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खतरनाक तकरार

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayarसेनाध्यक्ष-सरकार में तकरार पर दोनों पक्षों को दोषी मान रहे हैं कुलदीप नैयर


भारत और पाकिस्तान के सेना प्रमुखों का मुद्दा अभी भी बहस का विषय बना हुआ है। सेना प्रमुख वीके सिंह जन्मतिथि के दावे को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके हैं। भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। जनरल सिंह इस बात पर अड़े हुए हैं कि उनका जन्म 1951 में ही हुआ था। जबकि सरकार कह रही है कि उनका जन्म 1950 में हुआ था। इसका मतलब हुआ कि इस वर्ष मई में उन्हें अवकाश प्राप्त करना होगा। इस विवाद को सावधानी के साथ निपटाना चाहिए था। सद्भावपूर्ण समाधान खोजा जाना चाहिए था और इसे इस मुकाम तक नहीं जाने देना चाहिए था। रक्षामंत्री एके एंटोनी संतुलित और अनुभवी मंत्री हैं। तो आखिर क्यों उन्होंने इस विवाद को इस हद तक जाने दिया? फिर भी जनरल सिंह द्वारा सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना सही नहीं है। ऐसा कर उन्होंने समाधान के सबसे खराब विकल्प को चुना है। उधर, भाजपा नेता जसवंत सिंह ने सरकार के निर्णय को निरंकुश प्रशासनिक कार्रवाई बताया है। उन्होंने कहा है कि सशस्त्र सेना की तलवार को कुंद कर दिया गया है। यह खेद की बात है कि जसवंत सिंह 15 साल तक संसद में रहने के बावजूद अपनी तानाशाही प्रवृत्ति से उबर नहीं पाए हैं। लोकतंत्र में जनता की संप्रभुता, यानी नागरिक पक्ष सर्वोच्च है, न कि सेना या और कोई दूसरी संस्था।


दुर्भाग्य की बात है कि बर्खास्त नौसेना प्रमुख भागवत ने भी इसी तरह की प्रतिक्रिया दी है। लेकिन उनकी कटुता को समझा जा सकता है। उन्हें सांप्रदायिकता का शिकार होना पड़ा था। उस वक्त भाजपा सत्ता में थी। फिर भी उन्होंने कम से कम संतुलन बनाए रखा था। उन्होंने अपने मामले को सिविल और सैन्य प्रशासन के बीच का विवाद नहीं बनाया था, जैसा करने की कोशिश जनरल सिंह कर रहे हैं।


जनरल सिंह ने जब पदोन्नति और खासकर सेना प्रमुख बनते वक्त 1950 को स्वीकार किया था, तो अब उन्हें अपनी बात से पीछे नहीं हटना चाहिए था। इस बात पर उन्हें और उनके समर्थकों को विचार करना चाहिए। उनका रवैया खतरनाक महत्वाकांक्षा का नमूना है। और जब सेना के कुछ अवकाश प्राप्त बड़े अधिकारी इसे सिविल और सैन्य प्रशासन के बीच का विवाद बताते हैं तो वे भारत के लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हैं। जब जनता द्वारा निर्वाचित सरकार कोई निर्णय करती है तो उसकी अवहेलना का कोई सवाल नहीं उठता। अगर जनरल सिंह को इतना ही गुस्सा था, तो उन्हें इस्तीफा देकर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए था।


मुझे लगता है कि जनरल सिंह को भाजपा ने उकसाया है। नहीं तो फिर जसवंत सिंह इस तरह की बात क्यों करते? यह अलग बात है कि सरकार ने भी पूरी नासमझी से काम किया है। लेकिन सवाल इससे बड़ा है। सेना प्रमुख ने भारतीय संघ को चुनौती दी है। जब देश का सवाल उठता है तो कोई लीपापोती नहीं चल सकती। जनरल सिंह को गलत सलाह दी गई है और उन्होंने अपने पद की गरिमा के साथ खिलवाड़ किया है।


सरकार ने कोर्ट में कैविएट दाखिल की है, ताकि उसका पक्ष सुने बिना कोई निर्णय न आए। जबकि होना तो यह चाहिए था कि अनुशासनहीनता के इस मामले से इसी तरीके से निपटाना चाहिए था, कोर्ट के जरिये नहीं। मैं यह जानकर अचंभित रह गया कि अब जाकर पिछले दरवाजे से सुलह की कुछ कोशिशें की गई हैं। ये कोशिशें जनरल सिंह के कोर्ट जाने से पहले होनी चाहिए थी। अब यह जनता की संप्रभुता की कीमत पर समझौता करने जैसा होगा, क्योंकि सरकार तो जनता का ही प्रतिनिधित्व करती है।


उधर, पाकिस्तान में जनरल अशफाक परवेज कयानी का मामला देश की कुछ दूसरी घटनाओं के कारण पीछे चला गया है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने सेना प्रमुख को लताड़ा है। गिलानी ने सेना प्रमुख से कहा है कि एक व्यापारी मंसूर एजाज के मार्फत अमेरिका से मदद मांगने के संबंध में उनसे जो सवाल किया गया था, उसका जवाब उन्हें सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति को सीधे अपनी तरफ से नहीं देना चाहिए था। इतना ही नहीं गिलानी ने अपने रक्षा सचिव को भी बर्खास्त कर दिया है। रक्षा सचिव ने कहा था कि देश सेना के नियंत्रण में है और वह सरकार के अधीन सरकार को स्वीकार नहीं करेंगे।


इस्लामाबाद को बताए बगैर अमेरिका ने एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या कर दी थी तो गिलानी ने संसद में सेना प्रमुख कयानी और आइएसआइ प्रमुख शुजा पाशा का समर्थन जरूरत से ज्यादा आगे बढ़कर किया था, लेकिन अपनी गलती से हर कोई सीखता है और गिलानी कोई अपवाद नहीं हैं। हकीकत तो यह है कि गिलानी ने इस बात को समझा कि नतीजा चाहे जो भी निकले, पाकिस्तान की मूल समस्या प्रशासनिक मामलों में सेना का हस्तक्षेप है। और यह जानने के बाद उन्होंने लोकतंत्र की मांग के समर्थन में देश को एक किया।


पाकिस्तान की एक और घटना चर्चा में रही। सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी को अवमानना का नोटिस जारी किया है। राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और बेनजीर भुट्टो के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में कोर्ट का आदेश नहीं मानने के लिए कोर्ट ने गिलानी की खिंचाई की है। सरकार की ओर से बचाव में कहा गया है कि पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुर्शरफ ने अध्यादेश जारी कर कुछ अन्य लोगों के साथ इन दोनों को इस मामले में बरी कर दिया था।


अभी तय नहीं है कि गिलानी का भविष्य क्या होगा। लेकिन नतीजा चाहे जो हो गिलानी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सेना के दबाव का मुकाबला किया है। संभवत: पाकिस्तान की मौजूदा सेना उस हद तक नहीं जा रही थी जिस हद तक जनरल अयूब खान और जिया उल हक चले गए थे। गिलानी मौके का इंतजार कर रहे थे और मौका मिलते ही वार कर दिया है।


अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। इसी सुप्रीम कोर्ट ने जनरल अयूब खान द्वारा किए गए तख्तापलट को कानूनी वैधता प्रदान की थी और इसके लिए आवश्यकता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, लेकिन मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट को स्वतंत्रता मुहैया कराई है, जिसकी जरूरत पाकिस्तान को है।


वास्तव में पाकिस्तान बदल चुका है, लेकिन भारत को अभी भी समझना है। पाकिस्तान की जनता और राजनीतिक दल सेना की वापसी के विरोध में एकजुट हैं। फिलहाल, वहां लोकतंत्र बना रहेगा। दोनों पड़ोसी देशों के बीच दोस्ताने रिश्ते का आधार जनता है। शांति का कोई विकल्प नहीं है।


लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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