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तलाक पर नए कानून के खतरे

जागरण मेहमान कोना
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हाल में सरकार ने हिंदू विवाह कानून, 1955 में संशोधन की मंजूरी दी है, जिसका मकसद विशेष परिस्थितियों में तलाक प्रक्रिया को और अधिक आसान बनाना है। इससे हिंदुओं में तलाक लेने की कानूनी प्रक्रिया अब आसान हो जाएगी और शादी के बाद खरीदी गई पति की संपत्ति में महिला का हिस्सा तय होगा। प्रस्तावित विवाह कानून (संशोधन) विधेयक-2010 में वैवाहिक संबंधों के पूरी तरह टूटने को भी तलाक लेने के आधारों में शमिल किया गया है। इस प्रावधान के तहत अदालत तलाक की अर्जी पर तुरंत विचार कर सकती है। मौजूदा व्यवस्था के अनुसार आपसी सहमति वाले तलाक के मामलों में अदालत दंपत्ति को छह से 18 महीने का समय पुनर्विचार के लिए देती है, लेकिन अब अवधि की यह बाध्यता खत्म हो जाएगी। तलाक संबंधी सुनवाई के दौरान जज को यदि लगता है कि शादी बचाना मुश्किल है तो वह तलाक का फैसला तुरंत सुना सकता है। मौजूदा व्यवस्था के तहत शादी के बाद खरीदी गई संपत्ति में महिला का हक नहीं होता, परंतु अब महिला को भी हक दिया गया है। वैवाहिक संपत्ति में पत्नी की हिस्सेदारी एक सकारात्मक कदम जरूर है, मगर यह आधा-अधूरा है। क्योंकि हिस्सेदारी कितनी होगी यह अदालत में तय होगा। बेहतर होता कि इसे कानून का हिस्सा बना दिया जाता ताकि हिस्सेदारी पर पुन: मुकदमेबाजी से बचा जा सकता। इसके अलावा पत्नी को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह बेहद बिगड़ चुके दांपत्य जीवन का हवाला देकर तलाक मांग सकती है, जिस पर पुरुष विरोध नहीं कर सकेगा जबकि महिलाओं को विरोध करने का अधिकार होगा।


विवाह कानून में अहम सुधार


केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हिंदू विवाह कानून में जिन संशोधनों को मंजूरी दी है उस पर संसद में बहस होना है। गौरतलब है कि विधि आयोग ने अपनी 217वीं रिपोर्ट में किसी गलती के बिना तलाक करने के पक्ष में राय व्यक्त की थी। इसके तहत तलाक के इच्छुक किसी भी पक्षकार को तलाक पाने के लिए यह नहीं साबित करना होगा कि दूसरे पक्षकार ने व्यभिचार, क्रूरता या छोड़ने अथवा भागने जैसा कोई अपराध किया है। सरकारी राय में यह प्रावधान ऐसे लोगों के लिए मददगार साबित होगा जिनकी शादी टूट चुकी है और तलाक पाने के लिए अदालत में फंसे हुए हैं। तलाक की प्रक्रिया चटपट होनी चाहिए और ऐसे मामलों पर तलाक की अर्जी पर विचार करने वाली न्यूनतम छह माह की अवधि वाली शर्त भी लागू नहीं होनी चाहिए, लेकिन महिला संगठनों ने इस पर अपनी सख्त आपत्ति जताई है। दरअसल, सरकारी मसौदे में महिला संगठनों के पक्ष को ज्यादा तरजीह दी गई है। महिला संगठनों ने इस बिल के प्रावधानों को लेकर अपना विरोध दर्ज कराया था और सरकार से मांग की थी कि ऐसा कदम उठाने से पहले अपने यहां वैवाहिक कानूनों में वैवाहिक संपत्ति का विभाजन वाले प्रावधान को डाला जाए। ऐसा इसलिए, क्योंकि अपने देश में महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक हैसियत पुरुषों की तुलना में बहुत कमजोर है और संपत्ति के बंटवारे में भी उनके साथ न्याय नहीं होता। ऐसे में अधिकांश महिलाएं जिनके पास स्वतंत्र आर्थिक संसाधन नहीं होते वे पति से अलग रहने की स्थिति में या तलाक के बाद बेसहारा हो जाती हैं और रहने के लिए उनका घर भी छिन जाता है।


दिल्ली स्थित इकोनॉमिक रिसर्च फाउंडेशन के एक अध्ययन से पता चलता है कि जिन औरतों को पति से अलग होना पड़ता है, उनमें से 80 फीसदी महिलाओं के पास रहने के लिए घर तक नहीं होता और बच्चे भी उनके साथ ही होते हैं। वैसे ऐसी महिलाओं की आर्थिक मदद के लिए गुजारा भत्ता कानून है। पर हकीकत में गुजारा भत्ता की अपील करने वाली कुल महिलाओं में से सिर्फ 20 फीसदी को ही यह मिल पाता है। यह रकम भी नाममात्र की होती है। अगर औरत कामकाजी है तो यह भी नहीं मिलता। ऐसी बहुसंख्यक कमजोर आर्थिक हैसियत वाली महिलाओं को वैवाहिक संपत्ति में कानूनी अधिकार दिए बिना तलाक को इस तरह आसान बनाने से उनकी और उन पर आश्रित बच्चों की दिक्कतें बढ़ेंगी। महिला संगठनों और राष्ट्रीय महिला आयोग की मांग है कि परिवार की संपत्ति में पति-पत्नी दोनों की बराबर की हिस्सेदारी हो। इस दायरे में सिर्फ मकान ही नहीं, बल्कि कार, स्कूटर, फर्नीचर भी शमिल हो। बहुत से पश्चिमी देशों ने अपने वैवाहिक कानूनों में ऐसे प्रावधानों को जोड़ा है। हर वह देश जहां अपरिहार्य कारणों से टूट चुकी शादी को तलाक का कानूनी आधार मान लिया गया है, वहां वैवाहिक संपत्ति का विभाजन वाले नियम को भी जोड़ा गया है। स्वाभाविक है कि ऐसे प्रावधान के बिना अपरिहार्य कारणों से टूट चुकी शादी वाला प्रावधान घरेलू व कामकाजी दोनों महिलाओं के लिए संकट पैदा करता।


अमेरिका सहित दुनिया के जिन देशों में यह प्रावधान है वहां इसके शमिल किए जाने पर काफी बहसें हुई हैं और उसके बाद संपत्ति के विभाजन का आदेश दिया गया। अमेरिका के कुछ राज्यों में इस आधार पर तलाक होने के बाद दंपति के बीच सब कुछ बराबर बांट दिया जाता है, लेकिन भारत में तो मौजूदा कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। लिहाजा महिला संगठनों ने सरकार पर प्रस्तावित संशोधन बिल में वैवाहिक संपत्ति का विभाजन वाले प्रावधान को भी जोड़ने का दबाव बनाया। यह पहली बार हुआ कि ऐसी अनुशंसा को सरकारी व्याख्यान में जगह मिली और इसे इस मुददे के लिए लंबे समय से अभियान छेड़ने वाले महिला संगठनों की जीत के रूप में भी लिया गया। अब सरकार ने भी विवाह कानून(संशोधन) विधेयक-2010 में शादी के बाद खरीदी गई पति की संपत्ति में पत्नी के अधिकार वाला प्रावधान जोड़ लिया है। गौरतलब है कि कांग्रेस सांसद जंयती नटराजन की अध्यक्षता वाली समिति के पैनल ने सरकार से शादी टूटने के अपरिहार्य कारणों को भी अच्छी तरह से परिभाषित करने को कहा। समिति की राय है कि अपरिहार्य कारणों वाले तलाक के मामलों में भी तलाक की अर्जी पर विचार से पहले पति-पत्नी को दिए जाने वाले न्यूनतम छह माह के इंतजार के समय को बरकरार रखा जाए। पर सरकार ने इस मुददे को अदालत पर छोड़ दिया है।


दरअसल सरकार ने कानून एवं क्त्रामिक संबंधी संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों के आधार पर विधेयक का जो मसौदा तैयार किया, उसमें सिफारिशों को जस का तस नहीं माना गया है, बल्कि इसे जजों के विवेक पर फैसला छोड़ दिया है। बहरहाल, इस विधेयक के तहत सिर्फ पत्नी को ही बेहद बिगड़ चुके दांपत्य जीवन का हवाला देकर तलाक की मांग करने वाले अधिकार को पुरुषों के साथ नाइंसाफी माना जा रहा है। मगर महिला संगठन इस आरोप को खारिज करते हैं और उनकी दलील है कि अगर पुरुषों को भी यह अधिकार मिलता है तो पुरुषों की ओर झुके हुए कानूनों में तत्काल मिलने वाले इस लाभ का भी दुरुपयोग होगा और इससे महिलाओं की स्थिति और बदतर हो जाएगी। अब देखना यह है कि संसद में यह विधेयक कब व किस रूप में पारित किया जाता है।


लेखिका अलका आर्य स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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