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भारतीय जनता पार्टी के स्थापना दिवस पर अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि उनकी पार्टी विधायक और सांसद बनाने की मशीन नहीं है। किसी पार्टी के अध्यक्ष का यह वक्तव्य उसके निष्ठावान कार्यकर्ताओं को अवश्य रास आएगा, लेकिन क्या भाजपा वाकई आज ऐसी पार्टी रह गई है, जिसमें उसके निष्ठावान कार्यकर्ता अध्यक्ष के ऐसे वक्तव्य से उत्साहित हो सकें? दिल्ली महानगर पालिका का चुनाव होने वाला है। आप जरा भाजपा के प्रदेश कार्यालय चले जाइए, आपको दिन भर में दो-चार बार ऐसे दृश्य दिख जाएंगे, जिसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। टिकट न मिलने से विद्रोह कांग्रेस में भी है, लेकिन जिस तरह अपने नेताओं के खिलाफ हमले और अशोभनीय शब्दों का प्रयोग भाजपा के अंदर देखने-सुनने को मिल रहा है, वैसा कांग्रेस में नहीं है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पार्टी से नेताओं को निकालने की घोषणा करते हैं तो निष्कासित नेता उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। कोई कहता है कि जब हम उन्हें अध्यक्ष मानते ही नहीं तो उनके निष्कासन को क्यों मानें। कोई कह रहा है कि इस समय पार्टी पर उनका कब्जा है, वे जो चाहें कर लें। कल हमारा भी समय आएगा, फिर हम करेंगे..। यह परिदृश्य अकेला उदाहरण नहीं है। कर्नाटक को देख लीजिए।
बीएस येद्दियुरप्पा के समर्थक दावा कर रहे हैं कि उनके साथ 120 विधायक हैं। अगर उन्हें पुन: मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो वे क्या करेंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं हैं। भाजपा नेतृत्व चाहे जिस मुगालते में हो, कोई ऐसी पार्टी के बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगा? लगता ही नहीं कि पार्टी अतीत की भूलों से कोई सीख भी लेने को तैयार है। हवाला कांड में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना का नाम आया तो उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया। आश्वासन यह था कि आरोप खत्म होते ही पुन: कुर्सी मिल जाएगी। आरोप खत्म हुआ, पर उन्हें मुख्यमंत्री पद पर पुनर्नियुक्त नहीं किया गया। वे पुराने जमाने के नेता थे, इसलिए उन्होंने विद्रोह का बिगुल नहीं बजाया। लेकिन दिल्ली में जिस नेता की तूती बोलती थी, वह श्रीहीन हो गया और पार्टी आज तक उस धक्के से नहीं उबरी। येद्दियुरप्पा ने खुद खुराना की तरह श्रीहीन होकर हाशिये पर जाने की बजाय विद्रोह की चेतावनी दे दी है, पर केंद्रीय नेतृत्व इसे समझते हुए भी केवल बयानबाजी तक सीमित है। अगर आप एक-एक प्रदेश का जायजा लें तो मंचों पर भूमिका में चेहरे अलग हैं। संदर्भ भी भिन्न हैं, पर ऐसे कुरूप आंतरिक द्वंद्वों में बिल्कुल समानता दिखाई देगी। विडंबना देखिए कि नेतृत्व के अंदर इनकी समग्र चिंता कर द्वंद्वों, विद्रोहों से उबारने के लिए काम करने की चाहत ही नहीं है। ऐसा लगता है, जैसे सबको केवल अपनी खाल बचाने की चिंता है और इसके लिए इनके पास श्रेष्ठतम रास्ता मीडिया द्वारा अपना विचार सार्वजनिक कर देना है।
किसी पार्टी के क्षरण का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि उसे किसी राज्य में यह निर्णय करना पड़े कि उसके विधायक राज्यसभा के चुनाव में भाग नहीं लेंगे। हालांकि बाद में पार्टी ने अपना निर्णय बदला, लेकिन उसके पीछे झारखंड प्रदेश सरकार के राजनीतिक समीकरण की मजबूरी ही प्रबल कारक था। राज्यसभा के एक धनपति उम्मीदवार द्वारा भाजपा नेतृत्व के विरुद्ध दिए गए बयान को उसकी हताशा मानी जा सकती है, पर पार्टी के लिए तो विचार का विषय यह होना चाहिए था कि आखिर उसे इस बात का ठोस अहसास हुआ कैसे कि राज्यसभा में भाजपा के विधायक उसके पक्ष में मतदान करेंगे? इसका कुछ तो आधार होगा। वह आधार पार्टी में सबको पता है। नेतागण यदि इस मूल प्रश्न पर विचार करने से बच रहे हैं तो उसका कारण केवल हमाम में सब नंगे वाली कहावत में ढूढ़ी जा सकती है। पार्टी के सक्रिय वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी राज्यसभा चुनाव में धनबल के विरुद्ध आवाज उठाकर और सुर्खियां पाकर शांत हो गए तो यशवंत सिन्हा चुनाव आयोग से सीबीआइ जांच कराने का आग्रह कर चुके हैं। नजर दौड़ाइए, दूसरी किसी पार्टी में ऐसी स्थिति दिखाई देती है? ऐसी पार्टी को क्या कहा जाएगा? सच तो यही है कि अलग राजनीतिक परिवर्तन के सपने से गठित भाजपा आज केवल चुनाव की ही पार्टी होकर रह गई है और इस कारण वह कहीं की नहीं रही। वह अंतद्र्वद्वों में फंसी ऐसी पार्टी है, जो सही ढंग की चुनावी मशीनरी भी नहीं बन सकी। संप्रग के अंतर्विरोधों पर भाजपा नेताओं की खिली बांछे देखकर ऐसा महसूस होता है मानो वे इस बात पर निश्चिंत हों कि बस केंद्र की सत्ता में अगली बारी उन्हीं की है। खुद आंतरिक द्वंद्वों में लगातार फंसती पार्टी के नेताओं का यह रवैया राजनीति पर नजर रखने वालों के लिए व्यंग्य का ही विषय है।
राज्यसभा चुनाव में भी भ्रष्टाचार
हाल के चुनावों का ही जायजा ले लीजिए। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम के अनुसार वाराणसी छोड़कर वह लोकसभा की सभी आठ सीटें भी हार चुकी है। पंजाब में अकाली दल की सीटें बढ़ीं, पर भाजपा की घट गई। उत्तराखंड में भी वह लोकसभा चुनाव में बहुत उम्मीद नहीं कर सकती। दो सीटों वाले गोवा से क्या होगा। कर्नाटक के चिकमंगलूर लोकसभा और बेल्लारी विधानसभा तथा गुजरात के मनसा विधानसभा उपचुनाव में हार का संकेत भी पार्टी को समझ नहीं आ रहा। गुजरात का विधानसभा चुनाव इसी वर्ष के अंत में होना है। भाजपा गुजरात को लेकर हालांकि आश्वस्त है और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मॉडल नेता के रूप में पेश करती है। गुजरात में कोई भी तटस्थ पर्यवेक्षक यह बता सकता है कि वहां भाजपा नहीं, नरेंद्र मोदी की ताकत बढ़ी है। जिस व्यक्ति को पार्टी भावी प्रधानमंत्री का एक उम्मीदवार मान रही है, उनकी जिद ऐसी कि पार्टी में सजय जोशी आएं तो वे चुनाव प्रचार में नहीं जाएंगे। संजय जोशी पार्टी में आकर क्या कर रहे हैं या पहले क्या करते थे? पार्टी संगठन का दायित्व वे पहले भी निभाते थे और वापसी के बाद भी उनकी मुख्य भूमिका संगठन और प्रबंधन की है। किसी निर्णय के पीछे यदि जोशी का निहित स्वार्थ हो तो विरोध समझ में आता है, लेकिन उसमें भी पार्टी के इतने बड़े व्यक्तित्व के जोशी या मैं वाले रवैये को आत्मविनाश के सिवा कोई नाम नहीं दिया जा सकता है। संजय जोशी ने यदि जिन्ना प्रकरण पर आडवाणी से त्यागपत्र लिया तो यह पार्टी का निर्णय था।
आडवाणी जैसे व्यक्ति का उनसे इतनी लंबी नाराजगी अनुचित थी। हालांकि अब वे इस मुद्दे पर शांत हैं, लेकिन इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि शीर्ष नेतृत्व के लिए पार्टी हित की जगह निजी अहम और छवि ही मुख्य सरोकार है। वास्तव में निजी छवि को ही पार्टी हित मानकर व्यवहार किया जा रहा है। एक समय था, जब संसद और बाहर भाजपा पर तीखे वार चलते थे, लेकिन पार्टी उससे प्रभावित हुए बगैर अपना काम करती रहती थी और हमलों का उसी अंदाज में जवाब भी देती थी। इस समय तो कोई आरोप लगा नहीं कि इस बात की चिंता घर कर जाती है कि हमारी छवि पर कोई आंच न आ जाए। लोकसभा एवं राज्यसभा के प्रमुख नेताओं की भूमिका को देखिए तो साफ हो जाएगा कि केवल छवि बचाने के लिए बयानबाजी या फिर पार्टी में निर्णय बदलने के लिए दबाव डाला जाता है। चाहे वह येद्दियुरप्पा प्रकरण हो या कुशवाहा प्रकरण, किसी का सरोकार उनके मामलों के सच से नहीं था, बस हम संसद में और बाहर क्या जवाब देंगे! मेरे पास एक कार्यकर्ता का ई-मेल आया। उनका सुझाव था कि भाजपा को अब भंग कर देने का समय आ गया है। यह सुझाव 2005 में भाजपा के 25 वर्ष पूरा होने के अवसर पर भी दिया गया था। भंग करने से तात्पर्य भाजपा के रूप में इसका अंत और विचारधारा पर आधारित नई पार्टी का उसी तरह पुनर्गठन करना, जिस तरह 1980 में भाजपा का हुआ। बड़ा वर्ग इसे व्यावहारिक नहीं मानता। तो रास्ता क्या है? एक नेता का प्रश्न था कि जिन्हें पार्टी समस्या का समाधान करना है, अगर वही समस्या हैं तो इसका रास्ता निकलेगा कैसे? वस्तुत: यह यक्ष प्रश्न भाजपा के सामने खड़ा है, जिसका उत्तर कोई पांडव पुत्र और द्रोणाचार्य का शिष्य युधिष्ठिर ही दे सकता है। तो भाजपा को दुर्दशा से मुक्त करने की चिंता करने वालों को ऐसे युधिष्ठिर की तलाश करनी चाहिए, लेकिन अगर युधिष्ठिर नहीं मिले तो भाजपा के सामने खड़ा यक्ष प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाएगा।
लेखक अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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