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न्याय पाने का मूल अधिकार

जागरण मेहमान कोना
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Harivansh Dixitसुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को दूरगामी परिणामों वाला मान रहे हैं डॉ. हरबंश दीक्षित


सुप्रीम कोर्ट ने न्याय पाने के अधिकार को मूल अधिकार बताते हुए अदालत जाने के अधिकार को इसका हिस्सा माना है। इस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ी पहल की है। बीते 31 जनवरी को सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर दिए गए निर्णय के बहुत दूरगामी परिणाम होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भ्रष्टाचार मुक्त समाज में रहना आम जनता का मूल अधिकार है। इसलिए उसे हासिल करने के लिए अदालत में जाना और न्याय प्राप्त करना भी उस मूल अधिकार का हिस्सा है। स्वामी ने केंद्र सरकार को एक प्रत्यावेदन देकर पूर्व संचार मंत्री ए. राजा के विरुद्ध भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी थी। लंबे समय तक सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं किए जाने पर उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके मांग की कि सरकार को एक निश्चित समयसीमा में अनुमति देने का निर्देश दिया जाए। उच्च न्यायालय ने स्वामी की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि चूंकि केंद्र सरकार इस मामले की जांच करा रही है इसलिए इस विषय पर किसी प्रकार के निर्देश की कोई आवश्यकता नहीं है। इस निर्णय के खिलाफ स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।


सुप्रीम कोर्ट के सामने पहला प्रश्न यह था कि भ्रष्टाचार के मामले में क्या आम आदमी को अदालत जाने का अधिकार है? सरकार की ओर से इसका विरोध किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में सरकार के तर्क को नकारते हुए शिवनंदन पासवान बनाम बिहार राज्य के मुकदमे का हवाला देते हुए कहा कि भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा दायर करना न्याय पाने के संवैधानिक अधिकार का हिस्सा है। अदालत ने आगे कहा कि जब कोई आम आदमी किसी भ्रष्ट लोकसेवक के खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहता है तो उसे केवल किसी के व्यक्तिगत रागद्वेष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसको इस तरह से समझने की जरूरत है कि इस कार्यवाही के माध्यम से समाज में कानून के शासन को बनाए रखने की कोशिश की जाती है और इस तरह के प्रयासों को हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार निरोधी कानून की धारा 1988 की धारा 19 में कहा गया है कि लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा दायर करने से पहले सरकार की अनुमति आवश्यक है। स्वामी की ओर दलील दी गई कि सरकार ऐसे मामलों में लंबे समय तक अनुमति नहीं देती। उन्होंने मांग की कि न्यायालय सरकार को अनुमति के संदर्भ में आवश्यक दिशा-निर्देश दे। सरकार ने इसका विरोध करते हुए कहा कि कानून के अंतर्गत इस तरह की अनुमति देने या न देने का अधिकार सरकार को दिया गया है।


अदालत ने अपने निर्णय में अटार्नी जनरल द्वारा रखे गए तथ्यों का जिक्र करते हुए कहा कि पिछले एक वर्ष में लोकसेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई की अनुमति के 319 आवेदन किए गए, जिनमें से 126 पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत को यह तय करना जरूरी है कि वह कानूनी उपबंधों को आंख बंद करके मान ले या न्याय और कानून के शासन का सम्मान करते हुए इसमें सकारात्मक दखलंदाजी करे ताकि आम आदमी का राज्य से भरोसा न उठे। इस देरी के दुष्प्रभावों की चर्चा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने महेंद्र लाल दास बनाम बिहार राज्य के मुकदमे का हवाला दिया, जिसमें भ्रष्ट लोकसेवक के विरुद्ध किए जाने वाले अभियोजन को सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए खारिज कर दिया था, क्योंकि मुकदमा चलाने की अनुमति 13 साल बाद दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इन बातों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यदि भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत अनुमति हासिल करने के लिए देरी करने और फिर उसके आधार पर आगे चलकर अभियोजन की कार्यवाही को खारिज करने का सिलसिला चलता रहा तो लोगों का न्याय से भरोसा उठ जाएगा। ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने ब्रिटेन के न्यायाधीश लार्ड कोक के कथन का हवाला देते हुए कहा कि न्याय की प्रतिष्ठा कायम करने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे मामलों में कानून की व्याख्या में जरूरत के मुताबिक परिवर्तन किया जाए। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन की अनुमति के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा करना उचित नहीं है और इसकी समयसीमा तय किया जाना जरूरी है। अदालत ने संसद तथा दूसरी संस्थाओं को सुझाव दिया कि वे इस विषय में जरूरी पहल कर इस कमी को दूर करें। न्यायमूर्ति गांगुली ने अपने निर्णय में सुझाव देते हुए कहा कि अनुमति देने वाले प्राधिकारी को इसके लिए तीन माह का समय दिया जाना चाहिए। यदि किसी कारण इस समयसीमा के अंदर निर्णय संभव नहीं हो पाता तो कारणों का उल्लेख करते हुए एक महीने की समयसीमा बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार अभियोजन की अनुमति का निर्णय देने के लिए कुल चार महीने का समय दिया जा सकता है और यदि इसके अंदर निर्णय नहीं लिया जाता तो आम आदमी या अभियोजन को यह अधिकार होगा कि वह समयसीमा के समाप्त होने के 15 दिनों के अंदर आगे की कार्यवाही शुरू कर सकता है।


इस निर्णय ने कई दूरगामी संदेश दिए हैं। पहला यह कि सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दों पर जन भावनाओं की अनदेखी नहीं कर सकता। दूसरा यह कि वे दिन अब लदने लगे हैं जब सरकार अपने अधिकार का दुरुपयोग करके भ्रष्टाचारियों को सुरक्षा कवच दे देती थी। तीसरा यह कि मौजूदा पारदर्शी व्यवस्था में भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली लड़ाई को और भी मजबूती मिलेगी और चौथा यह कि सरकार के लिए यह एक चेतावनी भी है कि वह अपने अधिकार का प्रयोग करते समय तानाशाही तौर-तरीका अपनाने की बजाय जनता के प्रति अपनी जवाबदेही के मूल मंत्र का सम्मान करे।


लेखक डॉ. हरबंश दीक्षित विधि मामलों के विशेषज्ञ हैं


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