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जनरल की पहली जीत

जागरण मेहमान कोना
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सेना प्रमुख की उम्र के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के रुख से सरकार के लिए कठिन स्थिति उत्पन्न होते देख रहे हैं सी. उदयभाष्कर


सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह की उम्र संबंधी विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को सुनवाई के दौरान जैसे सवाल उठाए उससे सरकार के लिए एक कठिन स्थिति उत्पन्न हो गई है। शीर्ष अदालत में जनरल वीके सिंह के खिलाफ रक्षा मंत्रालय सरकार की लड़ाई लड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह यह कहा कि इस मामले में सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया नैसर्गिक न्याय के नियमों का उल्लंघन है उसे एक सख्त टिप्पणी ही कहा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जिस तरीके से सेना प्रमुख की जन्मतिथि 10 मई 1950 निर्धारित की गई वह दुर्भावना से ग्रस्त नजर आता है। अदालत ने यह भी पूछा कि 30 दिसंबर को जारी किया गया रक्षा मंत्रालय का वह आदेश क्या वापस लिया जाएगा जिसके तहत जन्मतिथि पर जनरल की याचिका खारिज की गई थी अथवा सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज कर देगा। इस मामले में अगली सुनवाई दस फरवरी को होनी है। जाहिर है, सरकार के पास इस मामले में अपनी स्थिति सुधारने और जनरल को उनकी इच्छा के मुताबिक समाधान उपलब्ध कराने के लिए चार-पांच दिन का ही समय बचा है।


जब हम इस पूरे मामले पर निगाह डालते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि देश के उच्चतम रक्षा प्रबंधन में कितनी गहरी खामी आ चुकी है कि एक सेवारत सैन्य प्रमुख को न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। एक स्तर पर यह पूरा मामला प्रक्रियागत खामी का नजर आता है, जिसमें विवाद जनरल वीके सिंह की उम्र के निर्धारण का है। वीके सिंह राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में 1966 में शामिल हुए थे। सेना मुख्यालय की दो अलग-अलग शाखाओं-एडजुटेंट जनरल और सैन्य सचिव ने उनकी अलग-अलग जन्मतिथि दर्ज की है। यह साफ है कि पहली गलती सेना में ही हुई और यह लगभग तीस वर्षो तक दबी पड़ी रही। इन दोनों शाखाओं ने सैन्य अधिकारी की जो जन्मतिथि दर्ज कर रखी थी उसमें पूरे एक वर्ष का अंतर था। फिर यह मामला अचानक संदिग्ध नजर आने लगा कि किस तरह सेना मुख्यालय ने उनके जन्म का वर्ष 1951 के बजाय 1950 मान लिया। यह सब तब किया गया जब वीके सिंह को प्रोन्नत किया जाना था। इस मामले में अलग-अलग विचार लोगों के सामने रखे गए हैं। एक दलील यह दी गई है कि प्रोन्नति के समय तत्कालीन जनरल दीपक कपूर ने वीके सिंह को अपने जन्म का वर्ष 1950 मानने के लिए राजी कर लिया था। विवाद नए सिरे से उभरने के बाद यह मामला सबसे पहले मई 2011 में रक्षा मंत्रालय को सौंपा गया और तब तक वीके सिंह सेना प्रमुख के पद पर पहुंच चुके थे।


अब यह स्पष्ट है कि अनेक महीनों तक रक्षा मंत्रालय ने इस मामले को सही तरह सुलझाने के लिए कुछ नहीं किया। मजबूर होकर ही जनरल वीके सिंह को पिछले महीने के मध्य में सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि मूल गलती सेना के अपने ढांचे में ही हुई, लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि इस मामले ने इसलिए इतना जटिल रूप लिया, क्योंकि रक्षा मंत्रालय ने समस्या का समाधान निकालने की दिशा में सही तरह प्रयास नहीं किया। मीडिया में इस मामले के सबसे ताजे रहस्योद्घाटन में यह कहा गया है कि सेना मुख्यालय की सैन्य सचिव शाखा ने अपने एक पत्र में इसका जिक्र किया था कि सितंबर 1996 में जब वीके सिंह को ब्रिगेडियर की रैंक में प्रोन्नति देने पर विचार किया जा रहा था तब रक्षा मंत्रालय को उनकी जो जन्मतिथि बताई गई थी वह मई 1951 थी और उसमें बाद की एक एंट्री के जरिए वर्ष 1950 किया गया। वर्ष में इस बदलाव के कारणों ने हाल के हफ्तों में गहन चर्चाओं को जन्म दिया है और एक विचार यह है कि यह काम वीके सिंह के पूर्ववर्तियों ने यह सुनिश्चित करने के लिए किया कि उत्तराधिकार की श्रृंखला कतिपय अधिकारियों के पक्ष में बनी रहे। चूंकि सेना प्रमुख के चयन का काम आम तौर पर वरिष्ठता के आधार पर किया जाता है इसलिए सेना प्रमुख की सेवानिवृत्ति में एक साल के अंतर का अगले उम्मीदवार के चयन पर असर पड़ता।


अगर वाकई यह सत्य है तो जनरल वीके सिंह के पहले के सेना प्रमुखों और रक्षा मंत्रालय के संबंधित नौकरशाहों की भूमिका की सघन जांच होनी चाहिए। यह संभव है कि सुप्रीम कोर्ट ने गत दिवस जो आदेश दिया है उससे इस मामले के धुंधले पक्ष पर कुछ रोशनी पड़ सके। सबसे अधिक निराशाजनक यह है कि जनरल वीके सिंह को निशाना बनाया जा रहा है और सिर्फ इसलिए, क्योंकि वह एक सीधे-सरल और ईमानदार अधिकारी हैं, जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया था। आदर्श बिल्डिंग घोटाला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कुल मिलाकर इस मामले पर लोगों की यह धारणा बन रही है कि संप्रग सरकार योग्यता और ईमानदारी को सम्मानित अथवा पुरस्कृत नहीं करती और जनरल वीके सिंह अपने इन्हीं गुणों की कीमत चुका रहे हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति में धारणाएं महत्वपूर्ण होती हैं और हाल के वर्षो में अपने देश में इस बात को लेकर निराशा और वेदना के भाव गहराते जा रहे हैं कि संस्थानों की गरिमा घटती जा रही है और उनसे जिस ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है वह नजर नहीं आ रही है।


भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, पुलिस अधिकारियों और निचली अदालतों के कतिपय भ्रष्ट तत्वों के बीच साठगांठ का अलग-अलग क्षेत्रों के माफिया भरपूर लाभ उठा रहे हैं। भ्रष्टाचार के इस कैंसर ने भारतीय राजनीति को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। बड़े पैमाने पर होने वाला भ्रष्टाचार और सरकार में उच्च स्तर पर शामिल लोगों की इसमें भूमिका 2जी स्पेक्ट्रम और इसरो घोटाले के रूप में अब हमारे सामने है। यह चिंताजनक है कि भारत में शासन की गुणवत्ता बहुत तेजी से गिरती जा रही है और यह एक देश के लिए अशुभ लक्षण है जो अपने देश के नागरिकों को समान तथा समावेशी संपन्नता प्रदान करने का लक्ष्य हासिल करना चाहता है और इसके साथ ही अपना क्षेत्रीय और वैश्विक महत्व बढ़ाना चाहता है। सेना प्रमुख की उम्र का विवाद एक प्रक्रियागत भूल के रूप में उभरा था, लेकिन अब यह रक्षा मंत्री के कार्यालय और साथ ही सेना प्रमुख की संस्थागत विश्वसनीयता का सवाल बन गया है। अगर अंत में यह निष्कर्ष निकलता है कि यह मामला महज दुर्घटनावश घटी गलती के कारण नहीं उपजा, बल्कि इसे जानबूझकर अंजाम दिया गया तो इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के पूरे ढ़ांचे  को क्षति पहुंचना तय है।


लेखक सी. उदयभाष्कर रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं


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