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अन्ना आंदोलन का एक वर्ष

जागरण मेहमान कोना
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पांच अप्रैल का दिन बिना किसी शोर-शराबे के बीत गया। आप सोच रहे होंगे कि 5 अप्रैल को ऐसा क्या हुआ या होना था, जिसे याद रखा जाना चाहिए? जरा पूर्व की स्मृतियों में जाएं, ठीक एक साल पहले 5 अप्रैल 2011 को देश में अन्ना नाम की आंधी आई और संसदीय तानाशाही से मुक्ति के लिए भ्रष्टाचार को जरिया बनाकर जनमानस को झकझोर कर चली गई। जो अन्ना जनलोकपाल के लिए आंदोलन चलाकर भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था में शुद्धि लाना चाहते थे, एक साल बाद वे ही खामोश खड़े नजर आते हैं। 5 अप्रैल की तुलना अक्सर 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसी महत्वपूर्ण तिथियों से की गई और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि अन्ना हजारे ने स्वयं जनलोकपाल आंदोलन को स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई कहा। फिर अगस्त 2011 में अन्ना हजारे जब जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठे तो किसी को यह गुमान नहीं था कि गांधी टोपी धारी एक व्यक्ति आपातकाल (1975) के बाद की सबसे बड़ी क्रांति का सूत्रधार बनते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता के हक की लड़ाई का बिगुल छेड़ देगा। दशकों बाद सड़कों पर आम आदमी को तपती धूप में अन्ना के पक्षधर के रूप में देख सरकार की पेशानी पर बल दिखाई दिए। अन्ना नाम के नए गांधी ने भारत की बेहद कमजोर नस पर इतने सलीके से हाथ धर दिया कि नब्ज तो पकड़ में आई, लेकिन उसका इलाज नहीं मिला। 5 अप्रैल 2011 की तारीख अलग इस मायने में है कि इस दिन जो उम्मीद की किरण दिखी थी, वह अब तक अहसास में नहीं बदल पाई है। आज एक साल बाद भी अन्ना और उनकी टीम वहीं खड़ी है, जहां से उन्होंने चलने का संकल्प लिया था।


आखिर क्या कारण है कि अन्ना के जिस आंदोलन को अपने शुरुआती दिनों में व्यापक जनसमर्थन मिला, वह वर्तमान परिस्थितियों में दूर की कौड़ी नजर आता है? टीम अन्ना और नाउम्मीदी पिछले वर्ष ही टीम अन्ना को मुंबई में प्रस्तावित अनशन इसलिए वापस लेना पड़ा, क्योंकि भीड़ के नाम पर मैदान में सिर्फ सौ-डेढ़ सौ उत्साही युवक ही थे। जाहिर है, यह अन्ना और उनके आंदोलन की विफलता ही थी कि लोग अपने घरों से नहीं निकले। अन्ना के आंदोलन की सबसे बड़ी कमी यह रही कि उनका आंदोलन विशुद्ध रूप से एक पार्टी के विरुद्ध हो गया, जिससे यह माना जाने लगा कि अन्ना स्वयं दक्षिणपंथी विचारधारा के पोषक हैं। लिहाजा, केंद्र को अस्थिर करने के लिए विरोधी पक्षों के साथ मिल गए हैं। बतौर अन्ना के सहयोगी कुछ ऐसे तत्व भी जुड़े, जिनका दामन पहले से ही दागदार था। कुछ सहयोगियों का बड़बोलापन और कुछ का खुलेआम लोकतंत्र का अपमान करना, जनता की नजरों में अन्ना आंदोलन की अहमियत को कम कर गया। सरकार द्वारा टीम अन्ना का पोल-खोल अभियान भी जनता के बीच उनकी ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगा गया। बची-खुची साख मीडिया ने नेस्तनाबूत कर दी।


लोक एवं तंत्र के बीच की दूरी बढ़ती गई। ऐसे में अब सवाल उठता है कि अन्ना का मई 2013 से शुरू होने वाला लोकपाल लाओ, नहीं तो जाओ अभियान क्या प्रासंगिक रह पाएगा? वह भी ऐसे समय में जब हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में टीम अन्ना को मुंह की खानी पड़ी है। किसी भी क्षेत्र से ऐसा कोई समाचार नहीं मिला, जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती हो कि फलां प्रत्याशी टीम अन्ना के नकारात्मक प्रचार की वजह से हारा हो? क्या यह टीम अन्ना और उनके आंदोलन की विफलता नहीं है? दरअसल, अन्ना अपने जन लोकपाल बिल को लेकर इतने आत्मकेंद्रित हो चुके हैं कि वे न तो जयप्रकाश के मसौदे को देखना चाहते हैं और न ही अरुणा राय के मसौदे को, जबकि होना यह चाहिए था कि अन्ना सभी को साथ लेकर चलते और फिर सरकार पर जन लोकपाल बिल लागू करने का दबाव डालते। यही नहीं, अन्ना ने जनलोकपाल की मांग के समानांतर चुनाव प्रक्रिया में सुधार की मांग भी की है। अन्ना ग्रामसभा को मजबूत बनाना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि अन्ना के सभी सुझाव खारिज कर देने लायक हों। व्यवस्था में तो सुधार होना ही चाहिए, किंतु उसके लिए संसद को दबाव में लाना कदापि उचित नहीं। दबाव की राजनीति जब बढ़ती है तो सरकार भी अन्ना और उनकी टीम को आईना दिखाने लगती है। तब अन्ना को लगता है कि सरकार उनके साथ धोखा कर रही है, जबकि अन्ना को मुश्किलों का सामना इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि वह एक समानांतर न्यायिक व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। अभी स्थिति यह है कि ठेठ गांधीवादी भी अन्ना के इस रवैये को उचित नहीं ठहरा रहे। यह भी सच है कि अन्ना की आंधी में आज कई लोग स्वयं अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे हैं। अन्ना जहां एक ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव सुधार की बात करते हैं तो वहीं सक्रिय राजनीति में आने से इनकार करते हैं।


भ्रष्टाचार के जिस नासूर से लड़ने का दावा अन्ना और उनकी टीम करती है, उससे केवल व्यवस्था में रहकर ही निपटा जा सकता है। राजनीति की गंदगी को साफ करने के लिए उसी गंदगी में उतरना भी पड़ेगा। अन्ना का साफ कहना है कि वे कभी राजनीति में नहीं आएंगे, क्योंकि राजनीति बहुत गंदी है। तब वर्तमान व्यवस्था में तो वे अपने मकसद में कभी सफल नहीं हो सकते। अन्ना और बाबा की जोड़ी ऐसी भी खबरें हैं कि गठबंधन राजनीति की भांति अन्ना हजारे बाबा रामदेव के साथ मिलकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने के लिए तैयार हो गए हैं। 4 जून 2011 की मध्यरात्रि को बाबा रामदेव के आमरण अनशन को शुरू हुए अभी 12 घंटे भी नहीं बीते थे कि दिल्ली पुलिस ने बर्बरतापूर्ण कार्रवाई कर बाबा और उनके समर्थकों को तितर-बितर कर दिया। बाबा आज तक उस काली रात को नहीं भूले हैं। दरअसल, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अन्ना की तरह बाबा भी सरकार की अदावत के मारे हैं। एक समय बाबा रामदेव और अन्ना हजारे दोनों भ्रष्टाचार के विरुद्ध साथ-साथ खड़े नजर आते थे, लेकिन अन्ना के अनशन को मिली अपार लोकप्रियता और खुद पर सरकार द्वारा जारी हमलों ने बाबा-अन्ना की राहें जुदा कर दी थीं। अन्ना को लगता था कि बाबा कि विवादित योग सल्तनत उनके चरित्र और उनके आंदोलन को बिगाड़ सकती ही। वहीं बाबा रामदेव यह मानते थे कि अन्ना चूंकि मध्य वर्ग में लोकप्रिय हो चुके हैं, लिहाजा उन्होंने अन्ना का साथ दिया तो सफलता का सारा श्रेय अन्ना और उनकी टीम ले उड़ेगी। आज भी दोनों में अहम का टकराव भले ही हो, लेकिन दोनों यह भली-भांति जानते हैं कि मौजूदा गिरगिटिया राजनीति से अकेले तो नहीं जीता जा सकता।


राजनीति में भले ही कितना वैचारिक मतभेद हों, बात जहां अस्तित्व के हनन की आती है तो सभी एक हो जाते हैं। हाल ही में अरविंद केजरीवाल के विवादास्पद बयान के बाद संसद में सांसदों की एकता देखने लायक थी। इसे देखते हुए क्या अन्ना-बाबा रामदेव मिलकर सरकार एवं भ्रष्ट व्यवस्था का मुकाबला कर पाएंगे? क्या उन्हें जनमानस का समर्थन प्राप्त होगा? यकीनन केंद्र सरकार राजनीतिक रूप से सभी मोर्चो पर अक्षम साबित हुई हो, लेकिन इसका हिसाब करने का अधिकार जनता को है, न कि कुछ लोगों द्वारा बनाए गए समूह को। मगर लगता है कि अन्ना और बाबा अब भी अपनी जिद छोड़ना नहीं चाहते। अब आगे क्या का जवाब तो भविष्य की गर्त में छुपा है। फिर भी कहना होगा कि संभावनाएं तो अनंत हैं, लेकिन आज भी सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि क्या 5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास में 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950 जैसी निर्णायक तारीख बन पाएगी? क्या इस बार इतिहास स्वयं को दोहराएगा? कुछ अतिभ्रष्टाचारियों को छोड़कर, पूरे देश की तरह हम भी उम्मीद से हैं। थोड़े बहुत भ्रष्टाचारी तो हम सब भी हैं।


लेखक सिद्धार्थ शंकर गौतम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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