Menu
blogid : 5736 postid : 4722

एसिड हमलों से कैसे निबटें

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

पाकिस्तान की मशहूर डॉक्युमेंटरी फिल्म निर्माता शरमीन ओबेद चिनॉय तथा अमेरिका के डेनवर के फिल्म निर्माता डेनियल जुंगे द्वारा संयुक्त रूप से बनाई गई एक डाक्युमेंटरी सेविंग फेस इन दिनों काफी चर्चा में है। इस फिल्म का फोकस पाकिस्तान में एसिड हमले के पीडि़तों पर है। फिल्म के महत्व को देखते हुए इसे ऑस्कर फिल्म पुरस्कार से भी नवाजा गया है। यह फिल्म न केवल एसिड पीडि़ताओं की पीड़ा को बयान करती है, बल्कि उनके चेहरों या शरीर के अन्य हिस्सों को सर्जरी से ठीक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पाकिस्तानी मूल के मशहूर ब्रिटिश सर्जन डॉ. मोहम्मद जवाद की कोशिशों को भी दर्शाती है। फिल्म इन पीडि़ताओं की तमाम जद्दोजहद के साथ-साथ आशा की एक किरण भी दिखाती है और पीडि़तों को यह ऊर्जा एवं भरोसा भी कि जीवन का यहां कोई अंत नहीं है। फिल्म की शुरुआत एसिड हमले की पीडि़ता के एक बयान से होती है जो बताती है कि मैं सो रही थी जब वह पहुंचा और उसने मुझ पर एसिड उडे़ल दिया..। मेरे जीवन को पूरी तरह से तबाह करने के लिए महज एक सेकंड का वक्त लगा। दूसरी पीडि़ता कैमरे के सामने उस जगह को दर्शाती है, जहां उसके पति एवं ससुराल वालों ने उसे एसिड एवं पेट्रोल से नहला दिया और आग लगा दी। वह यह जोड़ना नहीं भूलती है कि इस मामले में किसी को सजा नहीं हुई। इस फिल्म का प्रभाव हमारे देश की सरकार पर भी पड़ा है और उसने फिर से इस अपराध के खिलाफ सख्त कानून बनाने की बात दोहरायी है। पिछले काफी समय से एसिड हमले के अपराध के लिए कानून की मांग होती रही है जिसमें सरकार ने कभी नए कानून की बात स्वीकार नहीं की और सदैव यही कहा कि मौजूदा कानून ही इससे निपटने के लिए काफी है।


पड़ोस में लोकतंत्र का संकट


महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा है कि वह गृह मंत्रालय से इसके लिए बात करेगा। केंद्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ ने भी यह स्वीकार किया है कि यह एक तरह का क्रूर किस्म का अपराध है और इसके लिए सख्त सजा का प्रावधान होना ही चाहिए। इस बात पर भी बहस रही है कि एसिड की खुली बिक्री पर नियंत्रण हो या नहीं। कुछ की राय है कि नियंत्रण से कालाबाजारी बढ़ेगी तो कुछ नियंत्रण को समाधान के रूप में देखते हैं। एसिड द्वारा महिलाओं पर हमले की घटनाएं पाकिस्तान तथा भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया के अन्य देशों नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि में भी आए दिन सुनाई देती है। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ वर्षो में बांग्लादेश में एसिड फेंकने की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ी हैं। नब्बे के दशक के पहले के सालों में जहां ऐसे हमलों की संख्या वहां दर्जन से पचास के बीच थी वहीं बाद के वर्षो में यह आंकड़ा तीन सौ के करीब पहुंच गया। इन मामलों में जहां तक सजा दिए जाने का सवाल था तो ऐसी स्थितियां न के बराबर थीं। वहां सक्रिय सामाजिक संगठनों के मुताबिक एसिड फेंकने के निम्न कारण दिखते हैं- शादी से इनकार, दहेज, पारिवारिक झगड़ा, वैवाहिक तनाव, जमीन विवाद या कुछ राजनीतिक कारण।


दो साल पहले एसिड हमले की खबर मैसूर के हवाले से छपी थी, जिसमें पति ने खुद पत्नी को पहले शराब में डालकर एसिड पीने के लिए मजबूर किया और उसके चिल्लाने पर वही बोतल उस पर उडेल दी। अस्सी फीसदी जली अवस्था में अस्पताल पहुंचा दी गई हिना फातिमा को लंबे समय तक जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करना पड़ा, जबकि पति फिरोज फरार हुआ था। ऐसे हमले की शिकार महिलाओं के लिए कार्यरत समूहों द्वारा दिल्ली में कुछ समय पहले एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में पीडि़ताओं ने अपनी आप बीती जनता के सामने रखी थी। कहा जा सकता है कि दहेज हत्या, सती प्रथा, गर्भजलपरीक्षण के जरिए मादाभ्रूण के खात्मे या कन्या शिशुओं की हत्या के रूप में स्त्री को जिस बर्बर किस्म की हिंसा का शिकार होना पड़ता है, उसी में एक नया नाम जुड़ गया है एसिड हमलों का। निश्चित ही इस प्रकार के क्रूरतम हमलों को हम अलग-थलग करके नहीं देख सकते। हमारे समाज में जितना अधिक स्त्रीद्रोही विचार और माहौल है यह उसी की परिणति है। अक्सर होता यही है कि ऐसी घटना को अंजाम देने वाले व्यक्ति को मनोरोगी या गुस्सैल स्वभाव का बताते हुए लीपापोती की कोशिश चलती रहती है और उसके सामाजिक संदर्भ से उसे काट दिया जाता है, लेकिन समस्या को हल करने के लिए कोई गंभीर प्रयास शायद ही किए जाते हैं।


एसिड हमले के जितने मामले सामने आए हैं उनके अध्ययनों के आधार पर यही कहा जा सकता है एसिड का असर चमड़ी से लेकर अंदर तक गहरा असर पड़ता है। कभी-कभी एसिड हड्डियों को भी गला देता है, आंखों की रोशनी खत्म कर देता है तथा वह व्यक्ति की कार्यक्षमता को भी प्रभावित करता है। ऐसे हमले के शिकार व्यक्ति के लिए पूरी उम्र समाज में साधारण व्यक्ति की तरह जीना संभव नहीं होता है। चेहरा और शरीर के विकृत रूप के चलते महिलाएं हीन भावना का शिकार हो जाती हैं और इन मामलों के प्रति असंवेदनशील रहने वाला समाज भी स्थिति को और गंभीर बना देता है। उनसे शादी जैसा रिश्ता तो दूर, लोग दोस्त की श्रेणी में भी नहीं आना चाहते और अक्सर बच्चे भी इन पीडि़तो से दूर भागते हैं। इस प्रकार मानवीय जीवन जीना एक तरह से खत्म हो जाता है। भारत में बेंगलूर तथा मुंबई में एसिड हमले के पीडि़तों ने अपने समूहों का गठन किया है और वे अपने अधिकारों के लिए तथा एक दूसरे को सहायता करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी एकता का आधार और कुछ नहीं सिर्फ हमले का एक प्रकार का होना है।


बर्न सवाईवर ग्रूप ऑफ इंडिया ऐसा ही एक समूह बंबई में है। 22 वर्षीय अपर्णा प्रभु जो खुद ऐसे हैवानी हमले की शिकार है, उसकी एक आंख भी चली गई है। एक अन्य पीडि़त शीरीं ने कहा कि हम बहुत दुखी होते हैं जब बच्चे हमें देख कर डर जाते हैं और चिल्ला कर भागते हैं। एसिड हमलों का शिकार महिलाओं की समस्याओं को लेकर कर्नाटक के लोगों ने एक फिल्म भी बनाई है जो लोगों को इस मसले पर संवेदनशील बनाने का काम कर रही है। फिल्म का शीर्षक है ब‌र्न्ट नॉट डिस्ट्राइड (जले हैं, मगर नष्ट नहीं हुए है)। आमतौर पर एसिड से जलाए जाने पर होने वाला इलाज बेहद महंगा होता है और अगर पीडि़त गरीब परिवार से है तो उसके लिए यह इलाज एवं रख-रखाव असंभव सा हो जाता है। तेजाब से पीडि़त लोगों के इलाज के लिए हमारे देश में प्रशिक्षित डॉक्टरों की भी कमी है। एसिड से जले पीडि़तों का इलाज काफी महंगा होता है। विकृत हो चुके इन लोगों चेहरे की सर्जरी कई-कई बार करानी पड़ती है, जो बहुत कष्टकारी होता है। डॉक्टर मोहम्मद जवाद हर साल कुछ सप्ताह पाकिस्तान में बिताते हैं तथा ऐसे एसिड पीडि़तों की मुफ्त सर्जरी करते हैं। क्या सरहद के पार भी ऐसे जवाद हैं, जो इस चुनौती को स्वीकारेंगे ताकि महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार पर कुछ मरहम लगे।


लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Hindi News


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh