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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों आयोजित प्रवासी भारतीय सम्मलेन में देश की आर्थिक विकास दर में आ रही कमी पर भी चिंता प्रकट की। वित्त वर्ष 2011-12 की दूसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर नौ माह के सबसे निचले स्तर पर पहुंचकर 6.9 पर रही। इसके परिणाम स्वरूप सरकार ने 2011-2012 के लिए आर्थिक विकास के लक्ष्यों को भी घटाकर 7.3 प्रतिशत कर दिया। अब भी प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित कई आर्थिक जानकारों ने इसे इस वर्ष भी 7 से 7.5 प्रतिशत पर बने रहने का अनुमान व्यक्त किया है। वैश्विक आर्थिक मंदी की आहट के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का यह हाल तो होना ही था। चूंकि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण अंग है, लिहाजा विश्व की आर्थिक परिघटनाओं का असर इस पर पड़ेगा ही। लेकिन यहां दोष सिर्फ वैश्विक आर्थिक मंदी का ही नहीं है। भारत के लिए रुपये का अवमूल्यन भी एक बड़ा कारण है। हाल के दिनों में अमूमन हर रोज रुपये के मूल्य में कमी आती रही। इसके अलावा यूरोपीय देशों और अमेरिका में मंदी के कारण भारतीय उत्पादों को खपाना भी मुश्किल हो गया है। सबसे बढ़कर मुद्रास्फीति भी लगातार बढ़ती जा रही है। इसमें अभी कमी का भी कोई संकेत नहीं दिख रहा है। हालांकि कमी लाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार ने मजबूरी में मौद्रिक नीति का सहारा लिया और छोटे अंतराल में कई बार ब्याज दरे बढ़ाई। उनके पास इस नीति के प्रयोग के सिवा अल्प अवधि का अन्य कोई रास्ता नहीं था। दीर्घ अवधि के लिए हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बेहतर करते हुए वितरण व्यवस्था सुधारने होंगे। इसके अलावा कृषि उत्पादन में वृद्धि के प्रयास के साथ-साथ ढांचागत विकास को प्राथमिकता देनी होगी।
भारत में राजनीतिक गतिरोधों के कारण आर्थिक सुधार बिल पारित नहीं हो सका। इससे हमारे यहां विदेशी निवेश भी प्रभावित हुआ है। अभी तक वैश्विक आर्थिक परिदृश्य स्पष्ट नहीं हो सका है कि किस दिशा में जाएगा, लेकिन भारत के लिए यह ज्यादा चिंता का विषय नहीं है। क्योंकि भारत में उपभोग में वृद्धि हो रही है। यहां रोजगार है। आय में वृद्धि हो रही है। कुल मिलाकर बाजार में मांग बढ़ रही है, लेकिन हमें इसी से संतोष नहीं करना चाहिए। हमें भविष्य के लिए गंभीर और उचित कदम उठाने होंगे। इससे सीख लेकर हमें अपना व्यापार विस्तृत दायरे में करना होगा। किसी एक भौगोलिक क्षेत्र या देश विशेष पर निर्यात के लिए निर्भर नहीं होना चाहिए। विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अपने कारोबार का विस्तार करना होगा। मसलन, भारत के लिए अफ्रीकी देशों में अपार संभावनाएं हैं। दूसरी तरफ हमें अपने आर्थिक ढांचे में बदलाव की जरूरत है, ताकि प्रत्येक क्षेत्रों को विकसित होने का सामान अवसर मिले। मसलन, अभी मैन्युफैक्चरिंग और खनन क्षेत्रों में गिरावट से पूरी जीडीपी में गिरावट आ गई। लिहाजा, हमें सभी क्षेत्रों खासतौर से कृषि पर सामान ध्यान देना होगा। इसमें निजी क्षेत्रों को भी प्रत्यक्ष निवेश के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए।
कृषि क्षेत्र पर खास ध्यान देने की वजह भी है। इस क्षेत्र में देश की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा लगा हुआ है, लेकिन जीडीपी में इसका योगदान केवल 16 प्रतिशत है। अगर जीडीपी में इसका हिस्सा समुचित होता तो हमें आर्थिक विकास दम में इस तरह की गिरावट देखने को नहीं मिलती। इसके अलावा हमें देश में सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों को भी बढ़ावा देने के समुचित उपाय करने की जरूरत है। छोटे उद्योगों की ऋण जरूरतों की पूर्ति भी जरूरी है। यह ज्यादा रोजगार सृजन की क्षमता रखता है। इस दिशा में सरकारी और निजी प्रयासों में इधर कुछ सालों में तेजी आई है। जरूरत है कि इसे बरकरार रखते हुए और प्रोत्साहन दिया जाए। पिछले दिनों मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मुद्दा गरम था। वास्तव में इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से हमारी अर्थव्यवस्था को लाभ ही मिलता। वैसे भी सरकार ने इसमें ऐसा प्रावधान किया है कि इस रूप में आई कंपनी को अपने संपूर्ण निवेश का 50 प्रतिशत हिस्सा आधारभूत संरचना के निर्माण पर खर्च करना होगा। इससे अंतत: भारतीय अर्थव्यवस्था को ही लाभ होता। साथ ही यह प्रावधान भी है कि बिक्री करने वाली वस्तुओं का 30 प्रतिशत हिस्सा छोटे उद्योगों से खरीदना होगा। यह हमारे देश में लघु उद्योगों को विकसित करने की दिशा में सहायक ही सिद्ध होगा। हमें वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच अपने सकल घरेलू उत्पाद की दर के कम होने से सबक लेना होगा और इस दिशा में बेहतर प्रयास करने होंगे।
लेखक गौरव कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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