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जनता के हक पर मुहर

जागरण मेहमान कोना
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सुप्रीम कोर्ट ने 4-5 जून, 2011 की रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई पुलिस कार्रवाई पर ऐतिहासिक फैसला दिया है। रामलीला मैदान में बाबा रामदेव अपने समर्थकों के साथ भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्ण था। वैकल्पिक विचार रखना और इनकी स्वीकार्यता के लिए प्रदर्शन करना लोकतंत्र का मूल है। दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह का इस्तेमाल शुरू किया था। सत्याग्रह का सार अहिंसा के साथ-साथ विरोध भी था। इसकी शक्ति सत्य में निहित है और क्षमता संघर्ष में। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में शांतिपूर्ण प्रदर्शन को संवैधानिक अधिकार माना है। अदालत ने अपने फैसले में बिल्कुल सही कहा है, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, हक के लिए इकट्ठा होना और धरने के माध्यम से प्रदर्शन करना लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल पहलू है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लोगों को सरकार के फैसलों के खिलाफ आवाज उठाना या किसी भी सामाजिक अथवा राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करने का अधिकार है। सरकार को ऐसे अधिकारों के लिए आवाज उठाने वालों का सम्मान करना चाहिए और उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। यह सरकार का कर्तव्य है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के भाव का मान रखे, न कि अपनी कार्यपालिका या विधायिका शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उनका दमन न करे।’


हालिया अनुभवों से पता चलता है कि राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए पुलिस बल प्रयोग का इस्तेमाल करता है। टीम अन्ना को विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली के केंद्र में स्थान हासिल करने में परेशानियों का सामना करना पड़ा है। विरोध का आकार छोटा रखने के लिए पुलिस की शक्तियों का इस्तेमाल किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की इस प्रकार की हरकतों का संज्ञान लिया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पढ़ने से पुष्टि हो जाती है कि बाबा रामदेव और उनके समर्थकों का प्रदर्शन बिल्कुल शांतिपूर्ण था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, ‘बाबा रामदेव के समर्थक शांतिपूर्ण ढंग से लाइनों में खड़े थे, जो दो किलोमीटर तक लंबी थी। अगर पुलिस समर्थकों की संख्या पांच हजार तक सीमित रखना चाहती थी तो वह आसानी से समर्थकों को गेट पर ही रोक सकती थी। पुलिस द्वारा इस प्रकार का कोई प्रयास नहीं किया गया। पुलिस के आचरण से संकेत मिलता है कि उसे सरकार की तरफ से निर्देश मिले थे।’ अदालत ने कहा कि परिस्थितियों से यह नहीं लगता कि नियमों का उल्लंघन किया गया था इसलिए पुलिस द्वारा दी गई अनुमति को वापस लेने का कोई कारण नजर नहीं आता। विद्यमान परिस्थितियों में धारा 144 लागू करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।


4-5 जून, 2011 की रात को क्या हुआ था, यह अदालत के अंतिम निर्देश से स्पष्ट हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, ‘गृह मंत्रालय से सलाह के बाद या फिर दिल्ली पुलिस का खुद ही रामलीला मैदान में सो रहे लोगों को जबरन हटाने का लिया गया फैसला बिल्कुल अनुचित था और इसमें कुछ हद तक निरंकुशता तथा शक्ति का दुरुपयोग हुआ है..सरकार की कार्रवाई राज्य की ताकत का गलत प्रदर्शन है और यह हमारे मूल लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है। कोर्ट के समक्ष जो साक्ष्य और परिस्थितियां हैं, उनसे स्पष्ट है कि रामलीला मैदान में इमरजेंसी के हालात नहीं थे।’ कोर्ट ने आगे कहा कि अगर सरकार मैदान को खाली भी कराना चाहती थी तो प्रदर्शनकारियों को उचित नोटिस देना चाहिए था। इसके विपरीत सरकार ने गलत तरीके से पुलिस बल का इस्तेमाल किया, पानी की बौछार की, लाठी चार्ज किया और आंसू गैस के गोले छोड़े। इस कारण अनेक लोग जख्मी हुए और एक की मौत हो गई।


सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश से जनता के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा की। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की और राजनीतिक व्यवस्था में शांतिपूर्ण विरोध की अभिव्यक्ति पर मुहर लगाई। कोर्ट की यह व्यवस्था विरोध के अधिकार की सुरक्षा की पुष्टि करता है और इस बात पर मुहर लगाई है कि लोकतंत्र और विरोध में सहअस्तित्व है। इस फैसले के लिए कोर्ट सराहना का पात्र है। हालांकि, इसके बाद फैसला विचित्र मोड़ ले लेता है। यह कानूनी व्यवस्था के पालन का दायित्व प्रदर्शनकारियों पर थोप देता है। इस मामले में न तो धारा 144 लागू किया जाना और न ही प्रदर्शन की अनुमति वापस लिया जाना कानूनसम्मत था। प्रदर्शनकारी इस प्रकार के आदेश को क्यों स्वीकार करें। उन प्रदर्शनकारियों पर किस प्रकार लापरवाही में सहभागिता का सिद्धांत थोपा जा सकता है, जो अपने मूल अधिकार के लिए प्रदर्शन कर रहे थे? इस सिद्धांत का इस्तेमाल मौलिक अधिकारों को हलका करने में नहीं किया जा सकता। मौलिक अधिकारों के हनन में इस सिद्धांत को लागू करना पूरी तरह अनुचित है।


भारत ने शांतिपूर्ण संघर्ष के माध्यम से स्वतंत्रता हासिल की। असहयोग आंदोलन, नागरिक अवज्ञा और सत्याग्रह भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के जाने-माने औजार थे। उन्होंने शांतिपूर्ण और अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता चुना था। सत्याग्रह ऐसा औजार है, जिसमें सत्य के लिए संघर्ष किया जाता है। एक सत्याग्रही दमनकारी सत्ता के विरोध में कानून के उल्लंघन का दंड खुद भोगता है। सत्याग्रही के अधिकार को लापरवाही में सहभागिता के समान मानना लाभ को गंवा देता है। अगर एक प्रदर्शनकारी संवैधानिक अधिकारों के दायरे में शांतिपूर्ण विरोध करता है तो प्रदर्शन न करने के गैरकानूनी आदेश को स्वीकार न करके वह अपने अधिकार का पालन करता है। वह जोखिम उठाता है कि अगर आदेश कानूनी हुआ तो उसे दंडित किया जा सकता है, किंतु जब प्रदर्शनकारी धारा 144 का उल्लंघन करता है तो वह हमेशा दंड को स्वीकार करता है। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था से बने कानून के अनुसार जब भी विरोध के उसके मौलिक अधिकार में सरकार दखलंदाजी करेगी उसे तुरंत आदेश का पालन करना होगा, अन्यथा उसे लापरवाही में सहभागिता का दोषी ठहरा दिया जाएगा। अगर राज्य किसी व्यक्ति के विरोध के अधिकार पर प्रतिबंध लगाता है तो महज इस कारण उसे मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।


लेखक अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं


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