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ब्रिक्स सम्मेलन के पूर्व चीन के विदेश मंत्री की भारत यात्रा का महत्व रेखांकित कर रहे हैं सी. उदयभाष्कर
चीन के विदेश मंत्री यांग जाइची की एक मार्च को नई दिल्ली यात्रा इस माह के अंत में भारत की मेजबानी में होने वाले ब्रिक्स [ब्राजील, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका] शिखर सम्मेलन की तैयारियों की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रही। इस लिहाज से और भी, क्योंकि इससे भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय सहयोग को आगे बढ़ाने का मजबूत आधार तैयार करने की कोशिश की गई। सहयोग के बिंदुओं में समुद्री लुटेरों के खिलाफ संयुक्त अभियान की संभावनाएं तलाशना और समुद्री अनुसंधान के लिए तकनीक के आदान-प्रदान के मसले शामिल हैं। यह गौर करने लायक है कि भारत और चीन के द्विपक्षीय संबंधों में यह सकारात्मक रुझान तब देखने को मिल रहा है जब दोनों देशों के बीच जटिल सीमा विवाद की लंबी पृष्ठभूमि रही है। अरुणाचल प्रदेश पर चीन की आपत्ति से भी दोनों देशों के बीच रिश्तों में तल्खी देखने को मिलती रही है। इसी तरह चीन द्वारा नदियों की दिशा मोड़ने पर भारत के अपने ऐतराज हैं। तिब्बत और दलाई लामा के संदर्भ में चीन की चिंता भी किसी से छिपी नहीं है। गत दिसंबर में सीमा विवाद पर बातचीत को इसलिए स्थगित करना पड़ा था, क्योंकि दिल्ली विश्व बौद्ध सम्मेलन की मेजबानी कर रही थी और इसमें दलाई लामा को भी भाग लेना था। यांग की मौजूदा यात्रा में तिब्बत का मसला एजेंडे में ऊपर रहा और यह समझा जा सकता है कि चीन ने भारत से यह आश्वासन चाहा कि ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान तिब्बती प्रदर्शनकारियों को किसी तरह के विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। अतीत की तरह भारत ने अपनी इस प्रतिबद्धता को दोहराया कि वह तिब्बती प्रदर्शनकारियों की किसी राजनीतिक सक्रियता की अनुमति नहीं देगा। कुल मिलाकर भारत का रुख उसी तरह होगा जैसा उसने अपने यहां बीजिंग ओलंपिक की मशाल यात्रा के दौरान प्रदर्शित किया था।
स्पष्ट है कि एक आम भारतीय के मन में यह सवाल उभरेगा कि क्या चीन भारत का मित्र है अथवा दुश्मन या सहयोगी या फिर प्रतिस्पर्धी? उत्तर यह है कि वह इन सभी रूपों में है और उसका रुख इस बात से तय होगा कि उसके सामने क्या मसला है? अगर सीमा विवाद की बात करें तो दोनों देश इस मसले पर 1962 में युद्ध के दौर से गुजर रहे हैं और उनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। दोनों देशों के लिए कतिपय क्षेत्रीय, पहचान और संप्रभुता संबंधी मसले हैं। चीन के लिए ताइवान और तिब्बत के मसले हैं तो भारत के लिए कश्मीर को हाशिए पर रखना असंभव है। ये मसले पिछले 50 सालों से लंबित हैं और दोनों ही देशों ने इनके समाधान के लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त कर रखे हैं। इन प्रतिनिधियों के बीच अब तक लगभग 15 बार बातचीत हो चुकी है, लेकिन प्रगति नाम मात्र की ही हो सकी है। भारत और चीन के संबंधों में पाकिस्तान की भूमिका ने और अधिक जटिलता पैदा कर दी है। उसने कश्मीर का जो भाग भारत से हड़पा है उसका कुछ हिस्सा चीन को सौंप दिया है। क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के कारण यह मामला और अधिक पेचीदा हो गया है। मसले के हल के लिए कुछ नए उपायों को स्वीकार करने की जरूरत होगी जिसके तहत कुछ देने और कुछ लेने पर विचार किया जा सकता है।
जहां तक व्यापारिक और आर्थिक संबंधों का प्रश्न है तो भारत और चीन थोड़े असमान धरातल पर खड़े हैं। भारत चीन के समक्ष कनिष्ठ सहयोगी सरीखी भूमिका में है। चीन का सकल घरेलू उत्पाद भारत की तुलना में लगभग पांच गुना अधिक है। यह सही है कि दोनों देशों के बीच व्यापार 70 अरब डालर का आंकड़ा छूने की स्थिति में है और विशेषज्ञों का कहना है कि अगले तीन वर्षो में यह 100 अरब डालर तक पहुंच जाएगा, लेकिन चीन के लिए कुल मिलाकर यह छोटी राशि है। व्यापारिक संतुलन भारत के विपरीत है और इस क्षेत्र में भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है ताकि संबंधों में कुछ संतुलन स्थापित किया जा सके। चीन इस बात से भलीभांति परिचित है कि भारत एक मजबूत संभावनाओं वाले बाजार के रूप में उभर रहा है। सभी आर्थिक और व्यापारिक तर्क यह संकेत देते हैं कि बीजिंग एक अरब बीस करोड़ वाले लोगों वाली अर्थव्यवस्था की अनदेखी नहीं कर सकता। यही कारण है कि चीन की अनेक बड़ी कंपनियां भारत में सक्रिय बने रहना चाहती हैं। भारत और चीन, दोनों ही देश एक सच्चाई की अनदेखी नहीं कर सकते और वह यह कि अगर 21वीं शताब्दी एशिया की शताब्दी बननी है तो इसके लिए जरूरी है कि भारत और चीन के संबंध स्थिर बने रहें। दुनिया यह महसूस कर रही है कि अमेरिका की शक्ति कम होती जा रही है और चीन तेजी से उभर रहा है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र का घटनाक्रम इसका संकेत भी देता है। ऐसे में ब्रिक में शामिल अन्य राष्ट्रों यानी रूस, ब्राजील और भारत को भी अपनी-अपनी भूमिका बढ़ानी होगी।
भारत और चीन ने यह प्रदर्शित किया है कि वे अपनी स्थितियों को एक हद तक सहयोगपूर्ण रख सकते हैं, जैसा कि विश्व पर्यावरण सम्मेलन में नजर आया था। व्यापार संबंधी बातचीत एक अन्य क्षेत्र है जहां दोनों देश मिलकर काम कर सकते हैं-बावजूद इसके कि दोनों के मजबूत पक्ष अलग-अलग हैं। चीन जहां उत्पादन में बहुत आगे है वहीं भारत का जोर सर्विस सेक्टर पर है। भारत के लिए अगले दो साल घरेलू राजनीतिक व्यस्तताओं के रहने वाले हैं, क्योंकि संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम चरण में होगी। ऐसे में द्विपक्षीय संबंधों का बहुत संवेदनशीलता के साथ प्रबंधन करने की जरूरत होगी, जिसमें निगाह दीर्घकालिक अवसरों पर हो। चीन के संदर्भ में यह और अधिक आवश्यक है। चीन के साथ रिश्तों को कुछ सीमा विवादों और नदियों तक सीमित रखना सही नहीं होगा।
लेखक सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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