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निष्पक्षता पर सवाल

जागरण मेहमान कोना
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मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढकने के चुनाव आयोग के फैसले को एकतरफा और अतार्किक मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश


इसमें संदेह नहीं कि निर्वाचन आयोग ने पिछले दो दशक के दौरान चुनावी प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने और धनबल व बाहुबल पर अंकुश लगाने की दिशा में असाधारण कार्य किया है, लेकिन उसके हाल के कुछ निर्णयों पर ऐसे सवाल खड़े हुए हैं कि उसने राजनीतिक दलों से संबंधित मामलों में नीर-क्षीर ढंग से कार्य नहीं किया। चुनाव आयोग ने हाल में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती और बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियों को ढकने का जो आदेश दिया उसकी आलोचना भी हुई और जगहंसाई भी। हाथी अगर बसपा का चुनाव चिह्न है तो साइकिल सपा का और हैंड पंप राष्ट्रीय लोकदल का। यदि हाथी को लोगों की निगाह से हटाना सही है तो साइकिल और हैंडपंप को क्यों नहीं? चुनाव आयोग का तर्क है कि मायावती की प्रतिमाओं और हाथी की मूर्तियों का निर्माण बसपा सरकार द्वारा जनता के धन से किया गया है। लिहाजा यह जरूरी है कि इन मूर्तियों को जनता की निगाहों से हटाया जाए, क्योंकि वे मतदाताओं को प्रभावित करने का काम कर सकती हैं। हैंड पंप और साइकिल इस श्रेणी में नहीं हैं। मुख्यमंत्री की मूर्तियों को ढकने के फैसले में तो कुछ तर्क हो सकता है, लेकिन हाथियों की मूर्तियों पर पर्दा डालने का आदेश देकर चुनाव आयोग कुछ ज्यादा ही दूर चला गया। आश्चर्य नहीं कि निर्वाचन आयोग का यह आदेश लोगों के बीच मजाक का विषय भी बन गया है।


अगर एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि चूंकि मायावती ने इन मूर्तियों के निर्माण में सरकारी कोष का इस्तेमाल किया है इसलिए चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने तक उन्हें ढककर रखा जाना चाहिए ताकि इसका सत्तारूढ़ बसपा को चुनाव में अनुचित लाभ न मिल सके तो भी यह सवाल उठेगा कि यदि ये मूर्तियां सबके सामने होतीं अर्थात ढकी न गई होतीं तो क्या वास्तव में इसका अनुचित लाभ बसपा को मिलता? एक सवाल यह भी है कि यदि कोई राजनीतिक दल सत्ता में रहते हुए सार्वजनिक कोष से कोई निर्माण कराता है तो क्या उसे चुनाव के मौके पर लोगों की निगाह से दूर कर दिया जाना चाहिए? अगर वाकई ऐसा करना जरूरी है तो निर्वाचन आयोग को कांग्रेस पार्टी में कुछ गलत क्यों नजर नहीं आता जो सब कुछ नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों से जोड़ देती है?


मार्च 2009 में चुनाव आयोग के समक्ष दर्ज कराई गई अपनी याचिका में मैंने आयोग का ध्यान इस ओर दिलाया था कि साढ़े चार सौ से अधिक सरकारी योजनाएं, कार्यक्रम और संस्थान एक पार्टी यानी कांग्रेस से जुड़े नेहरू-गांधी परिवार को समर्पित हैं। याचिका का मुख्य आधार यह था कि यद्यपि यह किसी सरकार का विशेषाधिकार है कि वह किसी संस्थान का नाम किसी ऐसे व्यक्ति के नाम पर रखे जिसे वह राष्ट्रीय या प्रांतीय स्तर का नेता मानती हो, लेकिन लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ी सरकारी योजनाओं, जैसे पेयजल, आवास, वृद्धावस्था पेंशन, रोजगार गारंटी से संबंधित योजनाएं पूरी तरह अलग श्रेणी में आती हैं। यदि इन योजनाओं का नामकरण राजनीतिक तौर पर पूरी तरह निष्पक्ष नहीं होगा तो हमारे लोकतंत्र की पवित्रता खतरे में पड़ जाएगी और इससे राजनीतिक दल विशेष को चुनाव में अनुचित लाभ भी मिलेगा। मौजूदा समय इस तरह की योजनाओं का जैसा नामकरण होता है उससे नागरिकों को यह अनुभूति कराने की कोशिश की जाती है कि उन्हें रहने के लिए जो घर मिल रहा है अथवा बिजली या पेयजल मिल रहा है या फिर बच्चों के रहने के लिए ठिकाना या वृद्धों को पेंशन मिल रही है वह एक परिवार और एक राजनीतिक दल की कृपा के कारण है। इस स्थिति में यह दावा कैसे किया जा सकता है कि चुनाव में सभी राजनीतिक दलों को समान धरातल पर लाने के सिद्धांत का पालन किया जाएगा? चुनाव आयोग ने मेरी याचिका खारिज कर दी। आयोग ने कहा कि अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उसके लिए यह उचित नहीं कि वह गैर-चुनावी अवधि में कल्याणकारी योजनाएं लागू करने के केंद्र अथवा राज्य सरकारों के सामान्य कामकाज पर दखल दे। चुनाव के दौरान जब आचार संहिता लागू होती है तो आयोग यह सुनिश्चित करता है कि उसका समुचित पालन हो।


अगर गैर-चुनाव अवधि में कल्याणकारी योजनाओं का नामकरण केंद्र और राज्य सरकार का सामान्य कामकाज है तो यह कहने की जरूरत नहीं कि मायावती सरकार ने दलित चिंतकों और महापुरुषों के बलिदान का स्मरण करने के लिए उनकी जो मूर्तियां स्थापित कीं वह भी उसका सामान्य कामकाज है। फिर आयोग यह भी कहता है कि जब आचार संहिता लागू होती है तो वह इसका अनुपालन सुनिश्चित करने का कार्य करता है। मौजूदा मामले में आचार संहिता लागू करने के लिए आयोग ने मायावती और हाथियों की मूर्तियों को ढकने का आदेश दे दिया, लेकिन उसे इसी आधार पर केंद्र सरकार को भी यह निर्देश देना चाहिए कि वह केंद्रीय योजनाओं से नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के नाम हटाए। यह समझना कठिन है कि हाथियों की मूर्तियां तो समान धरातल के सिद्धांत पर अमल में बाधक हैं, लेकिन राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के नाम पर चलाई जा रही केंद्रीय योजनाओं में 1.50 लाख करोड़ रुपये का निवेश गलत क्यों नहीं है? चुनाव आयोग के तर्क के आधार पर तो उचित यह होगा कि केंद्रीय योजनाओं के लिए स्थाई तौर पर यह सुनिश्चित किया जाए कि उनका नामकरण राजनीतिक रूप से निष्पक्ष हो।


मायावती सरकार इसलिए श्रेय की हकदार है कि उसने संविधान के निर्माण में महान योगदान देने वाले डॉ. बीआर अंबेडकर के सम्मान में स्मारकों का निर्माण कराया। केंद्र में ज्यादातर समय राज करने वाली कांग्रेस ने कभी भी उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह हकदार हैं। इसके विपरीत वह एक परिवार के महिमामंडन में इस हद तक आगे चली गई कि उसने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति का नाम डॉ. अंबेडकर के बजाय राजीव गांधी के नाम पर रख दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि मायावती सरकार डॉ. अंबेडकर को दिए गए सम्मान के लिए बधाई की पात्र है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर खुद मायावती और बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियां स्थापित करने के फैसले की सराहना नहीं की जा सकती। फिर भी चुनाव आयोग को इस सवाल से जूझना ही होगा कि जब बात कांग्रेस पार्टी की आती है तो वह इतनी मजबूती से काम क्यों नहीं कर पाता?


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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