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ऐसे कैसे बनाएंगे हम ज्ञान आधारित समाज

जागरण मेहमान कोना
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Umesh Chaturvediसबसे पहले इस साल के गणतंत्र दिवस के दो वाकयों पर ध्यान देते हैं। एक न्यूज चैनल के एक प्रोग्राम में बिहार के कई अध्यापकों से कुछ सवाल किए गए। मसलन, भारत का राष्ट्रीय पशु क्या है? भारत का राष्ट्रगान क्या है? राष्ट्रगान को पूरा सुना दीजिए। पूरे कार्यक्रम में महज दो-चार अध्यापक ही ऐसे दिखे, जिन्हें राष्ट्रीय पशु की जानकारी थी या राष्ट्रगान पूरा याद था। दूसरा वाकया दक्षिण दिल्ली के एक केंद्रीय विद्यालय का है। गणतंत्र दिवस के दिन उस विद्यालय में कार्यक्रम था। वहां के प्रधानाचार्य महोदय ने अपने भाषण में कहा कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में तीन रंग होते हैं, जिसमें पहला है पीला और अशोक चक्र फिरोजी रंग का होता है। दोनों वाकयों में समानता होने के बावजूद एक अंतर भी है। दरअसल, इससे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बहुप्रचारित शिक्षा विस्तार योजना की पोल खुलती है तो दूसरा वाकया जाहिर करता है कि देश के सर्वोत्तम समझे जाने वाले केंद्रीय विद्यालयों में भी दस-पंद्रह साल पहले कैसे-कैसे लोग भर्ती किए गए, जिन्हें सहज सामान्य ज्ञान भी नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश कुमार जिन अध्यापकों के जरिए बिहार को ज्ञान का केंद्र बनाना चाहते हैं या कपिल सिब्बल जिन केंद्रीय विद्यालयों के सहारे देश को ज्ञान का हब बनाने की तैयारी में हैं, वे कितने मुकम्मल हैं? सवाल यह भी है कि क्या इन्हीं अध्यापकों के जरिए देश की भावी पीढ़ी को ज्ञान और सूचनाओं के अथाह सागर से लैस किया जाएगा, जिनके जरिए देश के विकास का नया इतिहास रचा जाएगा।


भारत सरकार की तरफ से गैर सरकारी संस्था प्रथम की रिपोर्ट भी इन अध्यापकों और स्कूली शिक्षा के गिरते स्तर पर सवाल उठाती है। प्रथम पिछले सात साल से केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से ग्रामीण स्कूली शिक्षा पर एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) तैयार कर रही है। इस साल 17 जनवरी को जो रिपोर्ट जारी की गई है, उसे 65,000 बच्चों की जांच के आधार पर तैयार किया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में छह से चौदह साल की उम्र के 96 फीसदी से भी ज्यादा बच्चों का स्कूलों में दाखिला तो होने लगा है, लेकिन हकीकत यह है कि वे सिर्फ दाखिला ही ले रहे हैं। उनके ज्ञान और सूचना के स्तर में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। उलटे गिरावट ही देखी जा रही है। प्रथम की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, स्कूलों में बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी तो हुई है, लेकिन शिक्षा के स्तर में गिरावट देखी गई है। यह गिरावट खासकर उत्तरी भारत के हिंदीभाषी राज्यों में ज्यादा देखी गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 में जहां पांचवीं कक्षा के 54 फीसदी छात्र दूसरी कक्षा की किताब पढ़कर समझने में समर्थ थे, वहीं 2011 में यह औसत गिरकर 48.2 फीसदी रह गया। इसी तरह तीसरी कक्षा के सिर्फ 29.9 प्रतिशत बच्चे हासिल का जोड़ कर पाए। दूसरी ओर गुजरात, पंजाब और दक्षिण के राज्यों में स्थिति में सुधार हुआ है। इसी तरह गणित की समझ के मामले में भी बच्चों का प्रदर्शन गिरा है। दो अंकों के जोड़-घटाव जैसे सवालों को तीसरी कक्षा के मात्र 30 फीसदी छात्र ही हल कर सके, जबकि 2010 में यह औसत 36 फीसदी से भी अधिक था। यह गिरावट दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर ज्यादातर बच्चों में पाई गई।


तीसरी बड़ी समस्या स्कूल में बच्चों की बढ़ती अनुपस्थिति है। उत्तर प्रदेश में पिछले साल की तुलना में बच्चों की उपस्थिति साठ से घटकर 2011 में 50.3 प्रतिशत रह गई। यही स्थिति बिहार, मध्य प्रदेश जैसे अन्य राज्यों की भी है। प्रथम की रिपोर्ट इस बात की तस्दीक भी करती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूल उपलब्ध होने पर वहीं प्रवेश दिलाना पसंद कर रहे हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड जैसे राज्यों में निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में 35 से 40 फीसदी तक की बढ़ोतरी देखी गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में निजी स्कूलों की तरफ अभिभावकों का बढ़ता रुझान यह जाहिर करने के लिए काफी है कि सरकारी क्षेत्र की जिस शिक्षा को उत्तर भारत के राज्यों की सरकारें अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करती हैं, उनकी असलियत क्या है। प्रथम की रिपोर्ट से जाहिर है कि बोरा-चट्टी और टाट-पट्टी वाले स्कूलों में नि:शुल्क मिल रही शिक्षा और मुफ्त भोजन के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों तक में उत्साह कम हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि पिछले साल लागू शिक्षा के अधिकार कानून के बाद शिक्षा के स्तर में यह गिरावट ज्यादा आई है। इससे शिक्षा के अधिकार कानून के उद्देश्यों पर ही सवाल उठने लगा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या निजी और पब्लिक स्कूल भी संजीदा हैं और वे ज्ञान आधारित समाज की रचना में सचमुच योगदान दे रहे हैं। प्रथम की रिपोर्ट के पहले विप्रो और एजुकेशन इनिशिएटिव ने भी स्कूली शिक्षा को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की थी। अपने अध्ययन के बाद दोनों संस्थाएं इस नतीजे पर पहुंची हैं कि नामी स्कूलों का शिक्षा का स्तर भी अच्छा नहीं है, क्योंकि उनका जोर ज्ञान और गहराई की बजाय रट्टा मारने पर ज्यादा है।


भारती स्कूली शिक्षा के स्तर की कलई हाल ही में आए एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की रिपोर्ट ने भी खोली है, जिसके मुताबिक 74 देशों में भारत का नंबर आखिर से दूसरा है। यानी भारतीय स्कूली छात्रों से सिर्फ किर्गिस्तान के बच्चे पीछे हैं। इन रिपोर्टो से जाहिर है कि भारत को ज्ञान आधारित समाज बनाने के सपने में छेद हो गया है। इसके लिए जिम्मेदार सरकारी नियम और कानून भी कम नहीं हैं। दरअसल, सरकारें भी लोक लुभावन योजनाओं को ही लागू करने पर जोर दे रही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में अध्यापकों की जिस तरह से भर्ती की गई है और उसमें जो स्थानीय जोड़-तोड़ हुई है, उससे वे अच्छे लोग किनारे कर दिए गए हैं, जो अपने ज्ञान और अपनी सोच के जरिए स्कूली शिक्षा में सार्थक हस्तक्षेप कर सकते थे। शिक्षा मित्र योजना के तहत भर्ती का अधिकार जब से पंचायतों के हवाले किया गया है, उसमें जोड़तोड़ को ही बढ़ावा मिला है। पंचायतों ने योग्यता के मानदंड की बजाय अपने ग्रुप और रिश्वत को ज्यादा महत्व दिया है। उत्तर भारत में पंचायती राज को लेकर चाहे जितना ढिंढोरा पीटा जाए, लेकिन नगालैंड की तरह परिपक्वता नहीं आ पाई है, जहां पंचायत बेहतर शिक्षा को भावी पीढ़ी के लिए जरूरी मानती है और बेहतर शिक्षक की नियुक्ति और उसके पढ़ाने की शैली के साथ ही अनुशासन पर जोर देती है। वह कम से कम जोड़तोड़ के जरिए शिक्षक की भर्ती पर जोर नहीं देती। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में नगालैंड में निजी स्कूलों से भी बच्चे सरकारी स्कूलों की तरफ आने लगे हैं, लेकिन उत्तर भारत में हालात उलट हैं।


प्रथम की रिपोर्ट जाहिर करती है कि उत्तर भारत के सरकारी स्कूलों की हालत में खराबी की वजह भर्ती की नई प्रक्रिया और स्कूली शिक्षा पर पंचायतों का प्रभुत्व भी जिम्मेदार है। प्रथम की रिपोर्ट से चिंतित मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल राज्यों को पत्र लिखकर अध्यापकों की भर्ती के लिए कड़े मानदंड अपनाने पर जोर देने की सलाह देने जा रहे हैं, लेकिन हकीकत तो यह है कि जिस तरह निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसमें सरकारी शिक्षा व्यवस्था को किनारे होना ही है। क्योंकि निजीकरण पर भी मुकम्मल लगाम नहीं है। निजी स्कूलों को भी योग्यता और मानदंडों पर कसने की छूट नहीं है। फिर रट्टा मारने की पारंपरिक पद्धति से छुटकारा दिलाने की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि इसके बावजूद कुछ राज्यों में 60 प्रतिशत तक बच्चे निजी स्कूलों में हैं। सरकारी शिक्षा को लेकर जो छवि बन गई है, उसकी वजह से जो बच्चे सरकारी स्कूलों में भी हैं, वे ट्यूशन ले रहे हैं। जाहिर है कि राज्य सरकारें और उनके शिक्षा विभाग इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने में नाकाम रहे हैं। अपने देश ने उदारीकरण का एक दौर पूरा कर लिया है। अब उसमें आगे जाने की गुंजाइश तभी होगी, जब हम ज्ञान और शोध आधारित समाज की तरफ आगे बढ़ेंगे। लेकिन अगर स्कूली शिक्षा का आधार यही बना रहा तो यह निश्चित है कि इसका असर उच्च शिक्षा में भी नजर आएगा। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्य सरकारें अपने राजनीतिक बाध्यताओं को किनारे रखकर इस समस्या की जड़ तक जाने की कोशिश करेंगी?


लेखक उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं


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