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राज्यों के अधिकारों में केंद्र के अतिक्रमण को संघीय ढांचे के लिए खतरा बता रहे हैं कुलदीप नैयर
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे के आधार पर 2014 में बनने वाली लोकसभा के स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, लेकिन इनसे वोटरों के मिजाज का पता तो चलता ही है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में हुए चुनावों से इस बात का संकेत मिलता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस बहुत तेजी से ढलान की ओर है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का अता-पता नहीं है, जबकि इंदिरा गांधी परिवार की पूरी पीढ़ी इस राज्य में पूरी ताकत के साथ लगी रही। पंजाब में कांग्रेस के जीतने की उम्मीद थी, लेकिन यह भी इसके हाथ से निकल गया। गोवा में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। सांत्वना पुरस्कार मणिपुर और उत्तराखंड के रूप में मिला, जहां आपस में लड़ने वाले पार्टीजन किसी सरकार को लंबे समय तक काम नहीं करने देते। हकीकत तो यह है कि कांग्रेस का राष्ट्रीय विकल्प भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन भी कांग्रेस से बस थोड़ा ही बेहतर रहा। उत्तर प्रदेश में इसे तीसरा स्थान प्राप्त हुआ। उत्तराखंड में कांग्रेस से एक सीट कम मिली। भाजपा पंजाब में जीत का दावा कर सकती है, लेकिन यहां वह अकाली दल के सहारे है। पंजाब में अकेले भाजपा की सीटें 19 से घटकर 12 हो गईं।
चुनाव नतीजों का स्पष्ट सबक है कि राज्यों में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों के हाथ कांग्रेस मात खा रही है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की कामयाबी ने राज्य में कांग्रेस और भाजपा के भविष्य को धुंधला कर दिया है। 543 सदस्यों वाली लोकसभा में उत्तर प्रदेश से 80 सीटें हैं। सत्ता से बेदखल हुई मायावती की बहुजन समाज पार्टी को एक समय लगता था कि वह दलितों के बूते और सभी को खत्म कर देंगी, लेकिन मायावती की लोलुपता ने अब किसी दलित के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को ही खत्म कर दिया है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के सत्ता में लौटने से इस बात को मजबूती मिली है कि जमीन पर किया गया काम ही आखिरकार काम आता है।
अकाली दल और समाजवादी पार्टी की जीत ने कांग्रेस और दूसरे राष्ट्रीय दलों को यह संदेश दिया है कि वे इन क्षेत्रीय पार्टियों की अनदेखी या अवहेलना नहीं कर सकते। आर्थिक एवं सामाजिक नीतियां बनाने से पहले राज्यों से सलाह-मशविरा करना जरूरी होगा। जमीनी भावनाओं की अनदेखी के साथ-साथ कांग्रेस को घोटालों और महंगाई की कीमत भी चुकानी पड़ी है। राज्यस्तर की पार्टियां वोटरों को यह समझाने में कामयाब रहीं कि भ्रष्टाचार या महंगाई उनके कारण नहीं है, बल्कि यह सब केंद्र में सत्ता पर काबिज कांग्रेस की कारगुजारियां हैं। ऐसा लगता है कि राज्य अब अपनी ताकत दिखाने लगे हैं, क्योंकि जनता उनके साथ है। ओड़िसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बहुत अधिक शक्ति अपने पास रखने को लेकर केंद्र के खिलाफ बगावत शुरू कर चुके हैं। उनकी मांगों को पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी समेत कई मुख्यमंत्रियों का समर्थन हासिल है। इन मुख्यमंत्रियोंका मानना है कि केंद्र को कोई भी संगठन राज्यों को ध्यान में रखकर बनाना होगा, क्योंकि ये संगठन राज्यों की कानून-व्यवस्था से जुड़ी मशीनरी की सहायता से ही काम कर पाते हैं। हाल में केंद्र सरकार आतंकवाद विरोधी एनसीटीसी बनाने जा रही थी, उसे लेकर मुख्यमंत्रियों की पूर्व सहमति हासिल नहीं की गई थी। इसके बावजूद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने राज्यों के मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों की बैठक बुला ली। ये दोनों अधिकारी अखिल भारतीय सेवा के होते हैं और केंद्र द्वारा नियंत्रित होते हैं। ऐसे में इन्हें हांकना केंद्र के लिए आसान होता है। लेकिन केंद्र को यह बात समझनी होगी कि राज्य का असली मुखिया मुख्यमंत्री होता है और उसे ध्यान में रख कर ही कोई काम करना होगा।
फिलहाल तो यह अटकल ही है कि कोई गैरभाजपा या गैरकांग्रेस गठबंधन बनेगा, हालांकि इसके संकेत मिलने लगे हैं। फिर भी इस बात में कोई दो राय नहीं कि केंद्र सरकार राज्यों को सूचित किए बिना कदम उठाती रहती है। संघवाद एक आदर्श वाक्य है, जिसका मतलब होता है कि राज्यों के पास अधिक शक्तियां रहनी चाहिए। लेकिन केंद्र-राज्य संबंधों के बारे में सरकारिया आयोग की सिफारिशों के बावजूद नई दिल्ली राज्यों के साथ मनमाना व्यवहार करती रहती है।
अकाली दल के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में राज्यों को अधिक अधिकार देने की मांग की गई थी। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल का शासन करते वक्त माकपा भी ऐसी ही मांग करती रही। लेकिन कांग्रेस ऐसी मांगों को अहंकारी भाव से खारिज करती रही। शासन के लिए सहमति की जरूरत पड़ती है। यह सहमति विनम्रता से बनती है, न कि कांग्रेस संस्कृति का अंग बन चुके अहंकार या हेकड़ी से। इस बात को समझे बगैर कि हालिया चुनावों ने राज्यों की पार्टियों के आत्मविश्वास को जगाया है और वे अपनी बात ताकत के साथ रखना चाहते हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या उनकी पार्टी अगले कुछ दिनों में संसद की कार्यवाही कैसे चला पाएंगी? बजट या किसी और महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के लिए उन्हें क्षेत्रीय दलों का समर्थन लेना होगा। कांग्रेस के सामने तुरंत आने वाली समस्या इस साल के मध्य में होने वाला राष्ट्रपति चुनाव है। इसके बाद उपराष्ट्रपति का चुनाव होना है। कांग्रेस इन पदों के लिए अपने उम्मीदवार को इन पार्टियों पर थोप नहीं सकती। उसे क्षेत्रीय दलों को मनाना होगा। ऐसी हालत में कोई योग्य और प्रतिष्ठित गैर कांग्रेसी राष्ट्रपति पद के लिए सर्वोत्तम उम्मीदवार हो सकता है। कांग्रेस को इस मामले में पूरी सूझ-बूझ दिखानी होगी।
कांग्रेस पर इस समय मध्यावधि चुनाव का खतरा मंडरा रहा है और उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। कुछ लोग इस बात से डरते हैं कि कमजोर केंद्र से अलगाववाद को बढ़ावा मिलेगा। ऐसा सोचना गलत है, क्योंकि राज्य देश के अभिन्न अंग हैं। वे हर छोटी-मोटी मदद के लिए दिल्ली की दौड़ नहीं लगाना चाहते। लेकिन आज उन्हें यह दौड़ लगानी पड़ती है। अपनी योजनाओं को आगे बढ़वाने के लिए राज्यों ने दिल्ली में रेजिडेंट कमीश्नर को बैठा रखा है। केंद्र की सत्ता में जो भी आता है, वह ब्रिटिश काल के गवर्नर जनरल की तरह शासन करने का मंसूबा पाल लेता है। इस बात को नहीं समझता कि जनता अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा सजग है। वह अपने वोट की कीमत समझती है।
लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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