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सरकारी धन से पार्टी प्रचार

जागरण मेहमान कोना
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S. Shankarचुनाव के पहले सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगाने के सुझाव पर अमल की जरूरत जता रहे हैं एस. शंकर


भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाइ कुरैशी ने इधर एक सारगर्भित बयान दिया कि चुनाव के छह महीने पहले से सरकारी विज्ञापन छपने बंद हो जाने चाहिए, क्योंकि यह पार्टी प्रचार के सिवा कुछ नहीं होता। यह बड़ी गहरी बात है। वस्तुत: यह स्वयं चुनाव आयोग पर ही भारी जिम्मेदारी डाल देती है, क्योंकि सर्वविदित है कि सत्ताधारी पार्टियां चुनाव के साल भर पहले से उसकी तैयारी शुरू कर चुकी होती हैं। इस प्रकार आयोग के तर्क से सार्वजनिक धन से पार्टी प्रचार का चलने लगता है, लेकिन इस बयान से कुछ दूसरे तथ्यों पर भी ध्यान जाना आवश्यक है। यदि मामला सार्वजनिक धन से पार्टी प्रचार करने का है तो इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कांग्रेसी सत्ताधारी केवल एक साल में अपने नेताओं की फोटो छपवाने, प्रचारित करने में जनता का जितना पैसा नष्ट करते हैं उतना बसपा पांच साल में भी नहीं कर सकी। तब चुनाव आयोग ने केवल हाथी और मायावती की मूर्तियां ढकने का निर्देश क्यों दिया? तर्क था कि इससे चुनावी लड़ाई की जमीन बराबर होगी। अर्थात वोटर की नजर दूसरे दलों के मुकाबले बसपा प्रतीकों पर ज्यादा न पड़े। चुनावी दृष्टि से जमीन तो तब बराबर होती जब सार्वजनिक धन से बनीं नेहरू-गांधी परिवार की सारी मूर्तियां, राजमार्ग-सड़क-चौक-स्टेडियम आदि के नामकरण और उनमें खुदीं सोनिया-राजीव-इंदिरा आदि की सभी तस्वीरों पर भी पर्दा डाला गया होता।


सूचना और प्रसारण मंत्री ने आधिकारिक रूप से बताया है कि राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के जन्म-दिन पर विज्ञापनों में 7 करोड़ रुपये खर्च किए गए। यह केवल जन्म-दिन का हिसाब है। अन्य अवसरों पर भी नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों की तस्वीरें, कथन आदि उद्धृत करने के बहाने पार्टी प्रचार चलता है। विषय अंतरिक्ष विज्ञान हो या स्वास्थ्य का, मगर किसी विशेषज्ञ के बदले नेहरू-गांधी की तस्वीरें ही निरंतर प्रचारित की जाती हैं। यह सब नि:संदेह पार्टी-प्रचार है। सवाल यह है कि जब आयोग यह जानता है कि विगत कई माह से सारे सरकारी विज्ञापन ‘पार्टी प्रचार’ थे तो उसने इन्हें रोका क्यों नहीं? केवल उन अखबारी विज्ञापनों का ही हिसाब करें तो पार्टी हित में जनता के धन की बेतरह बर्बादी का दृश्य उभरता है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले वर्ष केवल राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर जनता के धन के 60-70 करोड़ रुपये खर्च कर डाले गए। इस हिसाब से हर वर्ष नेहरू-गांधी परिवार के चार नेताओं से संबंधित महत्वपूर्ण तिथियों पर ही विज्ञापनों में 500 से 600 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं। क्या इससे कांग्रेस पार्टी को अनुचित रूप से ऊंची जमीन नहीं मिली रहती है? मुख्य चुनाव आयुक्त ने सही कहा है कि यह पार्टी प्रचार है।


नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस का प्रचार होशियारी से किया जाता है। उसमें निष्ठावान बुद्धिजीवियों, प्रोफेसरों और पत्रकारों के एक वर्ग को भी शुरू से ही शामिल रखने की चतुराई रखी गई। इसलिए वहां पार्टी-प्रचार का आरोप नहीं लगाया जाता। मगर मामला वही है। अत: सत्ता और सार्वजनिक धन के दुरुपयोग से पार्टी-हित साधने की पूरी प्रवृत्तिपर लगाम लगाने की जरूरत है। वस्तुत: सरकारी धन से दलीय राजनीति चमकाने की प्रवृत्तिपर खुली चर्चा होनी चाहिए और समरूप राष्ट्रीय नीति बनाने का निश्चय होना चाहिए, क्योंकि यदि एक की छवि ढकवाई जाए और दूसरे की खुली रहे है तो इससे राजनीतिक अखाड़े में ‘समतल जमीन’ नहीं बनेगी। आज नहीं तो कल यह भी तय करना पड़ेगा कि सार्वजनिक धन से बनने वाले भवनों, संस्थाओं, सड़कों आदि के नामकरण का पैमाना क्या हो? पिछले कई दशकों से नेहरू-गांधी परिवार के नाम भवनों, सड़कों, चौकों, विश्वविद्यालयों, स्टेडियमों और सबसे बढकर गांव-गांव में पैसा बांटने वाली योजनाओं के नामकरण के पीछे दलीय उद्देश्य साधना रहा है। एक आकलन के अनुसार केवल पिछले 18 वर्ष में इस परिवार के नाम पर 450 केंद्रीय और प्रांतीय परियोजनाओं और संस्थाओं के नाम रखे गए हैं।


इधर कोलकाता में ‘इंदिरा भवन’ का नाम कवि नजरुल इस्लाम के नाम से बदलने पर कांग्रेसियों ने जो आपत्तिकी वह ध्यान देने योग्य है। कांग्रेस नेता दीपा दासमुंशी ने अपने बयान से उजागर कर दिया कि देश भर में भवनों, सड़कों, योजनाओं आदि के नाम केवल नेहरू-गांधी परिवार के नाम से रखने के पीछे सोची-समझी रणनीति रही है कि एक परिवार को कांगेस का और कांग्रेस को देश का पर्याय बना दिया जाए। इसलिए सार्वजनिक धन से पार्टी-प्रचार करने की पूरी परंपरा पर रोक लगना जरूरी है। सार्वजनिक योजनाओं, भवनों, राजमार्गो आदि का नामकरण उसी योजना से जुड़े अधिकारियों और जानकारों की किसी समिति के माध्यम से हो। वे दलीय पक्षपात से परे होकर समुचित नामकरण करें और उसका उपयुक्त कारण लिखित रूप में दर्ज करें। उस कारण को समाचार पत्रों में प्रकाशित भी करना अनिवार्य हो। यदि मामला राष्ट्रीय महत्व का हो तो विभिन्न दलों के लोग भी समिति में रहें।


जहां तक सैकड़ों भवनों, सड़कों, योजनाओं को एक ही परिवार के व्यक्तियों के नाम कर दिए जाने का मामला है तो दक्षिण अफ्रीका की तरह यहां भी एक पुनर्नामाकरण आयोग बनाने की जरूरत है जो नामों को समुचित रूप से बदलने के लिए सार्वजनिक सुनवाई करे। दुनिया भर में देश, काल, सत्ता, न्याय के अनुसार नाम पुन:-पुन: बदलते रहे हैं, इसलिए उसमें कोई बाधा नहीं है। हर हाल में जब एक विशेष कांग्रेस-परिवार को सरकारी नामकरणों का एकाधिकार खत्म होगा तभी वास्तव में राजनीतिक रूप से ‘समतल जमीन’ बनेगी।


लेखक एस. शंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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