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साख पर गहरा आघात

जागरण मेहमान कोना
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Gourishankar एम्स की प्रवेश परीक्षा में धांधली का मामला सामने आने से इस संस्थान की प्रतिष्ठा प्रभावित होते देख रहे हैं डॉ. गौरीशंकर राजहंस


पिछले दिनों अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] में दिल्ली पुलिस ने स्नातकोत्तर चिकित्सा प्रवेश परीक्षा का प्रश्न पत्र लीक होने के रैकेट का भंडाफोड़ किया। उसे जानकर सारा देश स्तब्ध रह गया है। आधुनिकतम दूरसंचार प्रणाली की सहायता लेकर फर्जी डाक्टरों ने प्रश्नपत्र लीक किया और कहा जाता है कि इस प्रश्नपत्र के बदले अमीरजादा छात्रों ने 30-30 लाख रुपये रैकेट से जुड़े लोगों को दिए। एम्स जैसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान में इस तरह का स्कैंडल होगा, इसकी लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह तो महज संयोग था कि पुलिस ने इस रैकेट का भंडाफोड़ किया, परंतु इस स्कैंडल का भंडाफोड़ होने से अपने आप अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। जिन लोगों ने बहुचर्चित फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ देखी होगी उन्हें अवश्य याद होगा कि किस तरह हेराफेरी करके मुन्नाभाई डाक्टर बन जाता है। एम्स वाली घटना का भंडाफोड़ होने से एक बात तो साबित हो गई है कि इस तरह का गोरखधंधा वर्षो से चल रहा है। यह तो महज एक संयोग था कि इस बार फर्जी परीक्षार्थी पकड़ में आ गए। हो सकता है कि इस तकनीक का फायदा उठाकर अनेक फर्जी परीक्षार्थी एमबीबीएस और एमडी भी बन गए हों। एम्स की डिग्री की सारी दुनिया में कद्र है। अमेरिका, कनाडा और यूरोप के अस्पताल यह मानकर चलते हैं कि जिस युवक ने एम्स से डाक्टर की डिग्री प्राप्त की है वह नि:संदेह बहुत दक्ष होगा। इस घटना का खुलासा होने के बाद सारे संसार में विदेशी अस्पतालों के प्रबंधकर्ताओं को जोरदार धक्का लगा होगा।


पैसे के बल पर अपराधी प्रवृति के लोग चुनाव तो जीत जाते थे, परंतु वे अपना दबदबा समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी कायम कर लेंगे, इसकी लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे, परंतु सच यह है कि यह मुन्नाभाई का बिजनेस वर्षो से चल रहा है। देश के विभिन्न भागों में दागी राजनेताओं ने मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज खोल रखे हैं। इन प्राइवेट कॉलेजों में दाखिले में एक एक प्रत्याशी के अभिभावक से 20-25 लाख रुपये तथाकथित ‘डोनेशन’ के रूप में लिया जाता है।


मुन्नाभाई की तरह की फर्जी डिग्री हासिल करने वाले लोगों की हिंदीभाषी राज्यों में भरमार है। राजनेताओं के परिवारों से ऐसे छात्र गत वषरें में उत्तीर्ण हुए हैं जो राजनीति विज्ञान या समाज शास्त्र में पहली बार में फेल हो गए थे, क्योंकि उस समय वे किसी मुन्नाभाई का प्रबंध नहीं कर पाए थे और जब उन्होंने दूसरी पारी में परीक्षा दी तो मुन्नाभाई की मदद से वे प्रथम श्रेणी में उतीर्ण हो गए। यही नहीं, मुन्नाभाई की मदद से एमए की परीक्षा भी वे प्रथम श्रेणी में पास कर गए और राज्य के प्रतिष्ठित कॉलेजों में लेक्चरर के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई। स्वाभाविक है कि पढ़ाई तो उन्होंने कभी की नहीं थी। अत: वे केवल छात्रों को दूसरे प्रोफेसरों के खिलाफ या कॉलेज मैनेजमेंट के खिलाफ भड़काते रहते थे और आए दिन हड़ताल कराते थे। दागी नेताओं के परिवारों से आने वाले ये युवक धीरे-धीरे समाज के सिरमौर बन गए।


एक हिंदी भाषी राज्य के एक दबंग नेता की कहानी कुछ वर्ष पहले उजागर हुई थी। अपने एक प्रोफेसर को उन्होंने कहा कि वे पीएचडी करना चाहते हैं, परंतु उनमें योग्यता तो है नहीं। प्रोफेसर साहब कुछ रास्ता निकाल दें तो वे एक मोटी रकम उन्हें दे देंगे। एक बार यदि वे ‘डाक्टर’ बन गए तो समाज और राजनीति में उनकी धाक बढ़ जाएगी। प्रोफेसर साहब ने उन्हें कहा कि आजकल पीएचडी की थीसिस कोई देखता नहीं है। उन्होंने उसी राज्य के दूसरे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के एक विख्यात विद्वान की थीसिस जो उन्होंने लंदन स्कूल ऑर इकोनोमिक्स में लिखी थी और जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई थी उन्होंने वह लाकर अपने इस दबंग राजनेता को दे दी और कह दिया कि पूरी किताब वे अपने घर पर नकल कर टाइप करा लें। वही उनकी थीसिस बन जाएगी। केवल थीसिस का शीर्षक बदल दें। वे एक सर्टिफिकेट दे देंगे कि यह शोध इस व्यक्ति ने उनकी देखरेख में किया है। सब कुछ योजनानुसार चला। राजनेता के घर पर थीसिस टाइप हो गई और प्रोफेसर साहब ने एक मोटी रकम लेकर यह सर्टिफिकेट दे दिया कि यह शोध अमुक छात्र ने उनकी देखरेख में किया था। बात समाप्त हो गई। प्रोफेसर साहब ने अपने छात्र को यह हिदायत कर दी थी कि वे किसी तरह यूनिवर्सिटी में रखे हुए उनके थीसिस को गायब करवा दें और अपने घर में भी थीसिस की कापी नहीं रखें, क्योंकि यदि यह थीसिस किसी के हाथों में पड़ गई तो बड़ा हंगामा होगा। यूनिवर्सिटी से तो वह थीसिस गायब करवा दी गई, परंतु घर में पड़ी हुई उनकी थीसिस को उनके सुपुत्र ने छपवा कर उनके जन्मदिन पर उन्हें भेंट कर दी। यह देखकर वे सकते में आ गए, परंतु उन्होंने यही सोचा कि इस पर अब किसी का ध्यान नहीं जाएगा। उनके सुपुत्र ने राज्य की राजधानी की सारी प्रमुख पुस्तकों की दुकान में बिकने के लिए वह पुस्तक भेज दी। जब पुस्तक की समीक्षा अखबारों में निकली तो पुस्तक के मूल लेखक दौड़कर विपक्ष के नेता के पास पहुंचे। फिर तो असेंबली में भारी हंगामा हुआ और पूरे देश के समाचारपत्रों में इसकी चर्चा हुई। नेताजी जो उस समय एक दबंग मंत्री थे, ने सारी दुकानों से उस पुस्तक की सारी कापियां मंगवाकर रात में अपने घर के पिछवाड़े में जलवा दीं, परंतु अभी भी एक दो कापी कुछ लोगों के पास हैं।


ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब दबंग नेताओं ने मुन्नाभाइयों को बैठाकर अपने परिवार के लोगों को बड़ी बड़ी डिग्रियां दिलाई हैं। कहने का अर्थ है कि जबरदस्ती और निर्लज्जा की कहानी केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं है। वह समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी तेजी से फैल रही है। इसका सीधा असर है कि दबंगई के बल पर राजनेता प्रतिभाशाली और गरीब लोगों का हक मार रहे हैं। प्रश्न यह है कि समाज कब तक इस अन्याय को बर्दाश्त करेगा?


लेखक डॉ. गौरीशंकर राजहंस पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं


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