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भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा क्यों नहीं

जागरण मेहमान कोना
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N.K Singhभ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा क्यों नहीं विख्यात न्यायविद सॉलमंड ने कहा था, वह समाज जो अत्याचार होने पर भी उद्वेलित नहीं होता, उसे कानून की प्रभावी पद्धति कभी नहीं मिल सकती। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में उत्तर प्रदेश में 8800 करोड़ में से 5000 करोड़ रुपये मंत्री से लेकर संतरी तक हजम कर गए, लेकिन यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। कुछ माह पहले लगा था कि भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में एक जबर्दस्त जनाक्रोश फूट पड़ा है और यह आक्रोश जल्द ठंडा नहीं पड़ेगा, लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और अन्य तीन राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में शायद ही भ्रष्टाचार एक मुद्दा बन पाया है। इसके विपरीत तमाम राजनीतिक दलों ने बड़े पैमाने पर आपराधिक छवि के लोगों को टिकट दिए हैं। बड़ी पार्टियों द्वारा खड़ा किया गया हर तीसरा उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि का है। ऐसा लगता है कि तुलसीदास के कोउ नृप होहिं हमे का हानि की मानसिकता ने हमारे विद्रोही तेवरों को ठंडा कर दिया है। हमें चिंता नहीं है कि नृप कौन होगा। हमने मान लिया है कि सत्ता सत्ताधारियों की है, लूटना उनका काम है और हमें दासत्व भाव में इस त्रासदी को जीवनपर्यंत झेलना है। वरना कोई कारण नहीं था कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में इतने बड़े घपले के बाद भी भ्रष्टाचार मुद्दा न बनता।


भ्रष्टाचारियों के हौसले और हिमाकत का यह आलम है कि जेल में हत्याएं की जा रही हैं ताकि राज न खुल सके। एक दल भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्री को निकालता है तो अगले ही दिन शुचिता का दावा करने वाली देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी उसे गले लगा लेती है। अगर जनाक्रोश का डर होता तो कम से कम चुनाव के वक्त कोई पार्टी इस तरह का दुस्साहस नहीं कर पाती। क्या वजह है कि आज भी इन तथाकथित मुख्य पार्टियों का हर तीसरा उम्मीदवार आपराधिक छवि का है? क्या निरपराधियों के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं बची है?


सभी राजनीतिक दलों ने अपना घोषणा-पत्र जारी किया, लेकिन एक ने भी यह नहीं बताया कि भ्रष्टाचार से लड़ने का उनके पास कौन-सा नुस्खा है? किसी ने मुस्लिम आरक्षण की बात की तो किसी ने बेरोजगारों को बैठे-बिठाए भत्ता देने का वादा किया। दरअसल, हमाम में रहने का एक नियम है कि कोई किसी को नंगा नहीं कहेगा। लिहाजा कमर के ऊपर तक कपड़ा न होने को लेकर भले ही एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हों, लेकिन कमर के नीचे क्या है इसके बारे में कोई नहीं बोलता।


इटली की समसामयिक राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने से समझ में आता है कि किस तरह माफिया गैंग कानून-व्यवस्था व सरकारों पर भारी ही नहीं पड़ते, बल्कि उनको जिस तरह चाहते हैं तोड़-मरोड़ लेते हैं। भारत में भी जिस तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा के करीबी माने जाने वाले सादिक बाचा का शव उसी के घर में फांसी के फंदे पर झूलता मिला, वह संकेत है कि भारत भी इटली के रास्ते पर चल रहा है। इसी तरह चारा घोटाला मामले में पशुपालन मंत्री भोलाराम तूफानी ने खुद को चाकू घोंपकर आत्महत्या कर ली। वह भी घोटाले में आरोपी थे। इसी तरह गाजियाबाद जिला न्यायालय के ट्रेजरी में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर के पद पर तैनात आशुतोष अस्थाना की डासना जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। पीएफ घोटाले में उन पर भी आरोप लगे थे और साथ ही इस बात का भी डर था कि इस घोटाले में आशुतोष द्वारा कई जजों के नाम उजागर किए जा सकते हैं। इसी तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन के निजी सचिव शशिनाथ झा की भी रांची के पिस्कानगरी गांव में हत्या कर दी गई। माना जाता है कि झा को अपने बॉस के बारे में बहुत कुछ मालूम था। 65 साल से इतना सब होने के बाद भी चेरी छोड़ न होउब रानी के सिंड्रोम से हम बाहर नहीं निकल सके। धर्म तेजा से राजू तक कफन-घसोट हमारी लाश से चद्दर भी ले जाते रहे पर हमने मान लिया कि जनता राजा नहीं बनाती और राजा जो चाहता है वह कर लेता है।


70 लाख करोड़ के कालेधन की कोख से उपजा भ्रष्टतंत्र भीमकाय होता रहा और अब वह इतना ताकतवर हो गया है कि समूचे समाज को मुंह चिढ़ाकर राजफाश करने वालों की हत्याएं कर रहा है। इसी बीच जो कुछ दासत्व भाव वाले गलती से शीर्ष पर पहुंच गए, उन्होंने भी नृप का चोला पहन लिया और मौसेरे भाई बन गए। इनमें से अगर कभी किसी ने अन्नाभाव में आने की कोशिश की तो या तो वह अलग-थलग पड़ गया या फिर चांदी के जूते खाकर चुप हो गया। आज खतरा यह है कि इस भ्रष्टतंत्र में लगे माफिया अब न तो उन्हे अलग-थलग करेंगे ना तो चांदी का जूता दिखाएंगे, बल्कि सिर्फ यह संदेश देंगे कि मौत कब, कहां आ जाए कोई भरोसा नहीं। आज से कुछ साल पहले तक अपराधी को यह डर रहता था कि भरे बाजार से लड़की उठाने पर लोगों का प्रतिरोध झेलना पड़ सकता है, लेकिन आजकल हम नजरें मोड़ लेने के भाव में आ गए हैं। अमेरिका में इन्हीं स्थितियों से निपटने के लिए गवाह सुरक्षा अधिनियम लाया गया ताकि हम अपराधी का प्रतिरोध न कर सकें तो कम से कम गवाही तो दे सकें। इसके ठीक विपरीत आज भारत में आम आदमी तो दूर पुलिस तक अपराधियों से अपनी जान बचा रही है।


नोनन ने अपनी किताब ब्राइब में लिखा था, हमें जनजीवन में भ्रष्टाचार के बारे में अपना फैसला इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि हमने कितने कानून बनाए और कितने लोगों को सजा दी। भ्रष्टाचार की विभीषिका का अंदाजा तब लगता है जब हम यह समझ जाएं कि समाज छोटे से छोटे भ्रष्टाचार या अनैतिकता को लेकर किस हद तक संवेदनशील हैं।


लेखक एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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