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आर्थिक विकास में बाधक बन रहे ऊर्जा संकट से बचने के उपाय बता रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला
शीर्ष उद्यमियों ने प्रधानमंत्री से मिलकर ऊर्जा संकट को दूर करने की गुहार लगाई है। विश्व बैंक द्वारा किए गए एक अध्ययन में भी ऊर्जा की उपलब्धता को देश के आर्थिक विकास में प्रमुख बाधा बताया गया है। सहज बात है आर्थिक विकास का मतलब उत्पादन और खपत में वृद्धि होता है। इसके लिए ऊर्जा की अधिक जरूरत होती ही है। ध्यान देने की बात है कि पृथ्वी की ऊर्जा पैदा करने की शक्ति सीमित है। भारत में 120 करोड़ लोगों को पश्चिमी देशों की वर्तमान खपत के बराबर ऊर्जा उपलब्ध कराना असंभव है। अत: हमें कम ऊर्जा से अधिक उत्पादन के रास्ते खोजने पड़ेंगे। हर देश के लिए जरूरी होता है कि अपने संसाधनों के अनुरूप उत्पादन करे। जैसे सऊदी अरब में गन्ने और अंगूर की फसल उगाना लाभप्रद नहीं है, क्योंकि वहां पानी की कमी है। सऊदी अरब तेल के निर्यात से विकास कर रहा है। इसी प्रकार भारत के लिए पश्चिम का ऊर्जा आधारित मॉडल को अपनाना उपयुक्त नहीं है।
यूं भी भारत के आर्थिक विकास में ऊर्जा की भूमिका गौण होती जा रही है। मुंबई के इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के सजल घोष ने अध्ययन में पाया कि ऊर्जा की खपत तथा आर्थिक विकास में संबंध नहीं दिखाई देता। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि आर्थिक विकास से ऊर्जा की खपत बढ़ती है। यह संबंध एक दिशा में चलता है, दूसरी दिशा में नहीं। उन्होंने कहा कि ऊर्जा संरक्षण के कदमों का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा यानी ऊर्जा की खपत कम होने पर भी आर्थिक विकास प्रभावित नहीं होगा।
आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा का महत्व कम होने का कारण है सेवा क्षेत्र का विस्तार। भारत की आय में सेवा क्षेत्र का हिस्सा 1971 में 32 फीसदी से बढ़कर 2006 में 54 फीसदी हो गया है। एक अध्ययन में बताया गया है कि इस 54 फीसदी आय को अर्जित करने में देश की केवल 8 फीसदी ऊर्जा लग रही है। सॉफ्टवेयर, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, सिनेमा आदि में ऊर्जा कम लगती है। अत: ऊर्जा संकट से निपटने का सीधा उपाय है कि हम ऊर्जा सघन उद्योगों जैसे स्टील एवं एल्यूमीनियम तथा ऊर्जा सघन फसलों जैसे गन्ना एवं अंगूर को हतोत्साहित करें। सेवा क्षेत्र तथा रागी एवं कोदो जैसे मोटे अनाज को प्रोत्साहित करें तो कम ऊर्जा की खपत में उत्पादन अधिक किया जा सकता है।
उद्यमियों के आग्रह में एक और अंतर्विरोध है। असल विषय ऊर्जा के मूल्य का है। बिजली महंगी होती है तो बिजली उत्पादन करने वाले उद्यमियों को लाभ, परंतु खपत करने वाले उद्यमियों को हानि होती है। इसके विपरीत बिजली का दाम कम रखा जाता है तो उत्पादकों को हानि एवं उपभोक्ताओं को लाभ होता है, लेकिन उद्यमी चाहते हैं कि उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं, दोनों को लाभ हो। इसका फार्मूला उन्होंने निकाला है कि कोयले का दाम सस्ता रहे तो बिजली का दाम कम होने पर भी उत्पादक लाभ कमा सकेंगे और उपभोक्ता को सस्ती बिजली मिल जाएगी। इसलिए उद्यमियों की मांग थी कि कोल इंडिया द्वारा कोयले के उत्पादन में वृद्धि की जाए। प्रश्न है कि कोल इंडिया द्वारा कोयले के घरेलू उत्पादन पर दबाव क्यों? यदि घरेलू उत्पादन कम है तो आयात किया जा सकता है, परंतु उद्यमी कोयले का आयात नहीं करना चाहते, क्योंकि विश्व बाजार में कोयले का दाम ऊंचा है। यानी मूल विषय ऊर्जा संकट का नहीं है। इस संकट से आयात के माध्यम से निपटा जा सकता है। मूल विषय सस्ते कोयले का है। कोयला सस्ता हो तो उत्पादन और खपत करने वाले उद्यमी, दोनों लाभ कमा सकते हैं। हमारे उद्यमियों की मूल मंशा है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करके भारी लाभ कमाया जाए।
उद्यमियों की यह मांग जायज नहीं है। धरती में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। आज इनका अंधाधुंध दोहन कल भारी संकट में ढकेलने वाला साबित होगा। अत: कोयले, तेल एवं यूरेनियम का दाम बढ़ाकर ऊर्जा की खपत पर अंकुश लगाना चाहिए ताकि भविष्य की पीढि़यों के लिए हम धरती को खोखला करके न छोड़ें। स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं कोल इंडिया की अकुशलता पर पर्दा नहीं डालना चाहता, परंतु कोल इंडिया कुशल हो जाए तब भी कोयले के दाम को वैश्विक स्तर पर बढ़ाना चाहिए, अन्यथा हम कुशलतापूर्वक धरती को खोखला कर देंगे।
संकट का दूसरा पहलू घरेलू खपत का है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2012 के बीच बिजली की घरेलू खपत में 7.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है। इसके सामने सिंचाई, उद्योग तथा कामर्शियल के लिए बिजली की खपत में मात्र 2.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है। अर्थ हुआ कि बिजली की जरूरत फ्रिज और एयर कंडीशनर चलाने के लिए ज्यादा और उत्पादन के लिए कम है। अत: यह तर्क नहीं टिकता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए बिजली का उत्पादन बढ़ाना निहायत जरूरी है। सच यह है कि बिजली की जरूरत मध्यम वर्ग की विलासितापूर्ण जीवनशैली के लिए अधिक है। मुंबई के एक शीर्ष उद्यमी के घर का मासिक बिजली का बिल 74 लाख रुपये है। दिल्ली की कोठियों में चार व्यक्ति के परिवार का मासिक बिजली का बिल 25,000 होना सामान्य बात हो गई है। चार व्यक्तियों के परिवार में चार कारें हैं जो प्रतिदिन सैकड़ों लीटर पेट्रोल फूंकती हैं। इस प्रकार की ऊर्जा की बर्बादी को सस्ता घरेलू कोयला उपलब्ध कराकर पोषित करना और प्रकृति का दोहन करना अनुचित होगा।
गरीब को बिजली उपलब्ध कराने के नाम पर हम बिजली का उत्पादन बढ़ा रहे हैं और उत्पादित बिजली को उच्च वर्ग के ऐशोआराम के लिए दे रहे हैं। मेरे विचार में उत्पादित बिजली में से यदि मात्र दो प्रतिशत गरीब के लिए आरक्षित कर दिया जाए तो सभी घरों को बिजली आपूर्ति हो जाएगी।
सारांश है कि आर्थिक विकास के लिए हमें सेवा क्षेत्र का सहारा लेना चाहिए एवं ऊर्जा सघन उद्योगों को हतोत्साहित करना चाहिए। यह हमारे प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूल होगा। घरेलू कोयले के दाम बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय मूल्य के समतुल्य कर देना चाहिए। साथ ही उत्पादित बिजली के दाम बढ़ा देने चाहिए ताकि उत्पादन कंपनी को लाभ हो और खपत पर अंकुश लगे। बिजली की विलासितापूर्ण खपत पर नियंत्रण करने के लिए सौ यूनिट प्रति माह के आगे बिजली का दाम 10 रुपये प्रति यूनिट तथा 1000 यूनिट प्रति माह के आगे 20 रुपये प्रति यूनिट कर देना चाहिए। ऐसा करने पर आर्थिक विकास भी होगा और भावी पीढि़यों का जीवन भी सुरक्षित होगा।
लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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