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अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में नौ प्रतिशत आरक्षण देने की सलमान खुर्शीद की पेशकश को कांग्रेस आलाकमान द्वारा उनकी निजी राय बताने और फिर उससे मुकर जाने यानि उनका समर्थन करने पर अफसोस जताए बिना नहीं रहा जा सकता। फर्रुखाबाद संसदीय क्षेत्र में आयोजित एक सभा में यह घोषणा करने वाले खुर्शीद इतने चतुर खिलाड़ी नहीं हैं कि उनके दिमाग में नौ प्रतिशत का आंकड़ा आ पाता। उनकी इस घोषणा के दो संभावित स्पष्टीकरण हो सकते हैं। पहला जिसकी संभावना कम ही नजर आती है, यह कि कानून मंत्री ने अपने स्वभाव के विपरीत अधीरता दिखाते हुए तीर चला दिया। दूसरे शब्दों में कांग्रेस उत्तर प्रदेश के लिए चुनावी घोषणापत्र में नौ प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा शामिल करने के फैसला ले चुकी थी। खुर्शीद ने बस इतना किया कि इस प्रस्ताव को मीडिया और लोगों के सामने जाहिर कर दिया। दूसरा स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि कांग्रेस ने जानबूझ कर खुर्शीद को आरक्षण का दांव चलने को कहा ताकि इस प्रस्ताव पर लोगों की प्रतिक्रिया जान सके। एक समूह करो या मरो वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के लिए इस प्रस्ताव पर जोर दे रहा था।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को केवल मुस्लिम चुनाव में बदलने की कांग्रेस की उत्कंठा बहुत से लोगों को हैरान कर रही है। कांग्रेस को संविधान में धर्म आधारित आरक्षण के प्रावधान के लिए जगह बनाने के लिए इसमें संशोधन करने से भी कोई गुरेज नहीं है बशर्ते इससे एक ऐसे समुदाय को लुभाने में कामयाबी मिले जो जनादेश का 15-17 फीसदी हिस्सा है। अनेक राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणाम एक सवाल के जवाब पर निर्भर करता है-मुसलमान किसे वोट देंगे? बाकी सभी मुद्दे निष्प्रभावी हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस इस सोच से बेहद प्रभावित है।
पूरे चुनाव को मुस्लिमों के बदलते रुझान तक सीमित कर लेना चुनाव को परखने का संकीर्ण नजरिया है। ये विश्लेषक एक वैकल्पिक सिद्धांत की अनदेखी करते हैं-यद्यपि मुस्लिम वोटों की संख्या काफी अधिक है किंतु केवल मुसलमान ही मतदान नहीं करते हैं। इस विचार पर सहमति बनाने में सात दिन से भी कम समय लगा कि उत्तर प्रदेश अनेक जातियों और समुदायों से मिलकर बना है। शुरू में अन्य पिछड़े वर्गो के कोटे का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों को देने की पेशकश से विद्वेषपूर्ण प्रतिक्रिया आने का अनुमान लगाया गया था। इससे सर्वाधिक प्रभावित समूह थे सर्वाधिक पिछड़ी जातियां, जो मुस्लिमों के लिए बड़े कोटे के प्रावधान से ठगे से महसूस कर रहे थे। खुर्शीद के बयान की प्रतिक्रिया से अचानक कांग्रेस जैसे सोते से जागी कि इस प्रस्ताव से मुस्लिमों के बीच कांग्रेस की लहर पैदा होने के बजाय पिछड़े वर्गो के इससे छिटकने का खतरा पैदा हो गया है। कांग्रेस के लिए इससे भी चिंताजनक बात यह रही कि अन्य पिछड़ा वर्ग की नाराजगी का सबसे अधिक लाभ उस भाजपा को मिलेगा, जिसे अधिकांश चुनावी विश्लेषक उत्तर प्रदेश में चुका हुआ मान रहे हैं।
आरक्षण प्रकरण की भी वही कहानी है जो कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह की बाटला मुठभेड़ की फिर से जांच कराने की सतत मांग की है। इस मुद्दे पर आजमगढ़ के कुछ मुस्लिम समुदाय विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। पिछले सप्ताह राहुल गांधी को काले झंडे भी दिखाए गए।?साथ ही सुरक्षा और खुफिया संस्थान में भी इस मामले को फिर से खोलने पर तीखे मतभेद हैं। यह मामला फिर से खोले जाने का यह संकेत जाएगा कि मुठभेड़ के शौकीन पुलिसवालों ने कुछ असहाय मुसलमानों को अपना शिकार बना डाला। इससे सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों का मनोबल गिरना निश्चित है। कांग्रेस को दो चीजों में से एक चुननी थी। या तो बाटला हाउस मुठभेड़ को मुस्लिम मुद्दा बनाए और या फिर आतंकवाद विरोधी अभियान पर वज्रपात को स्वीकार करे।
मेरे विचार में अगर नौ प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की खुर्शीद की घोषणा के साथ ही मुसलमानों में उत्साह की लहर दौड़ जाती और अन्य पिछड़ा वर्ग उदासीन रहता तो कांग्रेस बाटला हाउस मुठभेड़ की फिर से जांच को हरी झंडी दे देती। ऐसे में दिग्विजय सिंह की इच्छा राहुल गांधी को प्रभावित जरूर करती कि वह कांग्रेस के फायदे को देखते हुए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर बाटला हाउस की दोबारा जांच कराने का दबाव डालें। अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रतिघात के कारण ही कांग्रेस ने मुस्लिम आरक्षण और बाटला हाउस मुठभेड़ की फिर से जांच करने की योजना रद की। इसी कारण कांग्रेस ने मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम को यह कहने की छूट दी कि किसी भी ऐसी नई जांच का कोई सवाल ही नहीं उठता जो आतंकरोधी अभियानों का राजनीतिकरण करे।
कांग्रेस के मुस्लिम कार्ड खेलने के असफल प्रयास के सबक स्पष्ट हैं। भारतीय चुनावों में सफलता जातियों और समुदायों का व्यापक गठबंधन तैयार करने पर निर्भर करती है। तमाम राजनीतिक दलों ने इसे उत्तर प्रदेश में महसूस किया है। उदाहरण के लिए मायावती की मूल शक्ति दलित वोट हैं। किंतु एक वर्गीय खिलाड़ी से शासन चलाने वाली पार्टी में खुद को बदलने में वह तभी कामयाब हो पाईं जब अन्य जातियों और समुदायों का भी समर्थन हासिल हुआ। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के नेताओं को बेमन से ही सही एहसास होने लगा है कि बड़ा खिलाड़ी बनने के लिए इसे अन्य पिछड़ा वर्ग का समर्थन हासिल करना होगा और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि उसे उमा भारती जैसे ओबीसी के कद्दावर नेता की जरूरत पड़ेगी।
तमाम हिंदू जातियों का थोड़ा-बहुत समर्थन पाने वाली कांग्रेस को असल में एक धड़े के रूप में मुसलमानों का समर्थन चाहिए। तभी वह उत्तर प्रदेश में जीत की आस रख सकती है। किंतु सोशल इंजीनियरिंग में एक नाजुक संतुलन कायम रखना बहुत जरूरी होता है ताकि इससे कोई भी समुदाय नाराजगी महसूस न करे। मौका न गंवाने की हड़बड़ाहट में कांग्रेस अन्य समुदायों की नाराजगी के दुष्परिणामों की चिंता किए बिना ही मुस्लिमों को लुभाने का दुस्साहस कर बैठी। अधिक चतुराई के फेर में कांग्रेस दो नावों की सवारी कर रही है।
लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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