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सभ्य होने पर बड़ा सवाल

जागरण मेहमान कोना
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दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के पीछे पुरुषों के वर्चस्ववादी दृष्टिकोण को मुख्य कारण मान रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार


पिछले कुछ दिनों से दुष्कर्म से संबंधित घटनाएं समाचारों की सुर्खियों में हैं। खास तौर से बंगाल में हुई ऐसी घटनाओं को सारे देश के मीडिया में जगह मिली। हालांकि बंगाल में इन घटनाओं को एक राजनीतिक रंग दे दिया गया है। इसी तरह की एक अन्य घटना राष्ट्रीय खबर बनी जब नोएडा में एक किशोरी के साथ हुए दुष्कर्म में उच्च पुलिस अधिकारी ने बड़े भद्दे तरीके से बर्ताव किया। इन सबके अतिरिक्त बिहार, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि लगभग सभी हिस्सों से दुष्कर्म या उत्पीड़न की घटनाएं सुनने को मिलती आ रही हैं। हो सकता है कि इनमें से एकाध घटनाएं सत्य न होकर विरोधी पक्ष को फंसाने या बदनाम करने की साजिश हो, लेकिन इस बात से कतई नहीं इंकार किया जा सकता है कि ऐसे जघन्य कांड आए दिन हो रहे हैं। क्यों हो रही हैं ऐसी घटनाएं? इन्हें कैसे रोका जाए और इनसे कैसे मुक्ति मिले? इन सबके लिए इन घटनाओं के पीछे के समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को समझना जरूरी है।


आंध्र प्रदेश के पुलिस महानिदेशक अथवा कर्नाटक के महिला और बाल कल्याण विकास मंत्री के हालिया बयान कि दुष्कर्म या उत्पीड़न जैसी घटनाओं के पीछे स्त्रियों की पोशाक ही है, एक गंभीर घटना का सतही आकलन तो है ही, साथ ही गैरजिम्मेदाराना भी है। दरअसल इस तरह की घटनाओं के बहुआयामी कारण हैं। समाजशास्त्रियों के अनुसार इसके लिए जो चीज सबसे अधिक जिम्मेदार है वह है हमारी पुरुष वर्चस्ववादी और अहंवादी दृष्टि, जिसके तहत स्त्रियों को निम्न, साथ ही उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है और कई बार रंजिश में बदला लेने के लिए औरतों की इज्जत को निशाना बनाया जाता है। यह स्थिति केवल एक धर्म, जाति या समुदाय तक सीमित नहीं है। इसी मानसिकता की ही एक अभिव्यक्ति है जिसमें बेटे को ही सामाजिक-आर्थिक उत्तराधिकारी समझा जाता है और बेटी को पराया धन और इस कारण बेटा पैदा करने को वरीयता दी जाती है। यह अकारण नहीं है कि देश में लिंग अनुपात अर्थात प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में कमी आती जा रही है और इसमें भी बाल- लिंग अनुपात [5 वर्ष से छोटे बच्चों में प्रति 1000 लड़कों में लड़कियों की संख्या] दर तो और भी कम होती जा रही है। यह एक खतरनाक स्थिति है जो आगे चलकर कई तरह के असंतुलनों को जन्म देगी, लेकिन अफसोस है कि हमारे नीति निर्धारकों को वास्तविक राष्ट्रीय हितों-मुद्दों से कोई मतलब ही नहीं है।


दुष्कर्म की इन घटनाओं को देखें तो इनसे एक बात स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है कि इसमें शिकार सिर्फ वे युवा स्त्रियां नहीं हैं जो नैतिकता के तथाकथित ठेकेदारों की नजर में ‘उत्तेजक’ वस्त्र पहनती थीं, बल्कि इनमें काफी बड़ी संख्या नाबालिग लड़कियों की रही हैं। इस प्रकरण का सबसे दुखद पक्ष यह है कि नाबालिगों में 5-10साल की अबोध लड़कियां भी रही हैं। इसी तरह 30वर्ष से अधिक के उम्र के महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है। ये तथ्य पोशाक वाली थ्योरी का एक तरह से खंडन करते हैं। पोशाक वाली थ्योरी इस बात से भी गलत सिद्ध हो जाती है कि इन घटनाओं में कई बार दुष्कर्म निकट का रिश्तेदार रहा है या परिचित अथवा मित्र जैसा व्यक्ति। फिर कई घटनाओं में तो दुष्कर्मी डॉक्टर या मेडिकल पेशे से जुड़ा हुआ व्यक्ति पाया गया, जिसके पास स्त्री चिकित्सकीय सलाह या मदद के लिए गई थी।


समाजशास्त्रियों के अनुसार इस तरह के कृत्यों के लिए एक अन्य स्थिति जो जिम्मेदार है वह है सामुदायिकता की भावना का उत्तरोत्तर कम होते जाना। किसी समय हमारे समाज, मोहल्ले, गांव, कस्बे एक विस्तृत परिवार की तरह होते थे। जहां अड़ोसी-पड़ोसी तक का लिहाज किया जाता था, लोग एक दूसरे के सुख-दु:ख में साझेदारी किया करते थे, लेकिन बढ़ते हुए नगरीकरण, एकाकीपन, चरम वैयक्तिकता और आगे बढ़ने की होड़ आदि ने इस सामूहिकता की भावना को कमजोर किया है। इसी के साथ-साथ एक चीज जो बच्चों, यहां तक कि युवा पीढ़ी में आती जा रही है कि शारीरिक खेलों की जगह, जो सामूहिकता की भावना को मजबूत करते हैं वे टीवी, वीडियो गेम आदि तक सीमित होते जा रहे हैं। रही-सही कसर इंटरनेट ने पूरी कर दी है। कंप्यूटर और इंटरनेट के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। यहां इशारा इस बात की ओर है कि कैसे कंप्यूटर-इंटरनेट के दुष्प्रभावों से बचा जाए, खास तौर से पोर्नोग्राफी जैसी चीजों से, जो अपरिपक्व मन को विकृत ही करती है या वर्चुअलरियलिटीजैसी चीजों से जो इंसान को एक भ्रामक भुलावे के स्थिति में छोड़ देती है। यहीं रेप का मनोवैज्ञानिक पक्ष सामने आता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आम तौर पर दुष्कर्मी या तो भावनात्मक रूप से अशांत- विक्षुब्ध होते हैं या फिर व्यक्तित्व के विकार से ग्रस्त। धीरे-धीरे भारत में भी मनोवैज्ञानिक समस्याएं लोगों में बढ़ रही हैं।


अभी हाल में आई ‘संयुक्त राष्ट्र की एक रपट में कहा गया है कि भारत आज दुनिया के उन देशों में है जहां हेरोइन की खपत सबसे ज्यादा हो रही है। वैसे देखा जाए तो दुष्कर्म की घटनाओं में समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक कारक मिले-जुले होते हैं और हर मामले की अपनी कुछ विशिष्टताएं होती हैं, जिन्हें अलग- अलग रेखांकित किया जाना चाहिए। पुलिस और न्याय व्यवस्था के अक्सर असंवेदनशील दिखने वाले रवैये को भी बदलने की जरूरत पर विचार करने की आवश्यकता है। न केवल हर थाने में महिला पुलिस की तैनाती हो, बल्कि इसके मुकदमे में दोनों ही पक्षों के वकील अनिवार्य रूप से महिलाएं ही हों। दुष्कर्म के मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित होने चाहिए ताकि दोषियों को जल्द से जल्द दंडित किया जा सके। समय आ गया है कि सरकार विभिन्न पक्षों से मिलकर इस दिशा में कार्य करे।


लेखक डॉ. निरंजन कुमार दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं


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