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दो जनरलों की कहानी

जागरण मेहमान कोना
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पाकिस्तान की तरह भारत के भी सेना प्रमुख के विवाद में घिरने को दुर्भाग्यपूर्ण मान रहे हैं कुलदीप नैयर


भारत के साथ-साथ पाकिस्तान के सेना प्रमुख खबरों में हैं। वजहें अलग-अलग जरूर हैं। दोनों के मामलों में संबंधित देश का सुप्रीम कोर्ट मध्यस्थ की भूमिका में है। भारत के सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह का दावा है कि उनका जन्म 1950 में हुआ था, जबकि रक्षा मंत्रालय ने उनके जन्म का साल 1951 दर्ज कर रखा है। अगर सरकार अपने रिकार्ड में दर्ज तिथि पर अड़ी रहती है तो जनरल सिंह को इस साल मई में रिटायर होना पड़ेगा। इस तरह उन्हें अपने दावे की तारीख से दस महीना पहले रिटायर होना पड़ेगा। इसका विरोध जनरल सिंह ने खुद नहीं किया है, लेकिन सेना के कुछ रिटायर्ड वरिष्ठ अफसरों ने इसे सम्मान का सवाल बना दिया है। परिणाम यह हुआ कि जनरल सिंह ने अपनी बात सही साबित करने के लिए सरकार के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी।


पाकिस्तान में आरोप लगाया गया है कि वहां की सेना तख्तापलट पर विचार कर रही थी। इस मामले में वहां के सेना प्रमुख जनरल परवेज कयानी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट ने नौ जजों की एक कमेटी बनाकर उसे इस आरोप की जांच करने को कहा है। ‘मेमोगेट’ कहे जाने वाले इस मामले का खुलासा कुछ माह पहले हुआ था जब कथित तौर पर अमेरिका को यह संदेश भिजवाया गया कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी को अमेरिका की मदद की जरूरत है, क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि सेना सत्ता अपने हाथ में ले सकती है। मामले के सार्वजनिक होते ही जनरल कयानी बेहद गुस्से में आ गए। कयानी के खिलाफ यह आरोप उचित नहीं था। देश तो पहले से ही सेना के नियंत्रण में है। ऐसे में कयानी सत्ता सत्ता पलट की कोशिश क्यों करते?


यह तर्क बिल्कुल बेहूदा है कि जांच आयोग का गठन कर सुप्रीम कोर्ट सेना के आगे झुक गया। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी के खिलाफ आरोप लगाना निरर्थक है। जब जनरल परवेज मुशर्रफ सेना के प्रमुख थे तो उन्होंने उनके हाथों काफी तकलीफ झेली। चौधरी और उनके परिवार को एक कमरे में बंद कर दिया गया और तरह-तरह से सताया गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनकी ईमानदारी पर शक करना न तो जायज है और न ही सही। संभव है कि अमेरिका में पाकिस्तानी राजनयिक हक्कानी अपने संदेश के जरिए राजनीति कर रहे हों, लेकिन हक्कानी ऐसा पहली बार नहीं कर रहे। उनके कॅरियर पर नजर डालने से पता चलता है कि वह समय के साथ अपना रंग बदल लेते हैं। हकीकत तो यह है कि मामले की तह में जाने के लिए सुप्रीम और हाईकोर्ट के जजों की कमेटी बनाना एकमात्र रास्ता था। पाकिस्तान में और कोई संस्था नहीं है, जिस पर भरोसा किया जा सके।


पाकिस्तान में सेना प्रमुख की जन्मतिथि को लेकर विवाद खड़ा नहीं हो सकता, क्योंकि पाकिस्तान की स्थिति भारत से बिल्कुल अलग है। फिर भी अगर जनरल सिंह और रक्षा मंत्रालय मामले को सही तरीके से निपटाते तो जनरल सिंह के दावे को लेकर जो फजीहत हुई है उससे बचा जा सकता था। जनरल कयानी का हंगामा खड़ा करना मैं समझ सकता हूं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्होंने जो नहीं किया है उसका दोष उन पर मढ़ा जा रहा है, लेकिन जनरल सिंह अपनी जन्मतिथि को लेकर बवाल क्यों खड़ा कर रहे हैं, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। उनके और रक्षा मंत्रालय के बीच का यह विवाद तो वर्षो पहले सुलझ गया था। सच्चाई यह है कि जब चार वर्ष पहले उन्हें पूर्वी क्षेत्र का कमांडर और दो वर्ष पहले सेना प्रमुख बनाया गया था, उसी वक्त इस मसले को लेकर रक्षामंत्रालय के साथ उनके विवाद का ‘समाधान’ हो गया था। उन्होंने रक्षा मंत्रालय को खुद लिखकर दिया था कि यह विवाद अब समाप्त हो गया है। अच्छा हो या बुरा, जनरल सिंह को उस वक्त हुए निर्णय को मानना चाहिए था, लेकिन उन्होंने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश से विचार विमर्श किया या फिर अदालत की तरह आयोजित होने वाले टीवी शो में शामिल होने वाले लोगों को अपने पक्ष में जानकारियां दीं। जनरल सिंह का यह कार्य बिल्कुल गलत हैं। इसे अवज्ञापूर्ण कार्रवाई माना जाना चाहिए। मैंने सुना है कि कुछ रिटायर्ड बड़े अधिकारी इसे सिविल और मिलिट्री के बीच का विवाद बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसी गैर-जिम्मेदाराना बातों को अगर लोकतांत्रिक प्रणाली में इजाजत भी है तो यह अपनी राज्य व्यवस्था के चरित्र को चुनौती देने के बराबर हैं।


अगर जनरल सिंह की जन्मतिथि पर रक्षा मंत्रालय का निर्णय उन्हें या उनके कुछ महत्वाकांक्षी समर्थकों को पसंद नहीं होता है तो अंतिम फैसला चुनी हुई सरकार ही करेगी। मैं निराश हूं कि इस मामले में कुछ रिटायर्ड वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों पर सैन्यवाद हावी हो रहा है। मीडिया को भी इस मसले को गंभीरता के साथ लेना चाहिए। कयानी के मामले में पाकिस्तानी मीडिया ने संयम और जवाबदेही के साथ काम किया है। जनरल सिंह के मामले में समझौतावादी फार्मूले की पैरोकारी भी गलत है। उन्हें चीफ ऑफ ज्वाइंट स्टाफ बनाने के प्रस्ताव से ऐसा लगता है जैसे कोई दो पक्षों के बीच का मामला हो और ऐसी सहमति बनानी हो कि दोनों में से किसी की हार नहीं हो। इस बात को नहीं समझा जा रहा कि लोकतंत्र में सिर्फ एक पक्ष है और यह पक्ष जनता है। लोकतंत्र में जनता की आवाज को सीमित करने वाले किसी समझौते को स्वीकार नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान और भारत के सेना प्रमुखों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। कयानी सरकार के खिलाफ लगाए गए आरोपों के बावजूद बच निकल सकते हैं और राष्ट्रपति जरदारी को यह कहने की इजाजत दे सकते हैं कि वह सुप्रीम हैं, लेकिन जनरल वीके सिंह ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार सुप्रीम है। विवाद शुरू करने के पहले ही उन्हें इसकी समझ होनी चाहिए थी।


लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं


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