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वोट बैंक की असलियत

जागरण मेहमान कोना
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S Sankarबाटला मुठभेड़ और मुस्लिम आरक्षण पर कांग्रेस के दोहरे रवैये को देश की सुरक्षा व सांप्रदायिक सौहा‌र्द्र के लिए खतरनाक बता रहे हैं एस शंकर


कांग्रेस मुस्लिमों को आरक्षण देने और बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकियों को निर्दोष बताने के मामले में दो नावों पर सवार होकर चलने की विकट कोशिश कर रही है। एक ओर उग्रवादियों, आतंकियों समेत मुसलमानों को रिझाने की कोशिश तथा दूसरी ओर, हिंदुओं को नाराज करने से बचने का प्रयत्न। इसीलिए दिग्विजय सिंह को भी छूट है कि वह अनाप-शनाप बोलते रहें, ताकि मुस्लिमों को कांग्रेस ही अपनी पार्टी लगे। दूसरी ओर, अन्य केंद्रीय कांग्रेसी नेता गैर-मुस्लिमों को शांत रखने की कवायद कर रहे हैं। इस दोहरी चाल में कांग्रेस हारे या जीते, किंतु इस सनकी राजनीति से देश में हालात बिगड़ रहे हैं। दिग्विजय सिंह खुलकर 1947 से पहले की मुस्लिम लीग के नेता की सी भूमिका निभा रहे हैं।


कुछ लोग इसे ‘वोट बैंक’ राजनीति कहकर हल्का करते हैं। उससे भी गलत बात यह कही जाती है कि कांग्रेस मुसलमानों का वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल कर रही है। ठंडे दिमाग से विचार करें कि कौन किस का इस्तेमाल कर रहा है? चुनावी जीत तो आई-गई हो जाती है, किंतु इस बीच मुस्लिम लीगी मानसिकता को जो भौतिक, नैतिक और राजनीतिक पूंजी दे दी जाती है, उसका ब्याज पूरे भारत को भरना पड़ता है। कांग्रेस तो आज या कल हार कर किनारे हो जाती है, किंतु जिस घातक राजनीति को रिझाने का वह प्रयत्न करती है, वह स्थायी संस्थान में बदल जाती है। फिर दूसरे दल भी उसे तोड़ने का साहस नहीं कर पाते। तब किसने किसका इस्तेमाल किया?


यह प्रक्रिया दिनों-दिन बढ़ रही है। इससे पहले अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों को सीधे केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जोड़ने का निर्णय हुआ। धनी मुसलमानों को भी हज सब्सिडी देने की घोषणा की गई। अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा, यानी एक तरह की सत्ताधारी हैसियत दी जा चुकी है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखाएं विभिन्न प्रांतों में किसी राजनीतिक दल की शाखाओं की तरह खोली जा रही हैं!


हमारे ‘सेक्युलर’ नेताओं द्वारा ऐसे स्पष्ट सांप्रदायिक निर्णयों पर निरंतर एक घिसी-पिटी आलोचना आती है कि मुसलमानों का वोट बैंक रूप में इस्तेमाल हो रहा है। यह पूरी उलट-बांसी है। भारत में दलीय राजनीति का संपूर्ण इतिहास कुछ और ही कहता है। लीगी मानसिकता वाले इस्लामी नेता पिछले सौ वषरें से तरह-तरह की वैचारिक, राजनीतिक, भौगोलिक मांगे रखते गए हैं और विविध राजनीतिक दल किसी न किसी झूठी उम्मीद में उन्हें मानते गए। जब कि उम्मीदों में से कोई, कभी पूरी न हुई। कांग्रेस ने लखनऊ पैक्ट, खलीफत का समर्थन आदि इसी आस में किया था कि राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम साथ देंगे। गांधीजी मुस्लिमों के लिए कांग्रेस को वैचारिक, राजनीतिक, भावनात्मक रूप से निरंतर झुकाते चले गए। पर मुसलमान नेता बराबर मांगें बढ़ाते गए, सहयोग देने के लिए बढ़ने के बजाए कदम पीछे खींचते गए। डॉ. अंबेडकर ने इसे सटीक पहचाना था, ‘मुसलमानों की मांगें हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं।’ अंतत: लीगी मानसिकता वाले इस्लामियों ने कांग्रेस को झुकाते और अपनी स्थिति मजबूत करते हुए देश के ही टुकड़े कर डाले।


वस्तुत: स्वतंत्र भारत में लीगी मानसिकता वाले इस्लामियों ने हर दल का इस्तेमाल कर अपनी ताकत बढ़ाई। इसमें उन्हें जैसी सफलता मिली, उसकी अगस्त 1947 में किसी ने कल्पना तक न की थी। तब किसने सोचा था कि सदियों से राम-जन्मभूमि के लिए संघर्ष करने वाले हिंदू अब भी उसे मुक्त नहीं करा पाएंगे! कि नए भारत में, हिंदू प्रधानमंत्रियों के राज में, कश्मीर से हिंदुओं को मार भगा दिया जाएगा। कांग्रेस ने 1947 में देश विभाजन इस दुराशा में स्वीकार किया था कि ‘लीगी मानसिकता’ से मुक्ति मिलेगी- स्वयं नेहरू जी ने यह घोषणा की थी! किंतु समस्या और विकट हो गई। भाजपा ने भी सत्ता में आने के बाद धारा 370 हटाने जैसे आधारभूत मुद्दों को किनारे कर हज यात्रा और मदरसों को अनुदान बढ़ा, बांग्लादेशी घुसपैठियों की अनदेखी कर, मुशर्रफ को गले लगाकर ठीक वही दुराशा पाली। सच यह है कि मुस्लिम समाज किसी दल का वोट-बैंक नहीं है। यह कहना भारी भूल है कि किसी भी दल ने मुस्लिमों का इस्तेमाल किया। स्थिति उल्टी है। पहले देश विभाजन के लिए लीगी मानसिकता वाले इस्लामियों ने गांधीजी और कांग्रेस का उपयोग किया था। 1947 के बाद वोट की धमकी, लोभ दिखा-दिखा उन्होंने हरेक दल को राष्ट्रवाद, संविधान, लोकतंत्र, न्यायपालिका आदि सब बिसरा कर अपने एजेंडे की मदद करने पर मजबूर किया। उन के नेता अपनी भंगिमा से विभिन्न दलों को बढ़-बढ़ कर बोली लगाने को प्रेरित करते हैं कि कौन दल उनके एजेंडे को विस्तार देने में कितनी मदद करेगा।


उदाहरण के लिए, बिहार विधानसभा चुनाव के समय रामविलास पासवान ने मांग की कि संसद भवन में मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर लगाई जानी चाहिए। यह मांग किसी मुस्लिम ने नहीं की थी। मुिस्लम वोट तो किसी एक को ही मिलता है, किंतु इस बीच हरेक दल लीगी मानसिकता को पहले से अधिक वैचारिक-राजनीतिक जमीन दे चुकता है। यह सब संविधान और मानवीयता तक के विरुद्ध है। पर लोभ, भ्रम के वशीभूत हिंदू नेता-बुद्धिजीवी यही ठीक समझते हैं। भारत में ‘सेक्युलरिज्म’ को हिंदू-विरोधी अर्थ व दिशा देने का काम मुख्यत: हिंदू नेताओं ने ही किया। नेहरू शासन में ही यह आरंभ हो गया था जिसे दिग्विजय सिंह आज भी ठसक से कर रहे हैं। उन के लिए विश्व-कुख्यात आतंकवादी ‘लादेनजी’ है, जबकि योग-गुरु ‘रामदेव ठग’! ऐसा कहने वाले दिग्विजय सिंह की कांग्रेस में सर्वोच्च नीतिकार की हैसियत है।


लेखक एस शंकर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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