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आइआइटी की वजह से दुनियाभर में हम एकेडमिक श्रेष्ठता के लिए जाने जाते हैं, लेकिन जब हमारी शिक्षा व्यवस्था को अंदर से देखा जाता है तो तस्वीर बहुत चिंताजनक दिखाई देती है। शायद यही वजह है कि जब 15 वर्ष की आयु के भारतीयों को पहली बार ग्लोबल मंच पर रीडिंग, गणित और विज्ञान के मामले में उनकी क्षमताओं को परखने के लिए भेजा गया तो वे केवल किर्गिस्तान को पछाड़कर नीचे से दूसरे नंबर पर आए। बता दें कि इसमें 73 देश शामिल थे और भारत 72वें नंबर पर था। जहां शिक्षा क्षेत्र में भारत की यह स्थिति है, वहीं स्वास्थ्य के मामले में भी हमारी हालत दयनीय है। भारत में हर साल 55,000 से अधिक महिलाएं शिशु को जन्म देते समय मर जाती हैं। एक वर्ष में जो बच्चे पैदा होते हंै, उनमें से लगभग 13 लाख अपना पहला जन्मदिन भी नहीं देख पाते। इनमें से अधिकतर तो जन्म लेने के कुछ सप्ताह के भीतर ही मर जाते हैं। किसी भी देश की प्रगति को मापने के लिए संसार यह भी देखता है कि कितने बच्चे 5 वर्ष की आयु से आगे निकल जाते हैं? इस पैमाने पर भी हालात ठीक नहीं हैं। भारत में प्रति वर्ष 5 वर्ष से कम की आयु में मरने वाले बच्चों की संख्या 16 लाख से अधिक है। ये आंकड़े इसलिए भी चौंकाने वाले हैं, क्योंकि ये विश्व में सबसे अधिक हैं। कुल मिलाकर हम शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में इतने फिसड्डी हैं कि विकसित देशों में हमारा नाम तक नहीं आता।
आर्गनाइजेशन फॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का सचिवालय प्रतिवर्ष दुनियाभर की शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन करने के लिए प्रोग्राम फॉर इंटरनेशन स्टूडेंट एसेसमेंट (पीसा) का आयोजन करता है, जिसमें दो घंटे का टेस्ट लिया जाता है। इस बार इस कार्यक्रम में 73 देशों के 5 लाख छात्रों ने हिस्सा लिया, जिनकी अधिकतम आयु 15 वर्ष थी। चीन के शंघाई प्रांत ने पहली बार पीसा कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए रीडिंग, गणित और विज्ञान तीनों में टॉप किया। शंघाई के छात्रों में से एक चौथाई से अधिक ने जटिल समस्याओं को हल करने में उच्चस्तरीय गणितीय कौशल का परिचय दिया। ध्यान रहे कि इन समस्याओं को हल करने में ओईसीडी का औसत मात्र 3 प्रतिशत है यानी शंघाई के छात्र औसत से बहुत आगे हैं। भारत में चूंकि तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश शिक्षा और विकास में अग्रणी समझे जाते हैं, इसलिए केंद्र सरकार ने पीसा कार्यक्रम में भागीदारी लेने के लिए इन राज्यों को चुना। लेकिन उनके टेस्ट नतीजे बहुत शर्मनाक आए। भारत 2012 को गणित वर्ष के रूप में मना रहा है, लेकिन गणित में तमिलनाडु का स्थान 71वां और हिमाचल प्रदेश का 72वां आया और उनसे पीछे केवल किर्गिस्तान था। जब भारतीय छात्रों से अंगे्रजी टेक्स्ट पढ़ने के लिए कहा गया तो वे के किर्गिस्तान से ही बेहतर निकले। विज्ञान में तो स्थिति और भी खराब थी।
हिमाचल प्रदेश का नंबर किर्गिस्तान के बाद यानी आखिरी आया और तमिलनाडु नीचे से तीसरे नंबर पर रहा। आप हैरत करेंगे कि औसत 15 वर्षीय भारतीय ग्लोबल टॉपर से 200 प्वाइंट पीछे है। इस आधार पर विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि 8वीं कक्षा का भारतीय गणित के संदर्भ में तीसरी कक्षा के दक्षिण कोरियाई के बराबर है और रीडिंग में शंघाई के दूसरी कक्षा के छात्र के बराबर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमाचल प्रदेश में केवल 11 प्रतिशत छात्र ही रीडिंग क्षमता में बेसलाइन लेवल से ऊपर हैं यानी 89 प्रतिशत छात्र बेसलाइन लेवल के नीचे हैं। जाहिर है, शिक्षा स्तर को सुधारने के लिए भारत को कमर कसनी होगी और यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भविष्य का आर्थिक विकास शैक्षिक योग्यता पर ही निर्भर करता है। शिक्षा से ही स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे भी जुड़े हुए हैं। शायद यही कारण है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में भी देश पिछड़ा हुआ है। विशेषकर जच्चा-बच्चा मृत्यु दर के मामले में। भारत में प्रति वर्ष 2.62 करोड़ से अधिक बच्चे पैदा होते हैं, जो विश्व में सबसे ज्यादा है। इसलिए सवाल उठता है कि बाल मृत्युदर की उन देशों से किस तरह तुलना की जा सकती है, जिनमें जनसंख्या कम है और जन्म दर भी कम है? यह काम यह देखने से किया जाता है कि प्रति 1 लाख जीवित बाल जन्म पर कितनी माताएं मरती हैं। भारत के लिए मातृ मृत्यु दर 212 है। और बाल मृत्यु दर का औसत प्रति 1000 जीवित जन्म पर 50 है। जाहिर है, सुधार उसी सूरत में हो सकता है, जब अच्छी शिक्षा, अच्छा इन्फ्रास्ट्रक्चर और अच्छा पोषण दिया जाए। लेकिन यह राजनीतिक पहल से ही संभव है। वरना, हम शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में और पिछड़ते जाएंगे।
लेखिका वीना सुखीजा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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