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मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने हाथी और मायवती की आदमकद मूर्तियों को ढके जाने के फैसले को सही करार देते हुए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को ताकीद किया है कि वह सोच-समझकर बोलें। मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि आयोग की जिम्मेदारी आचार संहिता का पालन करवाने के अलावा सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर उपलब्ध कराना भी है। चुनाव आयोग ने बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि प्रतिमाओं को पार्टी कोष से तैयार कराया गया था और हाथियों की भंगिमा पार्टी के चुनाव चिह्न से अलग है। आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने आदेश पर पुनर्विचार करने का कोई औचित्य नहीं समझता है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने बसपा सुप्रीमो को आड़े हाथ लेते हुए यह भी सुना दिया है कि क्या किसी पार्टी का चुनाव चिह्न या उसके नेता की मूर्ति इसलिए नहीं ढकी जानी चाहिए थी, क्योंकि वह आकार में बड़ी और भव्य हैं? मतलब साफ है, चुनाव आयोग बसपा सुप्रीमो के आरोपों को अब और अधिक बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। इस बात की भी संभावना बढ़ गई है कि अगर कहीं बसपा सुप्रीमो दोबारा आयोग पर वार करती हैं तो निश्चय ही आयोग उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई कर सकता है। बता दें कि चुनाव आयोग के निर्देश पर उत्तर प्रदेश के पार्को और भवनों में निर्मित मुख्यमंत्री मायावती और हाथी की प्रतिमाओं को ढका गया है, जिसे लेकर बहुजन समाज पार्टी विपक्ष और चुनाव आयोग दोनों पर वार कर रही हैं।
पिछले दिनों 15 जनवरी को मायावती ने अपने जन्मदिन के अवसर पर चुनाव आयोग के फैसले पर ऐतराज जताते हुए कहा कि आयोग हमारी पार्टी के पक्ष को सुने बिना ही एकतरफा फैसला लिया गया है। इसे पार्टी से जुड़े सर्वसमाज के लोग और बुद्धिजीवी भी जातिवादी एवं दलित विरोधी मानसिकता से ग्रस्त होकर लिया गया फैसला बता रहे हैं। यही नहीं, चुनाव आयोग के फैसले से बौखलाई माया ने यह भी जुमला उछाल दिया कि खुला हाथी लाख का, बंद हाथी सवा लाख का। माया यहीं नहीं रुकीं। आयोग को कठघरे में खड़ा करते हुए उन्होंने पूछ डाला कि चंडीगढ़ में सैकड़ों एकड़ में बने पार्क में घूमता हुआ 45 फीट ऊंचा और 50 टन के हाथ के पंजा पर वह पर्दादारी क्यों नहीं कर रहा है? मायावती ने यह भी कहा कि अगर चुनाव आयोग उसे नहीं ढकवाता है तो हम मानेंगे कि आयोग ने केंद्र की दलित विरोधी मानसिकता वाली कांग्रेस सरकार के दबाव में आकर फैसला लिया है।
सरकारी पैसे से लगवाए गए उन हैंडपंपों पर भी मायावती पर्दा लगाने की अपील करती देखी गई, जो राष्ट्रीय लोकदल का चुनाह चिह्न है? तमाशा ही कहा जाएगा कि आयोग के फैसले पर नाराजगी जताने वाली मायावती दूसरी ओर खुशी भी जाहिर कर रही हैं और यह राग अलाप रही हैं कि भले ही आयोग ने हाथी और उनकी मूर्तियों को ढकने का फैसला ले लिया है, लेकिन उसके फैसले से उनकी पार्टी को करोड़ों रुपये का प्रचार मुफ्त में मिल गया है। मतलब साफ है कि उत्तर प्रदेश के सियासी जंग में बसपा सुप्रीमो को ढकी मूर्तियों में ही संजीवनी दिखने लगी है। शायद यही वजह है कि वह बार-बार चुनाव आयोग को लेपेटे में लेकर इस मसले को को जिंदा बनाए रखना चाहती हैं, लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी मंशा को भांप लिया है और हिदायत भी दे डाली है कि वह मायावती की बेवजह आलोचनाओं के कारण कड़ी कार्रवाई कर सकता है। अब देखने वाली बात यह है कि मुख्यमंत्री मायावती आयोग के हिदायत को कितना तवज्जो देती हैं। पर माया की सियासत की परख रखने वाले अच्छी तरह समझते हैं कि वह आसानी से हथियार डालने वालों में से नहीं हैं। चुनाव आयोग के कड़े तेवर के बावजूद वह हाथ आए इस संवेदनशील मुद्दे को आसानी से जाने नहीं देंगी। हो सकता है कि आयोग के फैसले के खिलाफ वह ऊंचे स्वर में न बोलें, लेकिन मूर्तियों पर की गई पर्दादारी को वह चुनावी मुद्दा नहीं बनाएंगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
दरअसल, मायावती की अपनी कुछ मजबूरियां भी है। वह भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी हैं। उनके पास अपने विरोधियों से जूझने के लिए कोई धारदार हथियार भी नहीं है। ऐसे में वह आयोग के फैसले की आड़ में संवेदनाओं को भुनाकर चुनावी वैतरणी पार कर लेना चाहती हैं। मजे वाली बात तो यह है कि वह इस अगंभीर मसले को विवादित बनाने में कामयाब भी दिखने लगी हैं। चुनाव आयोग की कड़ी हिदायत को वह अपने लिए मुफीद मान रही हैं। उन्हें अपने समर्थकों में यह प्रचारित करने का मौका भी मिल जाएगा कि चुनाव आयोग उनके साथ भेदभाव कर रहा है। वैसे भी बसपा ने मूर्तियों पर पर्दादारी को लेकर सियासत का मन उसी दिन बना लिया था, जिस दिन आयोग ने फैसला लिया था। आयोग के फैसले के तुरंत बाद बसपा के राष्ट्रीय महासचिव एवं राज्यसभा सदस्य सतीश चंद्र मिश्र ने संकेत देते हुए कहा था कि आयोग का फैसला एकतरफा है और उनकी पार्टी अदालत में जाने के बजाए जनता की अदालत में जाना बेहतर समझेगी। अनुमान के मुताबिक ऐसा होता भी दिख रहा है। माया आयोग के निर्णय को जनता के बीच ले जाने का मन बना चुकी हैं। दूसरी ओर माया की कूटनीति ने विपक्षी दलों के होश फाख्ता कर दिए हैं। अभी तक विपक्षी दल मूर्तियों पर पर्दादारी पर चुहलबाजी करते देखे जा रहे थे, लेकिन अब उन्हें भी लगने लगा है कि यह मसला माया के लिए जबरदस्त हथियार साबित हो सकता है।
माया के दांव से कांग्रेस पार्टी सर्वाधिक चिंतित है। शायद उसे डर सताने लगा है कि माया चुनावी समर में कांग्रेस को दलित विरोधी करार दे सकती हैं। यही कारण है कि दिग्विजय सिंह जैसे महारथी यह कहते सुने गए कि कांगे्रस पार्टी ने चुनाव आयोग से मूर्तियों पर पर्दादारी करने की मांग नहीं की थी। भारतीय जनता पार्टी भी कुछ ऐसी ही गोलमोल बातें कर रही है। सबको डर है कि मूर्तियों पर पर्दादारी का समर्थन उन्हें दलित वोटों से वंचित कर सकता है। अमूमन जब भी मूर्तियों, पार्को और स्मारकों को लेकर विपक्षी दलों ने माया की घेरेबंदी तेज की है, अंतिम कामयाबी माया को ही मिली है। मात विरोधियों को खानी पड़ी है। माया हर बार मूर्तियों-स्मारकों को दलित स्वाभिमान से जोड़कर उसका राजनीतिक फायदा बटोरने में कामयाब रही हैं। ऐसे में तय है कि मूर्तियों को ढकने का फरमान माया सरकार के लिए रामबाण साबित हो सकता है। दलित संवेदना की आड़ में उन्होंने अपने राजनीतिक-सामाजिक समीकरण को दुरुस्त करने की कवायद भी तेज कर दी है। मायावती ने मन बना लिया है कि सियासी कुरुक्षेत्र में पर्दानशीं हाथियों के बुत के बूते अपने विरोधियों को हर हालत में कुचलेंगी। ऐसे में मौंजू सवाल यह है कि अगर माया बुतों को अपना सियासी औंजार बनाती हैं तो चुनाव आयोग का अगला कदम क्या होगा? क्या वह बसपा के चुनाव चिह्न को जब्त करेगा? क्या ऐसा संभव है? अगर आयोग ऐसा निर्णय लेता भी है तो क्या चुनाव प्रक्रिया बाधित नहीं होगी? ऐसे ढेरों सवाल हैं, जिनका उत्तर किसी के पास नहीं है। सच यह है कि माया सियासी लाभ के लिए आयोग के आदेश को ठोकर पर रखने में देर नहीं लगाएंगी। इसलिए कि यह चुनाव उनके लिए सिर्फ हार-जीत तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके राजनीतिक भविष्य की दशा और दिशा भी तय करने वाला है। इस नाते इस बात की प्रबल संभावना है कि वह अपनी जनसभाओं में चुनाव आयोग के फैसले को दलित समाज के आत्मसम्मान के खिलाफ बताकर उनकी संवेदनाओं को भड़काने का काम कर सकती हैं। अगर ऐसा करती हैं कि तो क्या चुनाव आयोग उन्हें मना करेगा? और क्या वह मान जाएंगी? संभव ही नहीं है। दूसरी बात यह कि जब केंद्र सरकार के रणनीतिकार अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाने से बाज नहीं आ रहे हैं, चुनाव आयोग की हिदायत के बाद भी अल्पसंख्यक आरक्षण को वाजिब बता रहे हैं तो ऐसे में फिर मूर्तियों-स्मारकों की पर्दादारी को सियासी मुद्दा बनाने पर अड़ी माया को आयोग कैसे रोक सकता है!
लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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