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मीडिया की आजादी पर नई बहस

जागरण मेहमान कोना
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Kuldip Nayarहाल के कुछ प्रसंगों से मीडिया के कामकाज और अभिव्यक्ति के अधिकार पर नए सवाल उभरते देख रहे हैं कुलदीप नैयर


कितना स्वतंत्र है मीडिया या फिर कितना स्वतंत्र है अभिव्यक्ति का अधिकार? हाल के तीन भाषणों से यह सवाल उभरता है। इनमें पहला भाषण है उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का, दूसरा है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का और तीसरा प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू का। धमकी के कारण सलमान रुश्दी जयपुर साहित्य महोत्सव में शामिल नहीं हो सके। इस कारण अभिव्यक्ति के अधिकार का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। इसी तरह भाजपा की छात्र शाखा के विरोध के कारण पुणे में कश्मीर पर बनी डाक्युमेंट्री की स्क्रीनिंग नहीं हो सकी। उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों ने ही अपने भाषणों में मीडिया को अपनी भूमिका के बारे में आत्मनिरीक्षण करने की सलाह दी है। उनके भाषणों में मीडिया पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, किसी तरीके से नियंत्रण लगाने का कोई संकेत तक नहीं था। हालांकि न्यायमूर्ति काटजू ने चेतावनी दी कि कुछ नियंत्रण भी लगाए जा सकते हैं, क्योंकि आत्मनियंत्रण सही मामले में नियंत्रण नहीं हैं। आपातकाल के दौरान लगाई गई सेंसरशिप को छोड़कर आजादी के बाद से इस मामले में सरकार का साफ-सुथरा रिकार्ड रहा है। केंद्र की सरकारें पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का अनुसरण करती आई हैं। नेहरू ने 3 दिसंबर, 1950 को अखिल भारतीय समाचार पत्र संपादक सम्मेलन को आश्वस्त किया था कि मैं प्रेस को पूरी स्वतंत्रता दूंगा, लेकिन जस्टिस काटजू दूसरी राह पर नजर आ रहे हैं। उन्हें मालूम होना चाहिए कि प्रेस काउंसिल का गठन प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हुआ था। दुर्भाग्यवश उनके भाषणों में मीडिया की कार्यशैली या संस्कृति की झलक नहीं दिख रही। प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष बनने के एक ही दिन बाद उन्होंने पत्रकारों को निरक्षर घोषित कर दिया। अगर किसी व्यक्ति में सही तरीके से लिखने, समाचार को समझने या विश्लेषण की काबलियत न हो तो कोई व्यक्ति अपनी डिग्री के बल पर पत्रकार नहीं बन सकता। हमें जानना चाहिए कि भारत में जो शीर्ष पत्रकार हुए हैं उनमें प्रमुख एस मुलगांवकर ग्रेजुएट भी नहीं थे।


मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि मीडिया व्यवस्था का अंग बनता जा रहा है। स्वतंत्र समाज में प्रेस का काम निर्भय होकर निष्पक्ष तरीके से लोगों को घटनाओं की जानकारी देना है। कभी-कभी यह काम अप्रिय भी हो सकता है, लेकिन इसे करना पड़ता है, क्योंकि स्वतंत्र सूचना के आधार ही स्वतंत्र समाज बनता है। अगर प्रेस का काम सिर्फ सरकारी विज्ञप्तियां या आधिकारिक बयान प्रकाशित करना रहे तो फिर खामी या गलती निकालने की कोई जरूरत नहीं रहेगी। दुर्भाग्य से ऊंचे पदों पर बैठे लोग इस धारणा के साथ काम करते हैं कि इस बात सिर्फ वे ही जानते हैं कि देश को क्या और कब बताया जाना चाहिए? जब कभी उनके मनमाफिक खबर नहीं छपती तो वे उत्तेजित हो जाते हैं। सबसे पहले तो वे इसका प्रतिवाद करने की कोशिश करते हैं। इससे काम न चलने पर आधा-अधूरा स्पष्टीकरण दे दिया जाता है। मैं प्रेस काउंसिल में रहा हूं। उस समय हर सदस्य चाहता था कि प्रेस काउंसिल को बिना दांत का होना चाहिए। इसका गठन जांच करने वालों की जांच करने वाले संगठन के तौर पर किया गया था।


जस्टिस काटजू का यह तर्क कि इसे दंड देने का अधिकार भी होना चाहिए, इसके गठन के मकसद को खत्म कर देता है। प्रेस काउंसिल कोई अदालत नहीं है। उसका गठन इस मकसद से किया गया था कि गलती करने वाले प्रकाशन अपनी गलती को कैसे सुधार सकते हैं, इसका फैसला करने का अधिकार काउंसिल के सदस्यों यानी संपादकों, पत्रकारों और मालिकों को ही दे देना चाहिए। फिसलन तब शुरू हुई जब काउंसिल ने जिन प्रकाशनों की निंदा की उन्होंने अपने खिलाफ काउंसिल के फैसले को छापना भी बंद कर दिया। मेरा मानना है कि काउंसिल के निर्णयों को प्रकाशित करना अनिवार्य बना देना चाहिए, भले ही निर्णय कितना भी अप्रिय क्यों न हो। जस्टिस काटजू को काउंसिल के रिकार्डो को देखना चाहिए। काउंसिल सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का ही अंग है। काउंसिल का सबसे बुरा हाल आपातकाल के दिनों में था। बाद में भी काउंसिल अपने स्वतंत्र अस्तित्व के मुताबिक काम नहीं कर सकी।


जहां तक सलमान रुश्दी का मामला है, उन्हें अपनी यात्रा जान पर खतरे के भय से रद करनी पड़ी है। संभवत: सरकार उन्हें सुरक्षा प्रदान करने को लेकर अनिश्चय की स्थिति में थी, लेकिन सवाल यह नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है। सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटनिक वर्सेज’ का विरोध करने वाले कुछ कट्टरपंथियों ने पूरे मुस्लिम समुदाय को बंधक बना लिया। उदारवादी मुसलमानों ने कुछ नहीं कहा, जबकि वे हिंदुओं के गलत कामों के खिलाफ खुलकर बोलते रहते हैं। मुस्लिम धर्मगुरुओं को अहसास होना चाहिए कि पंथनिरपेक्ष समाज में संविधान फतवा से ऊपर है। एमएफ हुसैन को हिंदू कट्टरपंथियों के कुछ ऐसे ही व्यवहार का सामना करना पड़ा था। इसी तरह कश्मीर पर बनी डाक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग रद कर सिमबोसिस कॉलेज ऑफ आ‌र्ट्स एंड कॉमर्स ने भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का उल्लंघन किया है। संजय काक की इस डाक्यूमेंट्री ‘जश्ने-आजादी’ में सेना का विरोध किया गया है। इसके विरोध में मैं सिमबोसिस के प्रोफसर एमिरेट्स के पद से इस्तीफा दे रहा हूं। नि:संदेह पूरी दुनिया में स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जगह सिकुड़ रही है। फिर भी मेरा मानना है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति के दमन की इस मरुभूमि में भारत हरे-भरे स्थान की तरह है, लेकिन कट्टरपंथियों एवं लचर सरकारों ने मुझे गलत साबित कर दिया है। रुश्दी के मामले में उत्तर प्रदेश के चुनाव के कारण स्थिति और बिगड़ी, क्योंकि राज्य में करीब 15 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं।


लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं


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