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विकास की चाह में महंगाई को आमंत्रण

जागरण मेहमान कोना
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प्रणब मुखर्जी अपने जीवन काल के सातवेंबजट में कोई क्रांतिकारी कदम उठाएंगे, इसकी संभावना नहीं थी। एक दिन पहले जारी आर्थिक सर्वेक्षण से ही उन्होंने बजट की दिशा का आभास करा दिया था। कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों पर सर्वेक्षण में चिंता प्रकट करते हुए महंगाई पर नियंत्रण एवं विकास दर की गति बढ़ाने को चुनौती माना गया था। बढ़ते राजकोषीय घाटे पर सबसे ज्यादा चिंता प्रकट करते हुए इसे कम करने, रुपये की गिरावट को थामने, व्यापार घाटे की खाई कम करने को अर्थनीति की शीर्ष प्राथमिकताएं गिनाई गई थीं। बहरहाल, देश के सामने आंतरिक और वैश्विक समस्याओं के कारण जैसी जटिल आर्थिक और वित्तीय चुनौतियां हैं, उसमें प्रणब दाके लिए विकास को आगे बढ़ाने, महंगाई पर काबू करने, आम आदमी की पीठ पर हाथ रखने तथा राजस्व बढ़ाने जैसे लक्ष्यों को एक साथ साधना था। वह भी उस स्थिति में जब सरकार पर गठजोड़ के साथियों और विपक्ष का कठोर सुधारों की दिशा में कदम उठाने के विरुद्ध जबरदस्त दबाव हो। संकट के समय राजनीतिक दबावों से परे उठकर नए दृष्टिकोण अपनाने तथा उसके अनुरूप जोखिम भरे कदम उठाने की आवश्यकता होती है। यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि प्रणब दा ने नए दृष्टिकोण एवं जोखिम से पूरी तरह बचने की कवायद की है।


निस्संदेह, 14 लाख 90 हजार 925 करोड़ रुपये का बजट भारत के विस्तृत होते आर्थिक आकार का सबूत है। दुनिया में इतना बड़ा बजट बनाने वाले 10 देश ही हैं, लेकिन इसमें गैर योजना व्यय ही 9 लाख 69 हजार 900 करोड़ रुपये है। इसके परिवर्तन की आवश्यकता थी। 2011-12 में ब्याज के रूप में 2 लाख 67 हजार 986 करोड़ भुगतान का लक्ष्य था। जब सरकार ने 4 लाख 30 हजार करोड़ को बॉण्ड जारी किया तो ब्याज भी बढ़ा। यह करीब 35 हजार करोड़ रुपये बढ़ जाएगा। मार्च 2011 तक सरकार के कुल सिक्युरिटी का मूल्य 24 लाख 25 हजार करोड़ में अगर 4 लाख 30 हजार करोड़ जोड़ दें तो यह 28 लाख 55 हजार करोड़ हो जाता है। सकल घरेलू उत्पाद के 2.98 प्रतिशत ब्याज पर व्यय का लक्ष्य इसलिए भी बढ़ गया, क्योंकि विकास दर 9 प्रतिशत के लक्ष्य से 6.9 प्रतिशत आ गया। कुल मिलाकर राजकोषीय घाटा कुल अर्थव्यवस्था के 5.9 प्रतिशत पहुंच गया, जो खतरनाक स्तर है।


प्रधानमंत्री ने बजट के बाद के वक्तव्य में राजकोषीय घाटे पर चिंता व्यक्त की है। इसमें वर्तमान अर्थव्यवस्था में खजाने को संभालने के रास्ते स्पष्ट हैं- सब्सिडी को तार्किक बनाया जाए, वेतन और भत्ते पर खर्च घटे, सामाजिक विकास के नाम पर होने वाले खर्च भी तार्किक हों, उसमें पारदर्शिता आए और उसकी जिम्मेवारी तय हो, कर सहित अन्य स्त्रातों से आय बढ़े। साथ ही संकट का गहराई से विश्लेषण कर वर्तमान अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर आकर विचार करने की भी जरूरत है। प्रणब दा न सुधारवादी रास्ते पर चले हैं, न इससे परे विचार का संकेत दिया है। सब्सिडी सरकार का एकमुश्त सबसे बड़ा खर्च है। सब्सिडी पिछले बजट के घोषित लक्ष्य 1 लाख 43 हजार 212 करोड़ के दोगुने से आगे हो चुकी है। मुखर्जी ने कहा कि इसे कुल अर्थव्यवस्था के दो प्रतिशत तक सीमित रखा जाएगा और अगले तीन वर्षो में 1.7 प्रतिशत तक लाया जाएगा। जिस ढंग से कच्चे तेल का मूल्य बढ़ रहा है, उसमें यह अत्यंत कठिन लक्ष्य है। साथ ही खाद्य सुरक्षा कानून के बाद तो सरकार का खर्च बढ़ेगा। आवश्यकता के अनुरूप सरकारी खर्च में कटौती की कोई योजना उन्होंने नहीं दी। केवल इसलिए कि उसकी प्रतिक्रिया राजनीतिक रूप से जोखिम भरी होगी।


विनिवेश का लक्ष्य दो सालों से प्राप्त नहीं हो रहा है। वर्ष 2011-12 के लिए 40 हजार करोड़ लक्ष्य के मुकाबले केवल 12 हजार 400 करोड़ आ रहा है। इस बार मुखर्जी ने केवल 30 हजार करोड़ विनिवेश का लक्ष्य रखा है। विपक्ष एवं गठजोड़ के साथी सरकार के विनिवेश लक्ष्य को पूरा होने देंगे, इसमें संदेह है। हां, 4जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को अतिरिक्त आय हो सकती है। इसका अर्थ यही है कि खर्च घटाने और आय बढ़ाने का नया नजरिया सरकार के पास नहीं है। करों के क्षेत्र में भी प्रणब मुखर्जी व्यापक परिवर्तन के बजाय कुछ व्यावहारिक कदम तक सीमित हैं। उत्पाद शुल्क एवं सेवा कर का मानक 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत किया जाना उम्मीदों के अनुरूप है। सेवा क्षेत्र का अंशदान हमारी अर्थव्यवस्था में 59 प्रतिशत हो गया है। जाहिर है, वहां कर बढ़ने से आय बढ़ेगी, पर यह उतनी नहीं होगी, जितनी खजाने की मांग है। दूसरी ओर इससे वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य बढ़ जाएगा। जाहिर है, महंगाई पर काबू करने के लक्ष्य पर इसका प्रतिकूल असर होगा। आयकर में हमें जितनी छूट मिली है, उससे ज्यादा तो हमें सामानों एवं सेवाओं के बढ़े मूल्यों के रूप में चुकता करना होगा। प्रधानमंत्री ने महंगाई के संदर्भ में कहा भी कि हमें यह कड़वी गोली खानी ही होगी, क्योंकि देश चलाने के साथ अर्थव्यवस्था का भी उचित प्रबंधन करना है। साफ है कि सरकार के सहयोगी और विपक्ष इस तर्क से सहमत नहीं है। वर्तमान आर्थिक ढांचे में महंगाई कम करने एवं विकास दर बढ़ाने के कई नियम परस्पर विरोधी हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मध्य तिमाही मौद्रिक नीति में कहा है कि आर्थिक गिरावट के बावजूद महंगाई का जोखिम बना हुआ है।


बैंक ने पिछले सप्ताह नकद आरक्षी अनुपात में 0.75 प्रतिशत की कटौती की थी। जब आप बाजार में रुपया बढ़ाते हैं तो मांग बढ़ती है, और महंगाई भी। जब आप रुपया खींचते हैं तो विकास को धक्का लगता है। स्पष्ट है कि महंगाई एवं विकास के संतुलन के लिए नए सूत्र तलाशने की आवश्यकता है, जिससे बजट बिल्कुल अनछुआ है। कीमतों में कमी प्रशासनिक कदमों से भी आएगी और इसका जिक्र है ही नहीं। रपटें बता रही हैं कि गांवों की गतिशीलता अर्थव्यवस्था को संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। इसलिए गांव एवं कृषि को बजट प्रावधानों से सशक्त किया जाना चाहिए था। कृषि विकास दर को 2.5 प्रतिशत से ऊपर उठाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता थी। क्या ऐसा हुआ है? कृषि के लिए कर्ज की राशि 5 लाख 75 हजार करोड़ निर्धारित की गई है, जो पिछले वर्ष से 1 लाख करोड़ रुपये ज्यादा है। केवल 2 लाख 94 हजार 23 करोड़ कर्ज दिया गया, क्योंकि बैंक छोटे एवं मझोले किसानों को आसानी से कर्ज देने मे बाधाएं खड़ी करते हैं। ग्रामीण आवास के लिए 3 हजार करोड़ की जगह 4 हजार करोड़ की राशि भी गांवों के विकास में योगदान दे सकता है। गांवों के लिए पेयजल, स्वच्छता योजना में 27 प्रतिशत की वृद्धि है। कहा जा सकता है कि ये सारे कदम गांव, खेती और उससे जुड़ी गतिविधियों को ताकत देंगे।


बजट की परंपरा देखते हुए प्रणब मुखर्जी की पीठ भी थपथपाई जा सकती है, पर ये सारे कदम पूर्व की नीतियों के ही विस्तार हंैं। वर्तमान संकट में गांवों की अर्थशक्ति को जैसी नई दिशा की आवश्यकता है, उसकी झलक इसमें नहीं मिलती है। खेती को सम्मान का पेशा कैसे बनाया जाए, खेती योग्य जमीनें लोग पैसे के लालच में न बेचें, इसके बारे एक राष्ट्रीय नीति और संकल्प समय की मांग थी जिसका आभास बजट से होना चाहिए था। भारत में गांव और खेती को बचाने के लिए विशेष उपाय करने का यह शायद सर्वाधिक उपयुक्त समय था, जिसे समझा नहीं गया है। कुल मिलाकर प्रणब मुखर्जी ने बड़े जोखिमों से बचते हुए नेता के रूप में राजनीतिक हित के अनुरूप बजट प्रावधान किए हैं। इसमें कठिनाइयों-चुनौतियां का सधे शब्दों में जिक्र और संकेत है। पर रास्ते के रूप में उन्होंने अर्थ एवं राजनीति के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है।


लेखक अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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