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राज्यसभा चुनाव में भी भ्रष्टाचार

जागरण मेहमान कोना
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Rajnath Suryaराज्यसभा निर्वाचन प्रक्रिया को किसी भी तरह के प्रलोभन और पक्षपात से मुक्त कराने के लिए चुनाव आयोग ने कई उपाय किए हैं। इसी के तहत चुनाव आयोग ने झारखंड में राज्यसभा के लिए हुए मतदान के समय उम्मीदवार की कार से करोड़ों रुपये की बरामदगी को गंभीरता से लेते हुए उसे निरस्त करने का निर्णय लिया। यह कदम स्वागतयोग्य है, लेकिन प्रश्न है कि निर्दलीय उम्मीदवारों को खड़े होने की अनुमति ही क्यों होनी चाहिए? जिसके पास एक भी वोट नहीं है वह कैसे नामांकन करता है और मत प्राप्त करता है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्राय: ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार बड़े उद्योगपति होते हैं जो खरीद-फरोख्त को बढ़ावा देते हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए अधिकतम खर्च की सीमा निर्धारित है, लेकिन राज्यसभा या विधान परिषद के लिए कोई सीमा नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे प्रत्याशी पचास से साठ करोड़ रुपये तक खर्च करते हैं। पार्टी को धन देने के अलावा उन्हें विधायकों को भी संतुष्ट करना पड़ता है। नोट के बदले वोट का एक मामला न्यायालय में विचाराधीन है, लेकिन ऐसे मामले कोई नई बात नहीं हैं।


अल्पमत या साझा सरकारें सत्ता में बने रहने के लिए यह सब करती रहती हैं। निर्वाचन आयोग का ध्यान इस ओर गया है या नहीं यह कहना मुश्किल है, क्योंकि लोकसभा या विधानसभाओं के निर्वाचन में भ्रष्ट उपाय अपनाने के लिए पकड़े जाने वालों के खिलाफ चेतावनी या पेशी से अधिक कोई कार्रवाई नहीं होती। न्यायालय में दाखिल याचिकाओं पर निर्णय आते-आते कई बार सांसदों का कार्यकाल खत्म हो चुका होता है। केंद्र सरकार ने तो बहुमत के लिए भय और लोभ का भी सहारा लिया है। इसके लिए सीबीआइ का भय दिखाकर अथवा किसी को विशेष पैकेज देकर अपने पक्ष में किया जाता है। इसका फायदा सरकार में भागीदार अथवा समर्थन दे रहे दल उठा रहे हैं। इस सबका नतीजा है कि सरकार की साख सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। इस समय देश प्रशासनहीनता के दौर से गुजर रहा है। राजनीतिक दल सत्ता के मोह में उस स्तर पर पहुंच गए हैं जहां देश और जनता के लिए बेहतर सोच की कोई गुंजाइश नहीं बचती। चुनाव घोषणापत्र में ऐसे वायदे किए जाते हैं जिन्हें पूरा करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं। इसके दो भयावह परिणाम सामने आ रहे हैं। देश में मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिल रहा है और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो रहा है।


कब लौटेगा काला धन


मनरेगा इस मुफ्तखोरी और भ्रष्टाचार का एकमात्र उदाहरण नहीं है। चाहे केंद्र हो या राज्य सरकार जनकल्याण के नाम पर शुरू की गई योजनाओं का यही हश्र देखने को मिल रहा है। सर्वशिक्षा अभियान, साक्षरता अभियान, पुष्टाहार आदि योजनाओं का लाभ कौन उठा रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। लोगों को आश्चर्य होता है कि कोई विधायक या सांसद बनते ही करोड़पति कैसे हो जाता है? इसके लिए चर्चा होती है केवल विधायक या सांसद निधि की, लेकिन सच्चाई यही है कि नौकरशाहों और जनप्रतिनिधियों की संपन्नता में जनकल्याण योजनाओं की मुख्य भूमिका होती है। जनकल्याणकारी योजनाओं से पहुंच वालों का कल्याण हो रहा है न कि जरूरतमंदों का। ऐसा नहीं है कि सरकार को इस बारे में पता नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से चला एक रुपया गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते सोलह पैसे रह जाता है। राहुल गांधी ने भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में इसकी याद दिलाई। अब केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मांग कर रहे हैं कि ग्रामीण स्वास्थ्य योजनाओं में हुए अरबों रुपये के घोटाले की जांच सीबीआइ को सौंप दी जाए।


कल्याण योजनाओं में खरबों रुपये बिचौलियों की जेब में जा रहे हैं। एक ओर प्रत्यक्ष से अधिक अप्रत्यक्ष करों का बोझ निरंतर बढ़ रहा है तो दूसरी ओर कल्याणकारी मदों के अंधे कुंए में खरबों रुपये डुबाए जा रहे हैं। अनुत्पादक मदों में बढ़ते इस खर्च का बोझ आखिरकार आम आदमी को ही उठाना पड़ता है। सभी राज्य सरकारें घाटे में चल रही हैं, उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है, लेकिन चुनाव आते ही कल्याणकारी मदों में और अधिक धन लगाने का वायदा किया जाता है। घाटे की अर्थव्यवस्था के चलते देश की प्रभुसत्ता पर आर्थिक साम्राज्यवादी देशों का दबदबा बढ़ रहा है। एक साधारण व्यापारी भी वहीं धन लगाता है जहां लाभ होता है, लेकिन हमारी सरकारें उन मदों में धन लगा रही हैं जिनका कोई प्रतिफल नहीं। उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत वाली वर्तमान समाजवादी सरकार केंद्र के सामने असहाय नहीं है। देश के इस सबसे बड़े राज्य को आगे बढ़ाने के लिए उत्पादक मदों में निवेश बढ़ाने का एक सुनहरा अवसर है, लेकिन उसकी प्राथमिकता लुभावने अनुत्पादक मदों में निवेश की दिख रही है। जिन मदों में नियोजन के मापदंड भी नहीं निर्धारित हैं उन्हीं के लिए बढ़-चढ़कर घोषणाएं की जा रही हैं। इसका नतीजा बिचौलियों की संख्या में इजाफा और आम लोगों में असंतोष के रूप में सामने आ रहा है। देश के सबसे बड़े राज्य की इस स्थिति का क्या प्रभाव होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।


समाजवादी पार्टी के मुताबिक उसे मायावती से खाली खजाना मिला है, लेकिन वह स्वयं ऐसी योजनाओं को प्राथमिकता दे रही है जिससे रही-सही कसर भी पूरी हो जाएगी। केंद्र और राज्य सरकारों को मुफ्तखोरी और भ्रष्टाचार से उबारने के लिए कल्याणकारी योजनाओं की प्राथमिकता तय करनी चाहिए। अब समय आ गया है जब राष्ट्रहित और जनहित के मुद्दों पर आम सहमति बनाकर काम किया जाए।


लेखक राजनाथ सिंह सूर्य राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं


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