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सिमटते जंगल, विकराल होती मुसीबतें

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित दिल्ली स्थायी विकास सम्मलेन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के जंगलों की स्थिति पर जो जानकारी दी थी, उसे उन्हीं की सरकार के एक मंत्रालय द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण ने गलत साबित कर दिया है। दरअसल, प्रधानमंत्री ने बताया था कि देश में वर्ष 1997 से वर्ष 2007 के बीच जंगलों की संख्या और क्षेत्र में पांच फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। प्रधानमंत्री ने उम्मीद भी जताई थी कि हरित मिशन के तहत जल्द ही 50 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन क्षेत्रों का विकास कर लिया जाएगा। लेकिन पिछले दिनों वन सर्वेक्षण-2011 की जो रिपोर्ट आई है, वह प्रधानमंत्री के दावे को गलत साबित करती है। वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के वन क्षेत्रों में 367 किलोमीटर की कमी आई है और अब जंगल के कुल क्षेत्रफल का महज 23.81 प्रतिशत हिस्सा ही बचा हुआ है। सर्वेक्षण की यह ताजा रिपोर्ट बताती है कि सर्वाधिक आदिवासी इलाकों में वन्य क्षेत्र घटे हैं। यहां कुल 679 किलोमीटर वन्य भूमि कम हुई है। इसी तरह पहाड़ी इलाकों में 548 किलोमीटर वन्य क्षेत्र घटे हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 3, आंध्र प्रदेश में 281, मणिपुर में 190 तथा नगालैंड में 146 किलोमीटर वन्य रकबा घटा है। दूसरी तरफ पंजाब में 100, झारखंड में 83, बिहार में 41, हरियाणा में 14, हिमाचल प्रदेश में 11 और जम्मू-कश्मीर में 2 किलोमीटर वन्य भूमि का विस्तार हुआ है। मणिपुर, नगालैंड, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में वनों के रकबे में कमी का सर्वाधिक असर आदिवासियों और जंगली जानवरों पर पडे़गा।


बहरहाल, पर्यावरण और जलवायु संकट के बीच वनों के क्षेत्रफल में गिरावट का सीधा असर हम इंसानों पर पड़ेगा। आज न सिर्फ भारत में वनों की संख्या और क्षेत्रफल में गिरावट आ रही है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी निरंतर जंगल घटते जा रहे हैं। पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका के डरबन में पर्यावरण सुरक्षा पर वैश्विक सम्मलेन के बीच ही संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट सामने आई थी। यह रिपोर्ट हमारी चिंताओं को और भी बढ़ाने वाली थी। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे विश्व में हर साल औसतन 50 लाख हेक्टेयर वन्य क्षेत्र काटे जा रहे हैं। इससे अब धरती पर महज 30 प्रतिशत ही वन्य क्षेत्र बचा है। पर्यावरण संकट के बीच यह एक और दुर्भाग्य पूर्ण जानकारी है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने पर्यावरण असंतुलन का काम किया है। इससे न केवल पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हुई हैं, बल्कि वन्यजीवों का भी सफाया होता जा रहा है। ये वन्यजीव कई मायने में इंसान के हितैषी होते हैं, जिनका लुप्त होना इंसान के लिए खतरे की घंटी है। खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, 1990 से 2005 के बीच पूरे विश्व में मौजूद करीब 7 करोड़ हेक्टेयर वन संपदा समाप्त हो चुकी है। यह वन्य संपदा देश के आर्थिक विकास में काफी मददगार होती है। कई जनजातियों की आजीविका भी सीधे वन्य संपदा से ही जुड़ी होती है। देश के जंगलों के बढ़ने-घटने का हिसाब रखने वाले फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच सालों में भारत में बनने वाले बड़े बांधों और सुनामी के कहर से 728 वर्ग किलोमीटर जंगली क्षेत्र पूर्णत: नष्ट हो गया।


सिर्फ 2003 और 2005 के बीच में ही 1409 वर्ग किलोमीटर जंगल क्षेत्र नष्ट हुआ था। एक समय जहां भारत में 50 प्रतिशत से भी अधिक जंगल थे, वहीं बाद में यह अपने सबसे निम्नतम स्तर यानी घटकर 20 प्रतिशत के आस-पास पहुंच गए। कटिबंधीय क्षेत्रों में सर्वाधिक जंगल काटे गए हैं और वहां अब कृषि योग्य भूमि विकसित कर दी गई है। भारत में वर्ष 1951 से 1972 के बीच 34 लाख हेक्टेयर वन्य क्षेत्रों को उद्योगों, बांधों, सड़कों आदि के लिए काटा गया। भारत में वनों को नष्ट करने की यह रफ्तार अब भी लगभग 10 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष है। इस आंकड़े में उन वनों की कटाई का आंकड़ा नहीं है, जहां गैरकानूनी तरीके से वन काटे जा रहे हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई और इंसानों के बढ़ते दखल से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है। इसके साथ ही ओजोन परत का भी क्षय होता जा रहा है। ग्लोबल वॉर्मिग से हमारे कृषि उत्पादन भी घटते जा रहे है, जिससे खाद्य संकट की स्थिति पैदा हो गई है। चूंकि जंगल अचानक आने वाली बाढ़ों से मिट्टी के कटाव को रोकने में भी प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं, इस लिहाज से भी जंगल के संरक्षण की जरूरत है। हमने 1968 में तीस्ता, 1970 में अलकनंदा और 1978 में भागीरथी नदी की बाढ़ की विभीषिका को देखा है। इन सबके बावजूद हम उन मानवीय गलतियों से सबक नहीं लेते।


हालांकि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन सबका ध्यान सिर्फ कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर ही है। किसी का ध्यान जंगल के संरक्षण की ओर नहीं जाता। जरूरी तो यह है कि पहले हम अपने वन्य क्षेत्रों समृद्ध और इनकी रक्षा करें। हालांकि जिस प्रकार देश में औद्योगिक तरक्की होती जा रही है और खाली भूमि का मिलना कम होता जा रहा है, ऐसी स्थिति में वनों का संरक्षण एक बड़ी चुनौती है। भारत में 1952 की वन नीति के तहत 33 प्रतिशत भूमि को वनों के अंतर्गत लाने की बात की गई थी, लेकिन 1951 से 1980 के दरम्यान बहुत कम प्रगति हुई। हरित की गई कुल 31.8 लाख हेक्टेयर भूमि में से केवल 6 लाख हेक्टेयर (लगभग 19 प्रतिशत) भूमि पर पौधे लगे। राष्ट्रीय नीति-1988 में क्षरित वनों की सुरक्षा और उनके प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी का उद्देश्य सामने रखा गया था, लेकिन इसका भी उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं निकला। इस बीच मनरेगा और अन्य योजनाओं के जरिए वृक्षारोपण का अभियान चलाकर भारत सरकार एक सराहनीय पहल कर रही है, लेकिन पर्यावरण की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि इस ओर वैश्विक स्तर पर मुहिम छेड़ने की जरूरत है। चंद देशों में वृक्षारोपण जैसे अभियान चलाकर समस्या का समाधान नहीं होने वाला। हमें तत्काल जंगलों की सुरक्षा के प्रति उचित रणनीतियां अपनानी होंगी।


बढ़ते पारिस्थितिकी असंतुलन के प्रति भी हमें ध्यान देना होगा और इसके लिए हमें वैश्विक स्तर पर पहल करनी होगी। सीमित स्वार्थो को तिलांजलि देकर पूरे विश्व के सामाजिक और पर्यावरणीय हितों को सर्वोपरि रखना होगा। जंगलों के काटे जाने का प्रमुख कारण है विकास और व्यावसायिक हितों के लिए किए जा रहे कार्य। उदाहरण के तौर पर देखें तो हिमाचल प्रदेश सरकार अपने कुल राजस्व का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा करीब दो लाख वृक्षों की आहुति देकर हासिल करती है। साथ ही चीड़ के वृक्ष से रस निकालने का सिलसिला भी इसे खत्म कर रहा है। आर्थिक विकास के बीच अगर हम इसी रफ्तार से अपने आसपास के हरे वृक्षों और जंगल को नष्ट करते रहे तो इंसान का अस्तित्व खतरे में पड़ना स्वाभाविक है। लिहाजा, हमें ग्रीन ग्रोथ की ओर बढ़ना होगा। यानी ऐसी तरक्की, जहां हरियाली का नाश न हो और विकास की रफ्तार भी बनी रहे। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का जितना प्रयोग किया जाए, उसकी भरपाई भी सुनिश्चित की जाए। अगर किसी कारण से कोई हरा पेड़ काटना पड़े तो इसकी भरपाई तभी हो सकती है, जब हम तीन-चार पौधे लगाएं। जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 15 वर्षो के दौरान नए शहरों के निर्माण और विकास के नाम पर प्रत्येक मिनट 9.3 हेक्टेयर क्षेत्र के वन उजाड़े गए हैं, इस तरह क्या हमने प्रकृति से आफत नहीं मोल ली है? वास्तव में हम जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। अब भी वक्त है। अगर हम नहीं चेते और जंगलों का खात्मा ऐसे ही होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मानव जीवन खतरे में पड़ जाएगा।


लेखक गौरव कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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