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पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर इस वर्ष 7 प्रतिशत के आसपास रहने का अनुमान है, जबकि फरवरी 2011 में सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के बाद कहा गया था कि यह दर 8.5 प्रतिशत रहेगी। अगस्त 2011 में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने इस अनुमान को घटाकर 8.2 प्रतिशत कर दिया था। दिसंबर 2011 तक आते-आते वित्त मंत्रालय के अर्द्धवार्षिक समीक्षा में इसे घटाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया था। अब प्रधानमंत्री ने इस अनुमान को और घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। पिछले साल यह आर्थिक विकास दर 8.5 प्रतिशत थी। आर्थिक वृद्धि के घटे हुए अनुमानों को यह कहकर औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है कि वैश्विक मंदी के बावजूद हम इतना प्राप्त करने की स्थिति में आ सके हैं। नई आर्थिक नीति और तथाकथित आर्थिक सुधारों के समर्थक लगातार यह कहते रहे हैं कि इससे आर्थिक विकास दर को बढ़ावा मिलेगा और देश के आम लोगों का जीवन स्तर भी इससे सुधरेगा। आर्थिक सुधारों के नाम पर अक्सर जो सुझाव आते हैं, वे विदेशी निवेश से संबंधित होते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि आर्थिक सुधार और विदेशी निवेश जैसे एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गए हैं।
प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की मानें तो घटती आर्थिक विकास दर के पीछे सरकार द्वारा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश न कर पाना भी प्रमुख कारण है। पर सभी जानते हैं कि जब भी सरकार जन-विरोधों के चलते तथाकथित आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पाती है तो सारा दोष विरोधियों पर मढ़ने का प्रयास किया जाता है। जब ऐसा नहीं हो पाता तो अर्थव्यवस्था की तमाम समस्याओं के लिए वैश्विक हालात को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बढ़ते सरकारी कर्ज के चलते अमेरिका और यूरोपीय देश भयंकर मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। उसका प्रभाव यह हुआ है कि भारत में जिन विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारी मात्रा में शेयर बाजार में धन लगाया हुआ था, वे अपना धन वापस ले जाने की होड़ में लगे हुए हैं। लिहाजा यहां शेयर बाजारों में तो मंदी आई ही है, विदेशी मुद्रा के बर्हिगमन के कारण रुपया भी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है। रुपये की कमजोरी का एक मुख्य कारण तेजी से बढ़ते आयात विशेष तौर पर चीन से आयात और घटते निर्यात हैं। जो रुपया कुछ माह पहले 44-45 रुपये प्रति डॉलर की दर से खरीदा-बेचा जा रहा था, वह कमजोर होकर 54.25 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया। इससे विदेशों से आयात महंगे हुए, जो पेट्रोल-डीजल आदि की कीमतों में वृद्धि का एक कारण बने। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य का भारत पर कोई विशेष असर दिखाई नहीं देता है। इस मंदी से पहले वर्ष 2008 में अमेरिकी-यूरोपीय देशों में आई मंदी का भी भारत पर कोई विशेष असर नहीं हुआ था। ऐसे में देश में घटती आर्थिक विकास दर अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के कारण नहीं, बल्कि सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण है।
पिछले लगभग कई वर्षो से महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपनाए जाने वाले तमाम उपाय निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा महंगाई खाद्य वस्तुओं में दिखाई देती है, जो मुख्यतौर पर सरकार द्वारा कृषि की अनदेखी के कारण है। कभी-कभी मौसम के अनुसार खाद्य मुद्रा स्फीति थोड़ी-बहुत घट भी जाए तो फिर दोबारा मौसम का असर समाप्त होने के बाद खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की गति फिर तेज हो जाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार महंगाई को रोकने में अपने आप को पूर्णतया असहाय मान रही है। भारतीय रिजर्व बैंक पिछले काफी समय से लगातार ब्याज दरों में वृद्धि करता रहा है। मार्च 2010 से अक्टूबर 2011 के बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने 13 बार ब्याज दरों में वृद्धि की है। जो रेपो रेट मार्च 2010 में महज 5 प्रतिशत थी, अब बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गई है। रिवर्स रेपो रेट 3.5 प्रतिशत से बढ़कर 7.5 प्रतिशत पहुंच चुकी है। कहा जा रहा है कि ब्याज दरें बढ़ाकर देश में मांग को काबू में रखने की कोशिश हो रही है, ताकि महंगाई को रोका जा सके, लेकिन हो रहा है इससे उलटा। क्योंकि ब्याज दरें बढ़ने के बावजूद कीमतें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। अब तो ब्याज दरें बढ़ने का प्रतिकूल प्रभाव भी दिखाई देने लगा है और जहां वर्ष 2010-11 में आर्थिक विकास दर 8.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थी, 2011-12 के वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में यह महज 6.9 प्रतिशत पर पहुंच गई है। हालांकि यह कहा जा रहा है कि वैश्विक मंदी के प्रभाव से आर्थिक विकास दर घट रही है, लेकिन ब्याज दरों के बढ़ने से उद्योगों की लागत बढ़ रही है। इसका असर आर्थिक विकास पर पड़ रहा है।
अगर पिछले 10 वर्षो का लेखा-जोखा लिया जाए तो हम देखते हैं कि देश वर्ष 2008-09 तक में आर्थिक विकास की दर पहले से तेज हुई। भले ही इसके साथ ही साथ कृषि में विकास की दर पहले से काफी घट गई, लेकिन उसके साथ ही साथ सेवा क्षेत्र में होने वाली अभूतपूर्व आर्थिक संवृद्धि ने सकल दर को घटने नहीं दिया, बल्कि उसमें पहले से ज्यादा तेजी आ गई। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस दशक के पहले 6-7 वर्षो तक कीमतों में वृद्धि को काफी हद तक काबू में रखा जा सका। कीमतों में अपेक्षित नियंत्रण के चलते ब्याज दरें घटने लगीं। घटती ब्याज दरों ने देश में घरों, कारों, अन्य उपभोक्ता वस्तुओं आदि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की। यही नहीं, कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा अपने पूर्व में लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा।
देश में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में भी इसकी अच्छी भूमिका रही, क्योंकि प्राइवेट कंपनियों को निवेश के लिए सस्ती दरों पर ऋण मिलना शुरू हो गया। इस प्रकार मांग में अभूतपूर्व वृद्धि तो हुई, साथ ही निवेश की दर भी पहले से कहीं बढ़ गई। गृह निर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होना शुरू हुआ और भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया, लेकिन उसके बाद वर्ष 2008-09 में कीमतों में पुन: वृद्धि होनी शुरू हो गई और ब्याज दरें दोबारा बढ़ने लगीं। वर्ष 2009 से प्रारंभ वैश्विक मंदी के चलते मांग को बनाए रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को फिर से घटाना शुरू किया और उसका अपेक्षित असर मांग पर पड़ा। वर्ष 2009-10 में जहां वैश्किव स्तर पर जीडीपी में 1 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई, भारत में आर्थिक विकास की दर 7 प्रतिशत से भी अधिक दर्ज की गई। पिछले तिमाही में आर्थिक विकास की दर में होने वाली कमी भविष्य में मुश्किलों की ओर संकेत कर रही हैं। देश में इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योगों और सेवा क्षेत्र में तेजी से विकास के लिए आर्थिक विकास की दर को ऊंचा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। बढ़ती महंगाई और उसके कारण मजबूरी में बढ़ाई जा रही ब्याज दरें देश के लिए मुश्किलें बढ़ा रही हैं। आम आदमी का जीवन तो दूभर हो ही रहा है, देश का विकास भी उससे बाधित हो रहा है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि महंगाई पर तुरंत प्रभावी कदम उठाते हुए उसे नियंत्रित किया जाए और ब्याज दरों को नीचा रखते हुए देश की आर्थिक संवृद्धि की यात्रा को अनवरत जारी रखने का काम किया जाए। सरकार को समझना होगा कि महंगाई पर काबू पाने के लिए कृषि उत्पादों की पूर्ति बढ़ानी होगी और उसके लिए उसे अभी तक की कृषि की अनदेखी को समाप्त करना होगा। इससे गरीबों को सस्ती दरों पर खाद्य पदार्थ तो उपलब्ध होंगे ही, ब्याज दरों को नियंत्रण में रखते हुए आर्थिक विकास की दर भी बढ़ेगी।
लेखक अश्विनी महाजन आर्थिक मामलों के जानकार हैं
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