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सैन्य प्रमुख जनरल वीके सिंह द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे गोपनीय पत्र के खुलासे का विवाद कटु होता जा रहा है, जैसाकि संसद में हुए बवाल से स्पष्ट हो जाता है। इस मसले को उच्च स्तरीय विचार-विमर्श में निपटाया जाना जरूरी है अन्यथा इसके बेहद गंभीर निहितार्थ होंगे, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए घातक होंगे। यह बताए जाने की आवश्यकता नहीं है कि इस प्रकरण में जो मुद्दे उठाए गए हैं वे सरकार, संसद, सिविल सोसाइटी और मीडिया का ध्यान खींचेंगे। इस विवाद की जड़ में सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को भेजा गया पत्र है, जिसमें सेना में हथियार, गोलाबारूद और अन्य उपकरणों की कमी और किसी युद्ध से निपटने में सेना की आधी-अधूरी तैयारियों को लेकर चेताया गया है। इसके अलावा पत्र में भारतीय सैन्य तंत्र में बदहाली पर रोष भी प्रकट किया गया है। इस पत्र के खुलासे का समय मनमोहन सिंह के लिए शर्मिदगी का कारण बन गया है, क्योंकि इस दौरान वह ब्रिक्स देशों के नेताओं की मेहमाननवाजी में लगे थे। इन मेहमानों में चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ भी शामिल हैं। चीन एक ऐसा देश है जो भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए गहरी चिंता का सबब बना हुआ है। यह भाव जनरल के पत्र में भी अंकित है, किंतु लोकतंत्र का अपनी लय-ताल होती है।
संसद में इस मसले पर हुई आक्रामक बहस और सिविल-सेना संबंध मीडिया में छाना भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन के संकेतक हैं। वर्तमान विवाद में तीन मुद्दों पर प्रकाश डालना जरूरी है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि किस तरह सेना प्रमुख द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा गया गोपनीय पत्र सार्वजनिक हुआ। साफ है कि पत्र प्रेषक और पाने वाले के बीच की कड़ी में कोई न कोई ऐसा पक्ष जरूर है जिसने जानबूझकर पत्र को लीक किया। यह राष्ट्रीय सुरक्षा पर गंभीर घात है और जल्द से जल्द इसके दोषी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। सेना प्रमुख और रक्षामंत्री, दोनों ने ही इस कृत्य की निंदा की है। अब देखना है कि जांच में क्या निकलता है? इंटेलीजेंस ब्यूरो को जांच के निर्देश दे दिए गए हैं और जनरल सिंह ने इसे राष्ट्रद्रोह करार दिया है। दूसरा मुद्दा है पत्र की विषयवस्तु। यह ध्यान देने की बात है कि सेनाध्यक्ष ने पत्र में जो चिंता और रोष प्रकट किया है वह भारतीय सुरक्षा बहस से जुड़े विशेषज्ञों के लिए नई बात नहीं है। यह दुखद सच्चाई है जो राजीव गांधी युग यानी 1990 के बाद से देखने को मिल रही है। भारतीय सेना में आधुनिकीकरण और पुराने साजोसामान के स्थान पर नए जुटाने की गति बेहद धीमी है। सैन्य प्रतिष्ठान में भारी खाई है। इस संबंध में शर्मसार करने वाला उदाहरण यह है कि सरकार बोफोर्स तोप विवाद के साये से नहीं निकल पा रही है और बोफोर्स के बाद से सरकार ने नई तोपों की कोई खरीद नहीं की है। इन दो दशकों में भारत की देश में ही सैन्य उपकरण उत्पादन की क्षमता कुंद हुई है। रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां और डीआरडीओ भारतीय सेना की परिचालन की आवश्यकताओं के अनुरूप साजोसामान की आपूर्ति नहीं कर रही हैं।
भारत में सैन्य साजोसामान की कमी तब और अखरती है जब यह तथ्य सामने आता है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है। खेद का विषय है कि पिछले दो दशकों में इस मुद्दे पर संसद में कोई चर्चा नहीं हुई। सरकार कार्यबल का गठन कर खानापूर्ति कर देती है, जबकि इन कार्यबलों की महत्वपूर्ण सिफारिशों को कभी लागू नहीं किया जाता। यहां तक कि इन मुद्दों को जनता के सामने भी नहीं लाया जाता। भारत लगातार हथियारों और उपकरणों की खरीद कर रहा है और भारतीय सेना के सर्वोच्च अधिकारी को खरीद के निर्णायक सांचे से अलग रखा जा रहा है। इसके बेहद अवांछित दुष्परिणाम सामने आए हैं। वर्तमान विवाद इसी व्यवस्था का नतीजा है। सरकार-सेना के संबंध बिगड़ रहे हैं। भारतीय राजनीतिक तबके का फौज के साथ कोई सीधा संबंध नहीं है। फौज संबंधी मसलों में सिविल सेवा प्रमुख भूमिका निभाती है। अधिकांश सैन्य सौदों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। बोफोर्स घोटाले से लेकर वर्तमान घोटालों तक सार यह है कि भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया और नेता-नौकरशाह गठजोड़ सैन्य खरीद में भ्रष्टाचार फैलने का बड़ा कारण है। इसी से जुड़ा है वर्तमान विवाद का तीसरा पहलू-बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार के आरोपों पर सरकार का रवैया। चाहे जनरल तेजिंदर सिंह और सुहाग के खिलाफ आरोपों का मामला हो या फिर भ्रष्टाचार के आरोपों के अन्य मसले, आज भारतीय सत्ता में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की इच्छाशक्ति ही नजर नहीं आती।
जनरल वीके सिंह प्रक्रिया उल्लंघन के दोषी भले ही ठहराए जाएं, जैसे आयु विवाद के मसले पर सुप्रीम कोर्ट जाना और मीडिया से बातचीत करना, उनकी कार्रवाई से छाए काले बादलों में उम्मीद की किरण चमक रही है। उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार, सिविल-सैन्य संबंध, सैन्य साजोसामान की कमी और खुलासों की संस्कृति आदि महत्वपूर्ण मुद्दों की निश्चित समयसीमा में गहन पड़ताल की आवश्यकता है। ब्रिक्स सम्मेलन और रक्षा प्रदर्शनी यानी डिफेंस एक्सपो वह पृष्ठभूमि उपलब्ध कराते हैं जो भारत की छवि और यथार्थ के बीच की खाई पाटने की जरूरत पर जोर देती है। सैन्य प्रमुख, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों की संस्थागत ईमानदारी बेहद पवित्र अवधारणा है। इसकी हर सूरत में रक्षा की जानी चाहिए।
लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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