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शिक्षा का कानून 2009 को संविधान सम्मत बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो ऐतिहासिक फैसला दिया है वह देश में शिक्षा और सामाजिक न्याय के अतिरिक्त सामाजिक सद्भाव और राष्ट्र निर्माण में एक दूरगामी कदम साबित हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने 6 से 14 साल के बच्चों की अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा के मौलिक अधिकार पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि देश भर में सरकारी व गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित होंगी। निजी स्कूलों ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी कि उन्हें संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) के तहत रोजगार का मौलिक अधिकार प्राप्त है और सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। उनकी यह भी दलील थी कि जब वे सरकार से कोई सहायता नहीं लेते तो फिर सरकार उन पर मुफ्त शिक्षा देने का दबाव कैसे डाल सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने ये दलीलें खारिज करते हुए कहा कि यह सही है कि संविधान में सभी को मनपसंद रोजगार या व्यवसाय करने और उसके प्रबंधन का मौलिक अधिकार प्राप्त है, लेकिन अनुच्छेद 19 (2) के तहत सरकार कानून बना कर इस अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकती है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 2-1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि यह कानून सरकारी व सरकार द्वारा नियंत्रित संस्थाओं के स्कूलों, गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों और सरकारी सहायता या अनुदान प्राप्त करने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू होगा, लेकिन गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों पर यह लागू नहीं होगा।
इस क्रांतिकारी फैसले के आने के कुछ ही घंटों बाद आंध्र प्रदेश से लेकर अन्य राज्यों के प्राइवेट स्कूलों के विभिन्न संगठनों ने एक पुनर्विचार याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल करने का निर्णय लिया है। जाहिर है कि पुनर्विचार याचिका के माध्यम से इस क्रांतिकारी निर्णय को बदलने का प्रयास नाकाम ही सिद्ध होगा, लेकिन इससे निजी संगठनों की मुनाफाखोरी की मानसिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व से भागने की मानसिकता का ही पता चलता है। कोर्ट का यह फैसला कि गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों पर यह कानून लागू नहीं होगा, भी संविधान की भावनाओं के ही अनुरूप है कि यह संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को मिले अधिकार का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद 30 (1) और अनुच्छेद 29 धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों की अपनी विशेष भाषा, लिपि और संस्कृति की रक्षा के लिए विशेष अधिकारों का आख्यान करती है और इसलिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए इन्हें 25 प्रतिशत के आरक्षण के दायरे से सही ही बाहर रखा गया है।
कोर्ट के फैसले के बाद कई सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। शुरुआत अल्पसंख्यक संस्थानों से ही करें। कोर्ट का यह फैसला तो संविधानोचित है कि 25 फीसदी का आरक्षण गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा, लेकिन यहीं कोर्ट यह निर्देश दे सकता था कि इन अल्पसंख्यक संस्थानों में उन्ही अल्पसंख्यक समुदायों के गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाएं। ये दिशा-निर्देश सरकार चाहे तो बना सकती है, ताकि विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों के गरीब प्रतिभाशाली बच्चे आगे आ सकें। फैसले से उठा दूसरा महत्वपूर्ण सवाल है कि गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत निर्धन बच्चों के प्रवेश में क्या प्रक्रिया अपनाई जाए? यहां इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी खास धर्म या वर्ण के ही बच्चे इसमें न प्रवेश पाएं।
सरकार को निर्देश देने की जरूरत है कि दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जातियों के बच्चों को इस 25 प्रतिशत आरक्षित प्रवेश में समुचित प्रतिनिधित्व मिले। एक अन्य बड़ा सवाल है कि कमजोर तबकों के इन बच्चों को कैसे निजी क्षेत्रों के स्कूलों में समायोजित किया जाए। इन गरीब बच्चों के लिए पुस्तकों और अन्य पाठ्य सामग्री की बात तो छोडि़ए इनके पास जीवन यापन के मुकम्मल साधन तक नहीं होते। घरों में कंप्यूटर, आइपैड और इंटरनेट आदि तो खैर एक सपना ही होता है। इस समस्या का समाधान पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इनकम टैक्स में छूट देने का प्रावधान कर स्थानीय स्तर पर उच्च वर्ग के लोगों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। सबसे अहम सवाल यह है कि यहां सरकार को अपनी पीठ ठोंक कर सो नहीं जाना चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि अपवादों को छोड़ दें तो सरकारी स्कूलों की हालत क्या है? साधारण आदमी भी अपने बच्चों को यहां नहीं भेजना चाहता है। यह अनायास नहीं है कि दुनिया के विकसित कहे जाने वाले देशों में शिक्षा के क्षेत्र में सरकार और समाज पर्याप्त धन खर्च करते हैं, क्योंकि सामाजिक क्षेत्र में व्यय किया जाने वाला यह खर्च एक निवेश है जो आर्थिक प्रगति में तो सहायक होगा ही साथ ही साथ राष्ट्रनिर्माण में भी।
भारत से ज्यादा शिक्षा पर खर्च करने वालों में अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, स्वीडन और डेनमार्क जैसे विकसित देश ही नहीं हैं, बल्कि क्यूबा, मलेशिया, केन्या, बोलिविया, मोरक्को, नामीबिया, ट्यूनीशिया और मंगोलिया जैसे विकासशील देश भी इसके महत्व को समझते हैं। भारत में कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि कि देश को जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए, लेकिन हमारा यह खर्च आज भी लगभग 4 प्रतिशत ही है। सरकार के पास कारपोरेट जगत को अरबों-खरबों की सब्सिडी देने के लिए धन है, लेकिन आम जनता और देश के कल्याण के लिए पैसे नहीं हैं। सवाल वही है कि राजनीतिक पार्टियां देश और जन हित में सोचने और कार्य करने के लिए कब तैयार होंगी?
निरंजन कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं
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