा नूई, फ्रांस की फुटबाल टीम के सदस्य विकास धुरूसु हों या प्रख्यात गोल्फ खिलाड़ी विजय सिंह, सभी सम्मेलन से दूर रहे। क्या कोई बताएगा कि अमेरिका के लुसाना प्रांत के गवर्नर बॉबी जिंदल और अंग्रेजी के साहित्यकार व नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नॉयपाल जैसे दिग्गज भारतीय प्रवासी भारतीय सम्मेलन में कब शिरकत करेंगे? प्रवासी भारतीय सम्मेलन-2012 में चंद कारोबारी और नौकरीपेशा ही ही आए। सरकार के शीर्ष स्तर से सात समंदर पार बसे भारतीयों को इस तरह का भरोसा दिलाने की कोई चेष्टा नहीं हुई कि भारत सरकार उनके हितों का ख्याल रखेगी। उन्हें जब भी कभी कोई संकट आएगा, तब सरकार राजनयिक स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेगी।
प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक प्रवासियों से यही आग्रह करते हैं कि वे भारत में अधिक से अधिक निवेश करें। बीते सालों से चली आ रही परंपरा को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के अलावा वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी दोहराया। वे भी मेहमानों से भारत की ग्रोथ स्टोरी का हिस्सा बनने की कोशिश करते रहे। बेहतर होता कि सरकार की तरफ से इस तरह का आह्वान तब होता, जब नामचीन प्रवासी भारतीय पेशेवर, उद्योगपति, राजनेता और इस तरह की अन्य शख्सियत सम्मेलन में शिरकत करतीं। पहले की तरह से इस बार भी प्रवासी भारतीय सम्मेलन में आए अनेक प्रतिनिधियों की शिकायत थी कि भारत सरकार उनसे निवेश करने की तो अपील कर रही है, लेकिन उनके हक में आवाज उठाने से उसे परहेज होता है। प्रवासियों की ये शिकायतें वाजिब भी है। हाल के दिनों में चीन, मलेशिया, फ्रांस, खाड़ी व अफ्रीकी देशों में भारतीयों के साथ भेदभाव से लेकर दुर्व्यवहार की खबरें आती रहीं, लेकिन सरकार निर्विकार भाव से अन्य अहम मसलों में उलझी रही। खाड़ी से आए बहुत से प्रतिनिधि सम्मेलन के दौरान इधर-उधर भटक रहे थे। उनकी चाहत थी कि वे सरकार के किसी आला नुमाइंदे को खाड़ी देशों में भारतीय श्रमिकों की शोचनीय हालात की जानकारी दे सकें। पर उनका दुख-दर्द सुनने वाला कोई नहीं था, क्योंकि सरकारी स्तर पर तो सिर्फ निवेश लाने और लाभ कमाने की ही बातें हो रही थीं। खाड़ी के देशों में लाखों की तादाद में रहने वाले भारतीय श्रमिक इस बात से त्रस्त हैं कि उन्हें वहां पर ले तो जाया गया, पर न्यूनतम वेतन और दूसरी सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं।
सरकार अपनी तरफ से उन देशों की सरकारों से उनके देश में काम कर रहे भारतीय श्रमिकों के हितों को उठाने के लिए तैयार नहीं है। उधर, नाइजीरिया में भी सैकड़ों की तादाद में काम कर रहे भारतीयों को नियमित तो छोडि़ए, कुछ भी पगार नहीं मिल रही। पराए देश में उनका दुख सुनने वाला कोई नहीं है। अफ्रीका के विभिन्न देशों से आए प्रतिनिधि युगांडा, नाइजीरिया और केन्या में भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय की कथा सुना-बता रहे थे। अगर बात गुजरे दौर की करें तो आपको याद होगा, जब युगांडा में 70 के दशक में हजारों भारतीयों को वहां के राष्ट्रपति ईदी अमीन ने खदेड़ दिया था। बीते दो साल पहले केन्या में भी भारतीय कारोबारियों के साथ खूब लूटपाट हुई। फिल्म अभिनेत्री जूही चावला के पति जय मेहता और दूसरे भारतीयों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को हानि पहुंचाई गई। तब भी हमारी सरकार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया। जब युगांडा में भारतीय पिट रहे थे, तब विश्व फलक पर हमारी वैसी सिथति नहीं थी, जैसी वर्तमान में है। पर हम गुट निरपेक्ष आंदोलन के तो अगुवा थे ही। भारतीय वहां पर लुटते-पिटते रहे और हम देखते रहे। मलेशिया में भारतवंशियों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में व्यवहार किया जा रहा है। उधर सौ साल पहले बसने के बाद भी मलेशिया की सरकार उनके मंदिरों और दूसरे प्रतिष्ठानों पर लगातार होने वाले हमलों को रोकने की कोशिश नहीं करती। मलेशिया से आए भारतवंशियों का संबंध मूलत: तमिलनाडु के तेंजावुर जिले से है। इनके साथ कुछ सिख भी आए थे। बताते चलें कि दुनिया में करीब सवा दो करोड़ भारतीय मूल के लोग विभिन्न देशों में रह रहे हैं।
सर्वाधिक भारतीय मलेशिया तथा दक्षिण अफ्रीका में बसे हैं। इन दोनों मुल्कों में इनकी तादाद लगभग 25 लाख के आसपास है। मलेशिया में भारतीय मूल के प्रमुख नेता सेम वेल्लू ने बताया कि उनके देश में चीनी मूल के लोगों के साथ सरकार किसी तरह की भेद-भावपूर्ण नीति अपनाती है तो चीन सरकार तुरंत सक्रिय हो जाती है। पर भारत सरकार मेल-मिलाप की नीति में ही यकीन करती है। वेल्लू की कठोर राय की पुष्टि हाल में तब हुई, जब चीन में भारतीय राजनयिक और दो भारतीय व्यापारियों के साथ दुर्व्यवहार की घटना सामने आई। बेहद गंभीर मसले के बाद भी भारतीय प्रतिक्रिया पिलपिली रही। हालांकि विदेश मंत्रालय के ठंडे रुख से किसी को हैरत नहीं हुई होगी। कारण यह है कि विदेशों में कामकाज के लिए गए अपने नागरिकों या भारतीय मूल के लोगों पर किसी भी तरह की विपत्ति आने की हालत में हम हालात सुधरने का इंतजार करते हैं। हालात बद से बदतर होने के बाद जब सुधरने लगते हैं तो हम भी शांत हो जाते हैं। क्या अपने नागरिकों के साथ देश से बाहर हो रहे इस तरह के व्यवहार को हमें सहन करना चाहिए? क्या हमारी इस तरह की कमजोर विदेश नीति के चलते हमें यह कहने का अधिकार बचता है कि हम उभरती हुई विश्व महाशक्ति हैं? प्रवासी सम्मेलन के दौरान कोई तमिल में बतिया रहा था, कोई पंजाबी में तो कोई गुजराती में। अंग्रेजी तो सब जानते-समझते ही थे। अगर फिजी और मॉरीशस की बात करें तो वहां से आए भारतवंशी अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच में संवाद करते नजर आए एक-दूसरे से। पर हिंदी सुनने को नहीं मिली। गिनती के ही प्रवासी भारतीय हिंदी बोल रहे थे। त्रिनिदाद और गुयाना से आए भारतवंशी तो हिंदी बिल्कुल भी नहीं जानते-समझते थे।
त्रिनिदाद से बड़ा प्रतिनिधि मंडल सम्मेलन में आया था। वहां से भारतीय मूल की प्रधानमंत्री कमला प्रसाद भी आई। उनके पुरखे बिहार से करीब 125 साल पहले अंग्रेजों द्वारा त्रिनिदाद ले जाए गए थे। मॉरीशस, सूरीनाम और फिजी से आए कुछेक भारतवंशी ही हिंदी बोलते मिले। उधर, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर से आई भारतवंशियों की टोली धाराप्रवाह तमिल बोलती नजर आई। इन सभी का कमोबेश संबंध मूलत: तमिलनाडु से था। मलेशिया की टोली में कुछ सिख भी आए। ये तमिल के साथ पंजाबी भी बोल रहे थे। सिख जहां से भी आए, वे सभी पंजाबी जानते थे। हालांकि पिछले बीस-बीस साल पहले देश से बाहर गए भारतीय तो हिंदी बोलते मिले, पर हिंदीभाषी प्रांतों से बाहर गए भारतवंशी हिंदी नहीं जानते। वे कुछेक वाक्य बोल सकते थे। संभवत: उतनी हिंदी भी उन्होंने हिंदी फिल्मों को देखकर जानी होगी। अगर कुछ देर के लिए मान भी लिया जाए कि वे हिंदी इसलिए नहीं जानते, क्योंकि उनका आम बोलचाल की हिंदी से साक्षात्कार हुआ ही नहीं, पर वे तो उन बोलियों को भी नहीं बोल रहे, जो उनके पूर्वज बोलते थे। पिछले साल राजधानी में हुए प्रवासी सम्मेलन में त्रिनिदाद के पूर्व प्रधानमंत्री वासुदेव पांडे भी आए थे। वे सिर्फ अंग्रेजी ही जानते थे। उन्होंने बताया कि वे हनुमान चालीसा अंग्रेजी में ही पढ़ते हैं। उनके माता-पिता भी हिंदी नहीं जानते थे। हालांकि कैरिबियाई देशों में आर्य समाज और कुछ धार्मिक, सांस्कृतिक संस्थान हिंदी के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं, पर वह ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही है।
गुजराती चूंकि सच्चे और पक्के व्यापारी माने जाते हैं तो ये भारत से बाहर काम-धंधे की तलाश में सौ से भी अधिक सालों से जा रहे हैं। अच्छी बात यह लगी कि अमेरिका से लेकर अफ्रीका और ब्रिटेन से लेकर ऑस्ट्रेलिया में बसे गुजराती अपनी भाषा में ही गप मारने में आनंद अनुभव कर रहे थे। ये गुजराती को लेकर किसी भी तरह का समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। चलते-चलते एक बात और। मॉरीशस, फिजी, त्रिनिदाद वगैरह से आए भारतवंशियों को छठ पर्व की जानकारी नहीं है। छठ बिहार का पुरातन पर्व है। इसके बावजूद छठ को लेकर इनकी अज्ञानता समझ से परे है।
लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Comments