Menu
blogid : 5736 postid : 4151

आदर्श चुनाव व आचार संहिता

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Sudhanshu Ranjanस्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन में आदर्श चुनाव आचार संहिता की भूमिका को रेखांकित कर रहे हैं सुधांशु रंजन


आदर्श चुनाव आचार संहिता एक बार फिर विवादों में है। इस बार चुनाव आयोग ने दो बड़े निर्णय लिए। पहला, उसने केंद्र सरकार के उस फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें पिछड़े वगरें के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण में से 4.5 प्रतिशत अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान है। दूसरा, आयोग ने उत्तर प्रदेश में मायावती एवं हाथियों की मूर्तियों को ढकने का निर्देश दिया। कांग्रेस या केंद्र सरकार ने तो आयोग के निर्णय पर कोई खास प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, किंतु मायावती ने अपने तीखे तेवर में इसे कांग्रेस के इशारे पर लिया गया दलित-विरोधी निर्णय करार दिया। 2004 के चुनाव में स्वर्ण चतुर्भुज परियोजना पर अटल बिहारी वाजपेयी के लगे इश्तेहारों को भी चुनाव आयोग के निर्देश पर ढका गया था।


इन मूर्तियों को ढकने में करोड़ों रुपये खर्च हुए हैं। इससे यह सवाल उठता है कि यदि इस बार ऐसा किया गया तो स्वाभाविक है कि हर चुनाव में ऐसा करना होगा। तो फिर करदाता इस अनावश्यक खर्च का बोझ क्यों वहन करें? इसलिए बसपा के चुनाव चिह्न हाथी को रद करने तक की मांग उठी है। इस चुनाव चिह्न को लेकर प्रारंभ से ही विवाद है, क्योंकि असम गण परिषद तथा सिक्किम संग्राम परिषद का चुनाव चिह्न भी हाथी ही है। इस विवाद का हल चुनाव आयोग ने इस प्रकार निकाला कि यदि बसपा असम या सिक्किम में अपने प्रत्याशी उतारेगी तो उसे चुनाव चिह्न के रूप में हाथी नहीं मिलेगा। इसी तरह असम गण परिषद यदि असम के बाहर या सिक्किम संग्राम परिषद सिक्किम के बाहर उम्मीदवार खड़े करती है तो उसे भी हाथी का चुनाव चिह्न नहीं दिया जाएगा। मायावती का यह तर्क समझ के परे है कि यदि हाथी की मूर्तियों को ढका गया तो सभी हैंड पंपों तथा साइकिलों को भी ढका जाए क्योंकि वे भी क्रमश: राष्ट्रीय लोकदल तथा समाजवादी पार्टी के चुनाव प्रतीक हैं। यह समझ लेना चाहिए कि हैंड पंप या साइकिल की कोई मूर्ति सरकारी खर्च पर नहीं लगाई गई है जबकि उनकी एवं हाथियों की मूर्तियां सार्वजनिक स्थलों पर सरकारी खर्च पर लगाई गई हैं। दरअसल, कुछ चुनाव चिह्न इतने आम हैं कि उन्हें ढका ही नहीं जा सकता। डीएमके का चुनाव चिह्न है उगता हुआ सूर्य। इसे भला कैसे ढका जाएगा? इसी प्रकार भाजपा के कमल और कांग्रेस के हाथ को ढकना संभव नहीं है।


आदर्श आचार संहिता की शुरुआत एक प्रकार से 1960 में केरल के विधानसभा चुनाव से हुई। तब राज्य के पुलिस अधिकारियों ने अपील की कि उम्मीदवार तथा प्रचार करने वाले आचार संहिता का पालन करें। उद्देश्य था सभी उम्मीदवारों को समतल मैदान मुहैया कराना। यह विचार पूरे देश में लोगों को बहुत पसंद आया, जिसे फिर तमिलनाडु के चुनावों में दोहराया गया। चुनाव आयोग ने पहली बार 1971 के लोकसभा चुनाव में अपनी ओर से एक आचार संहिता प्रस्तुत की, जिस पर सभी दलों की सहमति थी। इसमें आयोग ने कई संशोधन किए। सभी राजनीतिक दलों की सहमति के बावजूद अकसर इन दलों को आयोग से इस मामले में शिकायत रहती है। सन 2000 में केंद्र सरकार तथा चुनाव आयोग के बीच ही आदर्श आचार संहिता को लेकर इतना गहरा विवाद हो गया कि सरकार ने आयोग के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सरकार का पक्ष यह था कि आचार संहिता हर चरण के लिए जारी अधिसूचना के साथ लागू होनी चाहिए, चुनाव की घोषणा के साथ नहीं। आयोग ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। अंतत: भारतीय जनता पार्टी सहित सभी दलों ने एकमत से आयोग के पक्ष का समर्थन करने पर सहमति जताई।


1992 में चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव संहिता को कानूनी आधार देने का प्रस्ताव किया, किंतु 1998 में उसने अपना पक्ष बदलते हुए कहा कि ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि बिना कानूनी आधार के उसने सफलतापूर्वक कई चुनाव संपन्न कराए। 8 अगस्त, 2005 को तत्कालीन विधिमंत्री हंसराज भारद्वाज ने राज्यसभा में बताया कि आदर्श आचार संहिता को कानूनी शक्ल देने की गोस्वामी समिति की अनुशंसा के बारे में सरकार ने चुनाव आयोग के विचार मांगे थे, लेकिन आयोग इसके पक्ष में नहीं है। यह सही है कि कानूनी आधार मिल जाने के बाद इसका उल्लंघन एक चुनावी अपराध माना जाएगा, परंतु आयोग इसके पक्ष में इसलिए नहीं है क्योंकि तब हर मामला अदालत में जाएगा जिसके निष्पादन में कई वर्ष लगेंगे। अभी आयोग के पास आचार संहिता को लागू करने के लिए व्यापक शक्तियां हैं क्योंकि 1978 में मोहिंदर सिंह गिल मामले में उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने व्यवस्था दी थी कि जहां संसद एवं राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानून हैं वहां तो आयोग उन कानूनों के अनुरूप काम करेगा, लेकिन जिन मसलों पर कोई कानून नहीं है वहां आयोग को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने का व्यापक अधिकार है।


कई बार उम्मीदवार आदर्श आचार संहिता के साथ-साथ कानून का भी उल्लंघन कर बैठते हैं। उदाहरण के लिए 2009 में वरुण गांधी ने मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध आपत्तिजनक भाषण दिया। चुनाव आयोग ने भाजपा को वरुण गांधी को प्रत्याशी न बनाने की सलाह दी, किंतु पार्टी ने उनकी सलाह नहीं मानी। आयोग के निर्देश पर जिला प्रशासन ने वरुण गांधी के विरुद्ध मुकदमा दायर किया जो आज भी लंबित है। प्रतिनिधि का चुनाव करना जनता के हाथ में है, किंतु चुनाव आयोग द्वारा की गई भ‌र्त्सना का भी नैतिक दबाव होता है। फिलहाल, इस बारे में कानून बनाए जाने की जरूरत है ताकि कोई सरकार राजकोष से अपने दल के प्रतीक की मूर्तियां न लगवा सके।


लेखक सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh