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देश के पांच राज्यों में चुनावी सरगर्मियां जोरो पर हैं। इस चुनावी समर में उतरे राजनेताओं ने जनता से जो वादे किए हैं या फिर जो वादे किए जा रहे हैं वे किस हद तक पूरा होंगे यह तो समय ही बताएगा, लेकिन भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के कारण राजनेताओं की विश्वसनीयता गिरी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज अधिकांश राजनेता अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए कोई प्रयास करते हुए दिखाई नहीं देते। चुनाव के दौरान उन्हें अपनी छवि का थोड़ा-बहुत डर जरूर सताता है। यही कारण है कि इस मौसम में वे अपनी छवि सुधारने के लिए कुछ फौरी उपाय करते हुए नजर आते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि आजादी के बाद हमारे देश की राजनीति लगातार मूल्यविहीन होती गई है। हालांकि सभी राजनेताओं को एक ही पंक्ति में खड़ा नहीं किया जा सकता, लेकिन इस स्थिति के बावजूद राजनीति का मौजूदा स्वरूप आशा की कोई किरण नहीं दिखाता।
अन्ना आंदोलन के बाद समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नई चेतना जाग्रत हुई है जिसका असर राजनीति पर भी पड़ा है। इसी कारण इस बार राजनीतिक दलों ने दागी नेताओं को टिकट देने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह इस दौर की राजनीति का खोखला आदर्शवाद ही है कि राजनीतिक शुचिता की इस प्रक्रिया के बावजूद उत्तर प्रदेश में कुछ राजनेता कठघरे में खड़े दिखाई दिए। स्टिंग ऑपरेशन में एक राजनेता ने स्वीकार किया कि जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी हथियाने के लिए उन्होंने अनेक जिला पंचायत सदस्यों को सवा-सवा करोड़ रुपये देकर खरीदा। साफ है कि अपने स्वार्थ के लिए हमारे जनप्रतिनिधि किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। उनके लिए निजी स्वार्थ ही सर्वोपरि है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस दौर की राजनीति में जनसेवा जैसे शब्द की क्या कोई प्रासंगिकता है। क्या यह शब्द जनता को लुभाने मात्र के लिए ही प्रयोग में लाया जाता है? यदि जनसेवा या जनकल्याण को स्वयं का लाभ मान लिया जाए तो इस सकारात्मक स्वार्थ के माध्यम से हमारे देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव संभव है। इस दौर में राजनीति एक ऐसा व्यवसाय बनती जा रही है जिसमें जनसेवा का मुखौटा लगाकर जनता पर खर्च किए गए पैसे की जनता से वसूली की जाती है।
राजनीति की यह जो अलग धारा निकली है इस पर व्यवसाय के सभी नियम-कानून लागू होते हैं। चुनाव से पहले कागज पर तो यह हल निकाल लिया जाता है, लेकिन राजनीति के बड़े-बडे़ सूरमा व्यावहारिक रूप से इन प्रश्नों का हल निकालने में नाकाम होते देखे गए हैं। सवाल है कि क्या राजनीति सिर्फ एक गणित ही है। गणित के कुछ प्रचलित सूत्र होते हैं तो व्यवसाय में पूंजी निवेश के बाद होने वाला लाभ देखा जाता है, जबकि राजनीति के गणित में समीकरण और सूत्र बदलते रहते हैं। इसी तरह राजनीति को व्यवसाय मानने वाले लोगों को यह सोचना चाहिए कि राजनीति केवल नफे-नुकसान का खेल नहीं है। राजनीति में जनकल्याण का भाव भी निहित है।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस दौर की राजनीति में बेशर्मी का भाव बढ़ता जा रहा है। एक राजनीतिक दल अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए दूसरे दल के गलत कामों का उदाहरण देने लगता है। क्या एक राजनीतिक दल के गलत कार्य दूसरे दल के गलत कार्यो के माध्यम से न्यायसंगत ठहराए जा सकते हैं। दुख की बात यह है कि अपने अनुचित क्रियाकलापों के लिए राजनेताओं के चेहरों पर चिंता का भाव दिखाई नहीं देता है, बल्कि ऐसे क्रियाकलापों के बाद भी उनके चेहरों पर बेशर्मी की हंसी होती है। किसी भी देश के विकास में उस देश की राजनीति की अहम भूमिका होती है। राजनीति के मौजूदा स्वरूप को बदलने के लिए मतदाताओं को जागरूक होना पड़ेगा। जिस दिन मतदाता अपने निजी स्वार्थो को छोड़कर पूर्ण रूप से जागरूक हो जाएंगे उसी दिन भारतीय राजनीति की तस्वीर भी बदल जाएगी।
लेखक रोहित कौशिक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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