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सरकार गारंटी योजना

जागरण मेहमान कोना
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बजट से कुछ महंगा सस्‍ता होता है क्‍या? टैक्‍स में कमी बेशी का रोमांच भी अब कितना बचा है ?  घाटे की खिच खिच भी बेमानी है। बारह का बजट इन पुराने पैमानों का बजट होगा ही नहीं। इस बजट में तो पूरी दुनिया भारत की वह सरकार ढूंढेगी जो पिछले तीन साल में कहीं खो गई है और सब कुछ ठप सा हो गया है। देश में गरीबों की तादाद, उद्योगों के लिए जमीन मिलने में देरी, टैक्‍स हैवेन में रखा पैसा, हसन अलियों का भविष्‍य, हाथ पर हाथ धरे बैठी नौकरशाही, नए कानूनों का टोटा, नियामकों की नाकामी, नीतियों का शून्‍य !!!.. यही नामुराद सवाल ही इस साल का असली बजट हैं। क्योंकि हमारी ताजी मुसीबतों की पृष्‍ठभूमि पूरी तरह से गैर बजटीय है। कुछ पुरानी गलतियां नई चुनौतियों से मिल कर बहुआयामी संकट गढ रही हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा कि यह बजट सरकारी स्‍कीमों में मुंह में कितना चारा रखता है अंतर से बात से पड़ेगा कि वित्‍त मंत्री सरकार (गवर्नेंस) गारंटी योजना कितनी ठोस नीतियो का आवंटन करते हैं। या सरकार के साखकोषीय घाटे के कम करने के लिए क्‍या फार्मूला लाते हैं। यह राजकोष का बजट है ही नहीं यह तो राजकाज यानी नीतियों का बजट है।

साख की मद
हमारी ताजी मुसीबतें बजट के फार्मेट से बाहर पैदा हो रही हैं। कोयले की कमी कारण प्रधानमंत्री के दरबार मे बिजली कंपनियों की गुहार, जमीन अधिग्रहण कानून के कारण लटकी परियोजनायें , पर्यावरण मंजूरी में फंसे निवेश, राज्‍य बिजली बोर्डों को कर्ज देकर डूबते बैंक, फारच्‍यून 500 कंपनी ओनएजीसी के लिए निवेशको का टोटा………….. इनमें से एक भी मुसीबत बजट के किसी घाटे से पैदा नहीं हुईं। 2जी पर अदालत के फैसले के बाद सरकार आवंटन की प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए थी मगर सरकार एक साल का वकत मांग रही है यानी एक लंबी अनिश्चितता की बुनियाद रखी जा रही है। भूमि अधिग्रहण, खानों के आवंटन, औद्योगिक पुनर्वास जैसे तमाम कानून अधर में हैं। समझदार निवेशक भारत में कानून के राज पर भरोसा नहीं कर पा रहें है बलिक सबको यह डर है कि सरकार के ज्‍यादातर नियामक विवादित या निष्क्रिय हैं, राजनीतिक भष्‍टाचार चरम पर है इसलिए अदालतें सरकार के फैसलों को सर के बल खड़ा कर रही है और कंपनियों के बिजनेस प्‍लान चौपट हो रहे हैं। भारत में योग्‍य कानूनो का घाटा पारदर्शिता के सवाल और बड़े कर रहा है। लोकपाल, काला धन, टैक्‍स हैवेन, मनी लॉड्रिंग, वित्‍तीय अपराधो पर सरकार की भौंचक मुद्रायें सबूत है कि सरकार में खुद को साफ सुथरा बनाने की हिम्‍मत नहीं है। कानूनो का शूनय, भ्रष्‍टाचार की फांस, गठबंधन धर्म की सांसत, कांग्रेस की सुधार विरोधी लोकलुभावन सियासत और नौकरशाही की निष्कि्यता ने मिल कर एक ऐसा गैर बजटीय भयानक घाटा तैयार किया है जिसे राजस्‍व में वृद्धि या खर्च में कमी से भरा ही नही जा सकता। राजकोषीय घाटे के लिए तो आगे भी वक्‍त मिल जाएगा इस बजट की सबसे बड़ी चिंता यही गवर्नेंस घाटा है जिसे घटाने के लिए ही वित्‍त मंत्री का बुद्धि विवेक इस बार दांव पर है।

आदतों का संकट
खलिस बजटीय मुसीबतें भी अब बजट के दायरे से बाहर निकल कर गवर्नेंस के दायरे में पहुंच गई हैं। इस देश में कुल कितने गरीब हैं ? सवा अरब लोगों में किसकी आय कितनी है? किसे कितनी सबिसडी की जरुरत है ? इन सवालों का बजट से सीधा रिश्‍ता नहीं मिलता, मगर बजट की पुरानी बीमारियां इन्‍हीं सवालो से जुडती हैं। किसी देश की सरकारें इतनी बेफिक्र कैसे हो सकती हैं कि इतने वर्षों में उन लोगों के नाम व चेहरे तक न मिल सकें जान पाएं जिन्‍हे लेकर हर बजट में संसाधन लुटते हैं। भारत में कुछ बेहद बुनियादी किस्‍म आंकड़ों के बिना पिछले 65 साल से सब्सिडी बांटी जा रही है और स्‍कीमों के नाती पोते अब अरबों के बिल बना रहे हैं। सामाजिक स्‍कीमों पर राज्‍य सरकारों का खर्च जोड़ने के बाद यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस अंधे कुएं में कितना पैसे झोंका जा चुका है। तकनीक का अगुआ एक मुल्‍क देश में गरीबी का स्‍तर तय करने पहचान के लिए ऊर्जा की खपत यानी कैलोरी जैसे अबूझ किस्‍म के फार्मूलों का सहारा लेता है। जो काम सिर्फ तकनीक और सर्वेक्षण कर्मचारी कर सकते हैं उसके लिए अर्थशास्‍त्री फार्मूले बनाते हैं। यह शक करने की पूरी वजह बनती है कि सरकार शायद जानबूझ सब्सिडी के लायकों की पहचान नहीं करना चाहती हैं ताकि सरकारी लूट का विशाल तंत्र फलता फूलता रहे। आय के आंकड़ों और सब्सिडी लेने वाले चेहरों को जाने बिना सरकार पूरे अनाज को बाजार और बजट को खाद्य सुरक्षा कानून के पत्‍थर से बांधने जा रही है। इसलिए सब्सिडी को लेकर वित्‍त मंत्री और सरकारी अर्थशासित्रयों का स्‍यापा सिर्फ कॉमेडी लगता है। भारत में आय के आंकड़े न होना बजटों की सबसे बड़ी मुसीबत है। मगर इस मुसीबत को पोसना सरकार की आदत बन गई है। टैक्‍स का आधार बढ़ाने की कोशिशों से लेकर देश को उचित योजना देने तक सब कुछ सिर्फ एक जगह इसलिए अटका या बर्बाद हो रहा है कि क्‍यों कि हमारे पास हमारे अपने लोगों का कोई ठोस आंकडा नहीं है। अगर सरकार अपनी आदत को छोड़ने (लाभार्थियों की युद्ध स्‍तर पर पहचान और आय के आंकड़ों का संग्रह) को तैयार नहीं है तो यह समझिये बजट हमारे लिए राहत नहीं बल्कि गंभीर मुश्किलों का अगला चरण लेकर आ रहा है।

यह बजट बहुत संवेदनशील है। इस बार वित्‍त मंत्री कितना घाटा दिखाते हैं, टैक्‍स में क्‍या कतर ब्‍योंत करते है या कितने आवंटनो से किन स्‍कीमों की मुट्टी गरम करते हैं इससे बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है। इस बजट आंकड़े़ नहीं बल्कि इसकी भाषा महत्‍वपूर्ण होगी। इसके आवंटन बल्कि इसके आवाहन (सुधारो कें) गौरतलब होंगे। अर्थव्‍यवस्‍था घाटे वाले बजटों, ऊंचे टैक्‍स और महंगे ब्‍याज को बर्दाश्‍त कर सकती है (करती रही है) मगर एक नाकारा और बदहवास व्‍यवस्‍था को नहीं। यह बजट तो बस एक कसौटी पर कसा जाएगा कि वित्‍त मंत्री अपनी संज्ञाशून्‍य सरकार के लिए कितनी सार्थक ऊर्जा लेकर आते है और साख को उबारने के लिए कौन से फार्मूले पेश करते है। अर्थव्‍यवस्‍था को नकद के नहीं नीतियो के आवंटन की जरुरत है। संसाधनों की कमी नहीं है गवर्नेंस को सुधारने के लिए साहस और सूझ की कमी है। इस बजट में सरकार को तलाशिये और राज-काज कोषीय घाटे में कमी की दुआ कीजिये।

इस आलेख के लेखक अंशुमान तिवारी हैं

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